अलंकार - शब्दालंकार shabdaalankaar
जब काव्य में शब्दों के प्रयोग द्वारा चमत्कृति उत्पादित की जाती है अर्थात काव्य के सौंदर्य में वृद्धि की जाती है तो उसे शब्दालंकार कहते हैं ।
‘शब्दालंकार शब्द’ दो शब्द ‘शब्द+अलंकार’ से बना है । शब्द से तात्पर्य ध्वनि व अर्थ से होता है । इसी आधार पर ध्वनि को आधार बनाकर निर्मित अलंकार शब्दालंकार कहलाता है । काव्य में किसी विशेष ध्वनि का बार-बार प्रयोग करके चमत्कृति उत्पन्न की जाती है परंतु उस शब्द के स्थान पर्यायवाची रख देने पर उसका अस्तित्व नही रहता ।
उदाहरण
तरनि तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये ।
भगवान ! भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये ।
तीन बेर खाती थीं , वे तीन बेर खाती है ।
यहाँ ‘त’ , ‘भ’ व ‘तीन बेर’ का अधिक प्रयोग कर शब्दालंकार की सृष्टि की गई है ।
प्रमुख शब्दालंकार
अनुप्रास पुनरूक्ति प्रकाश
वक्रोक्ति वीप्सा
यमक पुनरूक्तिवदाभास
श्लेष
प्रमुख शब्दालंकारों का विवेचन
अनुप्रास अलंकार
अनुप्रास शब्द दो शब्दों अनु+प्रास से बना है ,जिसमें अनु का अर्थ बार-बार व प्रास का अर्थ वर्ण है । अर्थात जब काव्य में किसी एक ही वर्ण की बार-बार आवृत्ति हो तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है ।
उदाहरण
कल - कल कोमल कुसुम कुंज पर मधु बरसाने वाली कौन ?
भगवान ! भागें दुःख , जनता देश की फूले - फले
मूरति मधुर मनोहर देखो
कानन कठिन भयंकर भारी
अनुप्रास के भेद
प्रमुखतः अनुप्रास के पांच भेद माने गए हैं -
छेकानुप्रास वृत्यानुप्रास
श्रुत्यनुप्रास अन्त्यानुप्रास
लाटानुप्रास ।
छेकानुप्रास
जहां एक ही चरण में दो या दो से अधिक आवृत्ति कुछ अन्तर पर ही हो वहाँ छेकानुप्रास अलंकार होता है । इन वर्णों का प्रयोग आदि , मध्य , अन्त में , कहीं भी हो सकता है ।
उदाहरण
इस करुणा कलित हृदय में
क्यों विकल रागिनी बजती
कानन कठिन भयंकर भारी
घोर घाम हिम वारी बयारि
वृत्यनुप्रास
जहाँ एक या एक से अधिक वर्ण की क्रमानुसार आवृति हो तो वहाँ वृत्यनुप्रास अलंकार होता है ।
ये वृतियां तीन प्रकार की होती हैं - कोमल , मधुरा , कठोरा ।
कोमलावृति में ट वर्ग को छोड़कर अन्य व्यंजन आते हैं ।
मधुरा वृत्ति में य , प , क , वर्ग , य , र , ल , व वर्ण की आवृत्ति होती है ।
कठोरा वृत्ति में ट वर्ग के कठोर वर्णों की बार - बार आवृति होती है
उदाहरण
रघुनन्द आनन्द कन्द कौशल चन्द दशरथ नन्दन
कंकन किकिनि नूपुर धुनि सुनि
कहत लखन सन राम हृदय गुनि
बतरस लालच लाल की , मुरली धरि लुकाय
श्रुत्यनुप्रास अलंकार
जब एक ही स्थान से उच्चरित होने वाले बहुत से वर्णों का प्रयोग किया जाय तो श्रुत्यनुप्रास अलंकार होता है ।
उदाहरण
दिनान्त था , वे दिननाथ डूबते सधेनु आते गृह ग्वाल बाल थे
जाहि जन पर ममता अति छोहू ।
जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू ।
कलि केवल मल मूल मलीना
पाप पयोनिधि जन मन मीना
अन्त्यानुप्रास अलंकार
जहां किसी पंक्ति के अन्त में एक जैसे स्वर या व्यंजन आते हों तो वहाँ अन्त्यानुप्रास अलंकार होता है । ( अर्थात् तुकान्त कविता के अंतिम वर्ण )
उदाहरण
धीरज धरम मित्र अरु नारी
आपति काल परखिय चारी
पागल सी प्रभु के साथ सभा चिल्लाई
सौ बार धन्य वह एक लाल की माई
चारु चन्द्र की चंचल किरणें , खेल रही थी जल थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी , अवनी और अम्बर तल में
लाटानुप्रास अलंकार
जब किसी वाक्य या वाक्यांश की दो या दो से अधिक बार आवृत्ति हो परन्तु अन्वय प्रत्येक बार भिन्न हो ( शब्दों का क्रम ) अथवा एक ही शब्द दो बार आया हो किन्तु उस शब्द के अर्थ में कोई अन्तर नहीं पड़ता हो तो वहाँ लाटानुप्रास अलंकार होता है ।
उदाहरण
पूत सपूत तो क्यों धन संचै ?
पूत कपूत तो क्यों धन संचै ?
हे उत्तरा के घन रहो तुम उत्तरा के पास ही ।
मिला तेज से तेज , तेज की वह सच्ची अधिकारी थी
यमक अलंकार
जहाँ एक ही शब्द की आवृत्ति हो , प्रत्येक बार अर्थ भिन्न हो , तो वहाँ यमक अलंकार होता है।
उदाहरण
कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय ।
वा खाये बौराय जग , या पाये बौराय ।।
कनक शब्द - धतूरा , स्वर्ण
सारंग ले सारंग चली , सारंग पूगो आय
सारंग ले सारंग धरयो सारंग सारंग माय
सारंग शब्द के अर्थ – घटा , सुन्दरी ' वर्षा ( मेघ ) , वस्त्र ' घडा ' सुन्दरी ' सरोवर ।
तीन बेर खाती थी, वे तीन बेर खाती है
बेर- बार , फल
श्लेष अलंकार
श्लेष शब्द का अर्थ है- चिपकना । जहाँ एक शब्द से प्रसंगवश अनेक अर्थ निकलते हो अर्थात् प्रसंगानुसार अनेक अर्थ चिपके हुए हों उसे श्लेष अलंकार कहते ।
उदाहरण
रहिमन पानी राखिये , बिन पानी सब सून
पानी गये न ऊबरे , मोती , मानस चून
पानी शब्द के तीन अर्थ हैं 1. मोती की चमक , 2. मानस ( मनुष्य ) की इज्जत , 3. चून ( आटा )
नल की अरु नल - नीर की गति एकै करि जोय ।
जेतो नीचो वै चले , ते तो ऊँचो होय ।।
नीचो शब्द के दो अर्थ है- गहरा , नम्र विनय ।
ऊँचो शब्द के दो अर्थ है- ऊपर उठा हुआ , उन्नत , बड़ा ।
श्लेष के भेद
अभंग श्लेष
सभंग श्लेष
अभंग श्लेष
जहाँ शब्द को तोड़े बिना ही उसके कई अर्थ निकलते हो , वहाँ अभंग श्लेष होता है ।
इन्द्रनील मणि महा चषक था
सोम रहित उलटा लटका
सोम - चन्द्रमा , सोमरस ।
सभंग श्लेष
शब्द को तोड़कर अर्थ स्पष्ट किया जाता हो वहाँ सभंग श्लेष अलंकार होता है ।
चिर जीवो जोरि , जुरै क्यों न सनेह गम्भीर
को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के बीर
वृषभानुजा - वृषभानु + जा = वृषभानु से उत्पन्न होने वाली = राधा
वृषभ + अनुजा = बैल की बहिन = गाय
हलधर - हल को धारण करने वाले = बलराम
हल को धारण कर खींचने वाले = बैल
वक्रोक्ति
जब किसी व्यकित के एक अर्थ में कहे गए शब्द या वाक्य का कोई दूसरा व्यक्ति जान बुझ कर दूसरा अर्थ कल्पित करे वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है ।
वक्रोक्ति के भेद
श्लेष वक्रोक्ति
काकु वक्रोक्ति
श्लेष वक्रोक्ति
श्लेष वक्रोक्ति में श्रोता दो अर्थ वाले ( श्लिष्ट ) शब्द का दूसरा अर्थ ग्रहण कर लेता है ।
उदाहरण
राधा - को तुम हो ?
कृष्ण - धनश्याम इत है
राधा - तो बरसो कित जाय ?
कृष्ण घनश्याम अपना नाम बताते हैं । जबकि राधा काले बादल अर्थ ग्रहण करती है ।
को तुम ? हरि इत राधे
कहाँ वानर को पुर काम ?
राधिका कृष्ण से पूछती है कौन हो तुम ? हरि - भगवान कृष्ण उत्तर है । राधा - बन्दर अर्थ ग्रहण करती है । अर्थात् वानर का यहाँ नगर में क्या काम है ? जगल में जाओ
काकु वक्रोक्ति
अलंकार जब वक्ता शब्द का उच्चारण इस प्रकार करे कि सुनने वाला उसका कोई दूसरा ही अर्थ ग्रहण कर ले ।
उदाहरण
मैं सुकमारि नाथ बन जोगू
तुमहिं उचित तप मो कहँ भोगू
राम सीता को सुकुमारी बताकर उसे वनवास में अपने साथ ले जाने से मना करते हैं । सीता उक्त कथन में राम के तर्क को न मानकर इस ढंग से उत्तर देती है कि उसके कथन का अर्थ ही बदल जाता है । उक्त कथन का आशय है राम ही वन जाने योग्य नहीं है मैं भी हूँ । राम के वन में तपस्या करने पर मेरे लिए राजभवन में उपभोग करना उचित नहीं है ।
एक कहयो वर देत भव - भाव चाहिये चित्त
सुन कह कोऊ बोले - भव हि भाव चाहिए मित्त
कथन का अभिप्राय है कि - शिवजी वरदान देते हैं किन्तु चित्त में भक्ति का भाव होना चाहिए । लेकिन सुनने वाले ने कहने वाले के शब्दों को काकु से दोहरा कर कहा कि हे मित्र ! क्या भोले शिवजी को भक्तिभाव चाहिए ? अर्थात् वहीं वे तो बहुत भोले है ।
पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार
जब शब्द की आवृत्ति हो और प्रत्येक बार अर्थ वही हो और अन्वय भी एक सा हो तो वहाँ पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार होता है ।
उदाहरण
मधुर मधुर मेरे दीपक जल ।
तप रे मधुर मधुर मन , तप रे विधुर - विधुर मन ।
बन बन उपवन , छाया उन्मन उन्मन गुंजन ।
पुनरूक्तावदामास अलंकार
जब अर्थ की पुनरूक्ति दिखाई पड़े पर वास्तव में पुनरूक्ति न हो , वहाँ पुनरूक्तावदाभास अलंकार होता है ।
उदाहरण
जन को कनक सुवर्ण बावला कर देता है
कनक = स्वर्ण
सुवर्ण = सुन्दर वर्ण वाला
प्रात ही तो कहलाई मात पयोधन बने उरोज उदार
पयोधर = दूध वाले स्तन
उरोज = दुध रहित उन्नत स्तन
वीप्सा अलंकार
जहाँ हर्ष , शोक , आदर , घृणा , विस्मय आदि भावों को और अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने के लिए किसी शब्द की बार - बार आवृत्ति की जाती है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण
हा ! हा ! इन्हें रोकन को टोकन लगावौ तुम ,
विसद विवेक ज्ञान गौरव दुलारे हैं ।
यहाँ हा शब्द की आवृत्ति गोपियों की विरह अवस्था की व्यंजना हुई है ।
सुखी रहें , सब सुखी रहें , बस छोड़ो मुझ अपराधी को ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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