कबीर
Kabir
वि.सं. 1455(1398 ई.)-वि.सं. 1575(1494 ई.)
जीवन – परिचय
कबीर मध्यकाल के ऐसे भक्त कवियों में से थे , जिनके जन्म और मृत्यु की तिथियाँ अभी तक पूर्ण निश्चित नहीं हैं । कबीर के जन्म - मृत्यु की निश्चित तिथियाँ नहीं है , बल्कि माता , पिता , बाल , बच्चे , शिक्षा , गुरू आदि की खोजबीन भी उनकी ख्याति के बाद की गई है । इसलिए कबीर के जीवन के बारे में संभावित रूप में ही कुछ कहा जा सकता है । प्रामाणिक रूप में कहने का दावा बिल्कुल नहीं किया जा सकता । कबीर पंथी ग्रंथों को ही कबीर की सर्व स्वीकृत जन्मतिथि का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज माना जाता है ।
- चौदह सौ पचपन साल गये , चन्द्रवार इक ठाट तये ।
- जेठ सुदी वरसायत को पूरनमासी प्रकट भये ।
इस दोहे में चौदह सौ पचपन ' चन्द्रवार ' जेठसुदी वरसायत और ' प्रकट ' को लेकर हिन्दी विद्वानों में बड़े मतभेद हैं । सबसे बड़ी बात इस दोहे के बारे में यह है कि यह स्वयं कबीर का लिखा हुआ नहीं है । दूसरी बात कबीर के वास्तविक माता - पिता का पता नहीं है , इसलिए उनका लिखा होने का प्रश्न ही नहीं है । कुल मिलाकर यह एक कबीर पंथी का कथन है , जो उनका समकालीन भी नहीं है । उनकी कबीर के जन्म के प्रति अवतारवादी आस्था ' प्रकट ' शब्द से बिल्कुल साफ है । कबीर के जन्म की अन्य तिथियाँ भी हैं , पर वे भी संदिग्ध है । कबीर की मृत्यु की तिथियाँ जन्म की तिथियों से भी ज्यादा विवादास्पद हैं , लेकिन इनमें जो सबसे अधिक ज्यादा कबीर पंथ में प्रचलित और विद्वानों द्वारा स्वीकृत तिथि है वह यह है
- संवत पन्द्रह सौ पछत्तरा किया मगहर को गौन ।
- माघसुदी एकादशी , रल्यों पवन में पवन ।
' संवत पन्द्रह सौ पचहत्तर ' , के अलावा उनकी मृत्यु तिथि के रूप में पन्द्रह सौ उनहत्तर ' ' पन्द्रह सौ उनचास ' ' पन्द्रह सौ पाँच ' है । इनमें से कोई प्रमाणित नहीं , केवल संभावित हैं । कबीर ने अपने पूर्ववर्ती भक्तों में नामदेव का नाम बड़े आदर से लिया है और उनकी कविता में ' मुगल ' शब्द का उल्लेख नहीं है । नामदेव का समय और भारत में बाबर का आक्रमण दोनों की तिथियाँ निश्चित हैं । अत : कबीर का जीवन चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच ही बीता होगा । कबीर के जन्म स्थान को लेकर भी विवाद है । इन्हें ज्यादातर लोग काशी से जोडते हैं , कई विद्वान मगहर से । कुछ विद्वान उन्हें मगध ( डॉ सुभद्रा झा ) , आजमगढ़ के ' बेलहरा ( डॉ . चन्द्रबली पाण्डेय ) से जोड़ते हैं । इस विषय में केवल इतना कहा जा सकता है कि कबीर ने काशी और मगहर दोनों का नाम लिया है । इसलिए उनका सम्बन्ध दोनों से अवश्य था , पर जन्मस्थान इनमें से कौन है , यह संदेह से परे नहीं है ।
जनश्रुतियाँ कबीर की वास्तविक माँ रामानंद से आशीर्वाद प्राप्त एक विधवा ब्राहमणी को कहती है और पालक माता - पिता नीमा और नीरू को । कबीर ने अपने माता - पिता के बारे में कुछ नहीं कहा है , इसलिए जनश्रुतियों की बातें पूर्णतः सत्य नहीं मानी जा सकती । इसी प्रकार कबीर की पत्नी का नाम कोई ' लोई तो कोई रमजनिया और रसधनिया कहता है । उनके पुत्र-पुत्री के रूप में कमाल - कमाली का नाम लिया जाता है । पर कबीर ने अपने माता - पिता , पत्नी , बच्चों के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा है , इसलिए इस दिशा में सोचना सिर्फ अनुमान लगाना है । ' कबीर ' का नाम मुसलमानी है और उनकी भाषा में अरबी - फारसी के अनेक शब्द हैं । इसलिए इतना कहा जा सकता है कि वे मुसलमानी परिवेश की तरह योगियों वैष्णवों के परिवेश से भलीभांति परिचित थे । उनकी शिक्षा के बारे में जितनी अनिश्चितता है , उससे उल्टा जाति ( पेशे ) के बारे में उतनी ही निश्चितता । कबीर मौखिक परम्परा के भक्त कवि हैं । इसलिए उन्होंने अपने मुंह से साखियों , पद , रमैनी का गायन किया , स्वयं अपने हाथों से लिखा नहीं । उनकी जाति सामान्यत : जुलाहा मानी जाती है । कबीर ने अपने कई पदों में स्वयं को जुलाहा और कोरी कहा है । पेशा उनका बुनना माना जाता है , लेकिन जाति से वे हिन्दू जुलाहा थे या मुस्लिम , इसको लेकर विद्वानों में मतभेद हैं । डॉ . पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल उन्हें हिन्दू कोरी से मुस्लिम धर्मान्तरित जुलाहा कहते हैं और पं . हजारी प्रसाद द्विवेदी नाथ मतावलम्बी पथभ्रष्टयोगियों से नवधर्मी जुलाहा मानते हैं । कबीर के गुरु कौन थे , उन्होंने किससे दीक्षा ली थी , इसके बारे में कम विवाद नहीं है । इसके बारे में चार प्रकार की जनश्रुतियाँ है और हिन्दी के विद्वान इनमें से किसी एक भी जनश्रुति पर सहमत नहीं है । जनश्रुतियों के आधार पर कबीर के गुरु के सिलसिले में रामानंद , शेख तकी और पीताम्बर पीर के नाम लिये जाते हैं । हिन्दू परम्परा की जनश्रुतियों , जिसमें कबीर पंथ भी शामिल है , रामानंद को कबीर का गुरु मानती हैं । सबसे पहले हरिराम व्यास , जो कबीर के थोड़े ही परवर्ती थे , रामानंद को कबीर का गुरु सिद्ध करते हैं
- साँचे साधु जु रामानंद ।
- जिन हरि जी सो हित करिजान्यों और जानि दुख दंद ।
- जा को सेवक कबीर धीर अति सुमति सुरसरानंद ।
- तब रैदास उपासिका हरि की , सूरसू परमानंद ।
- इतने प्रथम तिलोचन नामा , दुख मोचन सुखकंद ।
इसके साथ कबीर के नाम कई साखियाँ और पद प्रचलित हैं जिसके आधार पर रामानंद को कबीर का गुरु सिद्ध किया जाता है । कबीर बीजक , जो कबीर की सबसे प्रामाणिक प्राचीन रचना मानी जाती है उसमें एक पद है जिसमें रामानंद के नाम सीधे राम लिख गया है –
रामानंद राम रस माते ।
कहै कबीर हम कहि थाके ।
इसी प्रकार कबीर और रामानंद के शिष्य - गुरु सम्बन्ध के बारे में यह साखी बहुत प्रचलित है
भक्ति द्रविड़ उपजी लाये रामानंद ।
प्रकट करी कबीर ने सप्तदीप नव खंड ।
एक प्रमाण यह भी पेश किया जाता है कि ' काशी में हम प्रकट भये रामानंद चेताये । ' लेकिन हरिराम व्यास के कथन के सिवा कबीर के जिन पद सखियों में रामानंद का नाम आता है । उसमें कबीर ने कहीं नहीं कहा है कि रामानंद मेरे गुरु है । इन्हीं जनश्रुतियों का अनुकरण करते हुए बाबू श्यामसुन्दर दास , आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आदि रामानन्द को कबीर का गुरु मानते हैं । रामानंद को कबीर का गुरु मानने का एक महत्वपूर्ण आधार उनके द्वारा बार - बार राम - नाम के उल्लेख को बताया जाता है । दूसरा कारण उनके उपर वैष्णव भक्ति के प्रभाव को माना जाता है , लेकिन अन्य ठोस तथ्य यह भी है कि रामानंद और कबीर के विचारों में इतना भेद है जैसे कबीर राम में विश्वास करते हुए अवतार , मूर्तिपूजा वर्ण व्यवस्था , छुआछूत को नहीं मानते जिससे उन्हें रामानंद का शिष्य मानना संदेहास्पद है । कबीर काव्य में ऐसे अन्तरसाक्ष्य मिलते हैं जिसमें वे राम को ही अपना सतगुरु कहते हैं । जैसे
तुम सत गुरु हौं नौतम चेला । , कबीर पगुरा अलह राम का सोई गुरू पीर हमारा आदि ।
मुस्लिम परम्परा के लोग कबीर के गुरु शेखतकी को मानते हैं । बीजक की दो रमैनियों में शेखतकी का नामोल्लेख भी है , पर यह नामोल्लेख रमैनी में भी है और जिस रूप में हैं उससे शेखतकी कबीर के गुरू नहीं हो सकते । उदाहरण देखिये –
' नाना नाच नचाय के , नाचे नट के भेख ।
घर - घर अविनासी बसे ,सुनहु तकी तुम सेख । '
सुनहु तकी तुम सेख सम्बोधन किसी हालत में गुरु के लिए नहीं हो सकता | गुरु ग्रंथ साहिब के एक पद में पीताम्बर पीर का नामोल्लेख है
हज हमारो गोमती तीर ।
जहाँ बसहि ' पीताम्बर पीर
बाहु बाहु किया खुबु गावत है ।
हरि का नाम मेरे मन भावत है ।
इस पद से पीताम्बर पीर एक वैष्णव भक्त लगते हैं,कबीर के गुरु नहीं । कबीर ने सतगुरू की महिमा का बड़ा बखान किया है , पर उनका सतगुरू कोई व्यक्ति या आतमराम है , इस संदर्भ में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । डॉ . धर्मवीर अनेक तथ्यगत प्रमाणों के आधार पर रामानंद और कबीर के बीच गुरुशिष्य सम्बन्ध वाली जनश्रुति का निषेध करते हैं । शेखतकी और पीताम्बर पीर वाले तर्क रामानंद तर्क से बहुत ज्यादा कमजोर हैं ।
कृतियाँ
जितने विवाद का विषय कबीर का सम्पूर्ण जीवन है उससे कम विवाद का विषय उनका रचनाकर्म नहीं है । धर्मदास ने उनकी वाणियों का संग्रह " बीजक " नाम के ग्रंथ मे किया जिसके तीन मुख्य भाग हैं : साखी , सबद (पद ), रमैनी
साखी संस्कृत शब्द साक्षी का विकृत रूप है और धर्मोपदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अधिकांश साखियां दोहों में लिखी गयी हैं पर उसमें सोरठे का भी प्रयोग मिलता है। कबीर की शिक्षाओं और सिद्धांतों का निरूपण अधिकतर साखी में हुआ है।
सबद गेय पद है जिसमें पूरी तरह संगीतात्मकता विद्यमान है। इनमें उपदेशात्मकता के स्थान पर भावावेश की प्रधानता है ; क्योंकि इनमें कबीर के प्रेम और अंतरंग साधना की अभिव्यक्ति हुई है।
रमैनी
रमैनी चौपाई छंद में लिखी गयी है इनमें कबीर के रहस्यवादी और दार्शनिक विचारों को प्रकट किया गया है।
इसके अतिरिक्त अब तक हिन्दी के अनेक विद्वानों ने कबीर की प्रामाणिक रचना की खोज के सिलसिले में अनेक प्रयास किये हैं । अनेक प्रयास के फलस्वरूप जो रचनाएं आयी हैं वे निम्नलिखित हैं
- कबीर वचनावली ( सन् 1916 ) सं . अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध
- कबीर ग्रंथावली ( सन् 1928 ) सं . बाबू श्यामसुन्दर दास
- कबीर ग्रंथावली ( सन् 1961 ) सं . डॉ . पारसनाथ तिवारी
- कबीर ग्रंथावली ( सन् 1969 ) सं . डॉ . माता प्रसाद गुप्त
- सन्त कबीर ( सन् 1943 ) सं . डॉ . रामकुमार वर्मा
- कबीर - बानी ( सन् 1965 ) , सं . अली सरदार जाफरी
- कबीर - बीजक ( सन् 1972 ) सं . डॉ . शुकदेव सिंह
- कबीर वांग्मय खण्ड । रमैनी ( सन् 1972 ) पद यह खण्ड -2 सबद ( सन् 1981 ) सं . डॉ . जयदेवसिंह डा . वासुदेव सिंह
- खण्ड -3 साखी ( सन् 1976 ) कबीर समग्र ( सन् 1991 ) , सं . डॉ . युगेश्वर
- कबीरः साखी और सबद ( सन् 2007 ) सं . डॉ . पुरुषोत्तम अग्रवाल
भाषा शैली
कबीर - काव्य की मूल भाषा क्या थी , उसके बारे में निर्णायक रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता है । लेकिन कबीर - वाणी के अब तक जो पाठ मिले हैं और उनके आधार पर हिन्दी विद्वानों ने कबीर के जो संशोधित और प्रामाणिक पाठ तैयार किये है वे तीन तरह के हैं । श्याम सुंदरदास , पारसनाथ तिवारी और माता प्रसाद गुप्त द्वारा तैयार की गयी ग्रंथावली के आधार राजस्थानी प्रभावित पाठ हैं । गुरु ग्रंथ साहिब और रामकुमार वर्मा को आधार बनाकर किया गया सम्पादन , पूर्वी भाषा से प्रभावित हैं | कबीर की भाषा काशी व मगहर के बीच बोली जाने वाली भाषा रही होगी । कबीर घुमक्कड़ थे और सत्संगी भी । वे सूफियों और योगियों के सम्पर्क में थे , इसलिए उनकी भाषा के खडापन का रंग जरूर उनकी भाषा में रहा होगा | पाठों की तरह - तरह की भाषा ने बाबू श्याम सुंदर दास को ऐसा चक्कर में डाला कि वे कबीर की भाषा को ' टेढ़ी खीर ' कह बैठे और पंडित रामचन्द्र शुक्ल ' पंचमेल खिचड़ी ' कबीर का पाठ अलग - अलग भाषा क्षेत्रों के लोगों ने तैयार किया , इसलिए उनकी भाषा के मूल रूप की समस्या उठ खड़ी हुई । दूसरी बात , कबीर की भाषा देशज है , उसके ठाठ में टेढ़ापन है । वह तुलसी की अवधी से अपनी प्रकृति में अलग भी है , संस्कृत फारसी के तत्सम् का आग्रह कबीर में जायसी की तरह कम से कम है । वे संस्कृत को ' संसकीरत ' , ब्राह्मण को बाम्हन , शूद्र को सूद खुदा को खुदा कहते हैं । वह निखालस है और उसमें अपभ्रंश कवियों की कृत्रिमता भी नहीं है । भाषा पर कबीर के जबरदस्त अधिकार की बात पं . हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्वीकारी है | भाषा पर अधिकार का प्रमाण यह है कि जैसा प्रसंग होता है वे भाषा को वैसा ही ढाल लेते हैं । योगी के सामने योगी वाली , पंडित के सामने पंडित जैसी , मुल्ला के सामने मुल्ला जैसी , लोगों के सामने लोगों जैसी साधु के सामने साधु जैसी और यदि भक्त में प्रेम की बात हो भाषा पिघल कर बहने लगती है । इस प्रकार उनकी भाषा के अनेक स्तर मिलते हैं और शैलियां भी अनेक हैं । उनकी एक शैली तो उलट बांसी है । जैसे –
ठाढ़ां सिंह चरावै गाई ,
चेला के गुरु लागा पाई पानी में अगिनिजरै ,
अंधरें को सूझे आदि इस शैली का उपयोग पंडितों और ज्ञानियों के खिलाफ करते हैं । उनकी एक शैली आत्मकथात्मक है जिसका उपयोग वे अपना अनुभव व्यक्त करने के लिए करते हैं जैसे- ' माधो ऐसा मैं अपराधी ' या ' वाल्हा आव हमारे गेह ' , ' हरि जननी में बालिक तेरा ' कबीर के कहने की एक शैली वक्ता और श्रोता की है । सबसे अधिक विविधता इसी में है । इनमें से एक अनौपचारिक बातचीत की शैली है यानी बोलचाल की । जैसे ' हेरत हेरत हे सखी ' मेरावीर जुहारिया तू जिनि जाले मोहि , हो तोहि पूछो हे सखी , ' सती पुकारै सालि चढ़ि सुन रे मीत सुजान ' आदि । उनकी एक शैली का जो रूप सबसे अधिक लोकप्रिय है - वह व्यंग्यात्मक है - पंडिया कौन कुमति तोहि लागी , ' " मियां तो हि बोलना नाहि आवौं , ' जो पै करती वरण विचारै , ' पंडित बाद बदन्तें झूठा , आदि अनेक उदाहरण ढूँढे जा सकते हैं । इनमें उनकी तर्क शक्ति सबसे प्रभावशाली है । उनकी कहने की शैली कोई भी हो , प्रभावित किये बिना नहीं रहती है । कबीर की भाषा शैली की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने लोगों के बीच प्रचलित अनेक कहावतों और मुहावरों को हिन्दी का बना दिया ।
छन्द-अलंकार
कबीर की साखियों का आधार दोहा , पदों का आधार लोकगीत और रमैनी का आधार चौपाई का छंद है । डी . पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने कबीर की रमैनी को हिन्दी चौपाई छंद का प्रथम प्रयोक्ता माना है । इसके अलावा बीजक में कहरवा , बसन्त , विरहुली या बेलि आदि धुनों में रची जो रचनाएं कबीर की कही जाती हैं । वे सभी लोकगीतों पर आधारित हैं ।
कबीर के यहां अलंकार का सौन्दर्य अकृत्रिम , सहज है । वे सादृश्यमूलक अलंकार के बहुत प्रेमी हैं । उपमा , उत्प्रेक्षा , अन्योक्ति , विरोधाभास , वक्रोक्ति , दृष्टान्त आदि भाव की वक्रता , आवेग से अनायास खिंचे चले आते हैं । पढ़े - लिखे कवियों में जो अलंकार के प्रति प्रेम , मोह से लेकर प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है वह कबीर में नहीं है । अपनी बात से स्पष्टीकरण के क्रम में उन्होंने अलंकारों का सहज प्रयोग किया है । कबीर के अलंकारों का आधार लोकानुभव और लोक व्यवहार है ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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