प्लेटो - काव्य सिद्धान्त

 प्लेटो - काव्य सिद्धान्त
Plato - Poetry Theory

प्लेटो - काव्य सिद्धान्त

जीवन परिचय

प्लेटो का जन्म एथेंस के समीपवर्ती ईजिना नामक द्वीप में 428/427 या 424/423 ईसा पूर्व हुआ । इनका परिवार सामन्त वर्ग से थे । इनके पिता 'अरिस्टोन' तथा माता 'पेरिक्टोन' इतिहास प्रसिद्ध कुलीन नागरिक थे। 404 ई. पू. में प्लेटो सुकरात का शिष्य बने तथा सुकरात के जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके शिष्य बने रहे । सुकरात की मृत्यु के बाद प्रजातंत्र के प्रति प्लेटो को घृणा हो गई। उन्होंने मेगोरा, मिस्र, साएरीन, इटली और सिसली आदि देशों की यात्रा की तथा अन्त में एथेन्स लौट कर अकादमी की स्थापना की। प्लेटो इस अकादमी के अन्त तक प्रधान आचार्य बने रहे ओर सुव्यवस्थित धर्म की स्थापना की । पाश्चात्य जगत में सर्वप्रथम सुव्यवस्थित धर्म को जन्म देने वाले प्लेटो ही है। प्लेटो ने अपने पूर्ववर्ती सभी दार्शनिकों के विचार का अध्ययन कर सभी में से उत्तम विचारों का पर्याप्त संचय किया, जैसे - 'माइलेशियन का द्रव्य', 'पाइथागोरस का स्वरूप', 'हेरेक्लाइटस का परिणाम', 'पार्मेनाइडीज का परम सत्य', 'जेनो का द्वन्द्वात्मक तर्क' तथा 'सुकरात के प्रत्ययवाद' आदि उनके दर्शन के प्रमुख स्रोत थे। प्लेटो की मृत्यु लगभग 80 वर्ष की आयु एथेंस में 348/347 ईसा पूर्व में हुई ।

प्लेटो का काव्य सिद्धान्त

पाश्चात्य आलोचना के जनक प्लेटो मूलतः आलोचक नहीं , अपितु दार्शनिक थे । उनका उद्देश्य आलोचनात्मक सिद्धान्तों का निरूपण नहीं , अपितु अपने गुरु की दार्शनिक मान्यताओं का उपस्थापन करना था । उनकी समस्त मान्यताएं उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ ' रिपब्लिक ' ( Republic ) में देखी जा सकती हैं । प्‍लेटो के समय में कवि को समाज में आदरणीय स्‍थान प्राप्‍त था। उनके समय में कवि को उपदेशक, मार्गदर्शक तथा संस्कृति का रक्षक माना जाता था। प्‍लेटो के शिष्‍य का नाम अरस्तू था। प्‍लेटो का जीवनकाल 428 ई.पू. से 347 ई.पू. माना जाता है। उनका मत था कि "कविता जगत की अनुकृति है, जगत स्वयं अनुकृति है; अतः कविता सत्य से दोगुनी दूर है। वह भावों को उद्वेलित कर व्यक्ति को कुमार्गगामी बनाती है। अत: कविता अनुपयोगी है एवं कवि का महत्त्व एक मोची से भी कम है।"

प्लेटो दार्शनिक होने के कारण वे सत्य के समर्थक थे । कवि और काव्य के प्रशंसक होते हुए भी , काव्य सत्य की कसौटी पर खरा नहीं उत्तरता , उसे वह हेय और निन्दनीय समझते थे । होमर के प्रति उनकी बहुत श्रद्धा थी , किंतु उनकी दृष्टि में होमर का काव्य सत्य से दूर काल्पनिक था । इसलिए उन्होंने यह कहकर भी निन्दा की कि सत्य के मूल पर किसी का सम्मान करना अनुचित है 

" It would be wrong to honour a man at the expense of truth . " – ‘Republic’

प्लेटो संस्कार और स्वभाव से कवि तथा शिक्षा और परिस्थिति से दार्शनिक थे । काव्य और दर्शन के सापेक्ष महत्त्व का उनमें अंतर्द्वंद्व परिलक्षित होता है । जीवन के परवर्ती काल में उन पर दर्शन का प्रभाव बढ़ता गया और काव्य का आकर्षण होता गया । इसी से उन्होंने स्पष्ट कहा कि समाज पर काव्य का प्रभाव घातक होता है ।

काव्य सत्य

प्लेटो ने काव्य को अग्राह्य माना है । इसके दो आधार है- दर्शन और प्रयोजन । प्लेटो आदर्शवादी दार्शनिक थे । आदर्शवाद या प्रत्ययवाद के अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार ही परम सत्य है । यह अखण्ड है । ईश्वर उसका स्रष्टा है । यह गोचर जगत् उस परम सत्य का अनुकरण है , क्योंकि कलाकार किसी वस्तु को ही अपनी कला के द्वारा चित्रित करता है । इस क्रम में कला तीसरे स्थान पर आती है । 

  • प्रथम स्थान प्रत्यय या परम सत्य का है ,
  • दूसरा स्थान उसके प्रतिबिम्ब वस्तु जगत का है और 
  • तृतीय स्थान वस्तु जगत् या गोचर जगत् के प्रतिबिम्ब कला जगत का है । 

अतः कला सत्य से तिगुनी दूर है और अनुकरण का अनुकरण होने का कारण मिथ्या है । 

अनुकृति सिद्धान्त

इस तथ्य को समझाने के लिए प्लेटो ने एक उदाहरण दिया है । संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य रूप है , जो ईश्वर निर्मित हुआ करता है । यह गोचर जगत् उस परम सत्य का अनुकरण है । जैसे बढई पलंग बनाता है । बढ़ई द्वारा निर्मित पलंग की धारणा , कल्पना या योजना उसके मस्तिष्क में थी , जिसका निर्माण ईश्वर ने किया है । उसी के आधार पर बढ़ई पलंग का निर्माण करता है । तदुपरान्त बढई द्वारा निर्मित पलंग का चित्र कलाकार अंकित करता है । इस प्रकार तीन पलंग हुए- एक वह जिसका निर्माण ईश्वर करता है और जो हमारे विचार में रहता है , दूसरा वह जिसका निर्माण बढ़ाई करता है और तीसरा यह जिसका निर्माण कलाकार या चित्रकार करता है । इस प्रकार कलाकार रचना यथार्थ से तीसरे स्थान पर है । अत : कला नकल की नकल होने के कारण मिथ्या है । इस प्रकार प्लेटो के अनुसार प्रत्यय जगत् यथार्थ है और ईश्वर उसका सष्टा है । वस्तु जगत् यथार्थ का अनुकरण है , बढ़ई उसका निर्माता है । कला जगत् वस्तु जगत् का अनुकरण है , कलाकार उसका अनुकर्ता है । यहाँ शंका उठना स्वाभाविक है कि बढ़ई के मस्तिष्क में जो पलंग की कल्पना आई है , क्या यह कवि या कलाकार के मस्तिष्क में नहीं आ सकती ? वस्तुतः प्लेटो का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि कवि जो कुछ रचता है , उसमें इस जगत की ही नकल होती है । कवि की अपनी प्रतिभा भी जगत की या के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । एक अन्य उदाहरण से यह बात सर्वथा स्पष्ट हो जाएगी- एक व्यक्ति सूर्य की ओर पीठ करके तथा किसी गुफा की ओर मुंह करके बैठा है । उसकी पीठ के पीछे से गुजरने वाले व्यक्तियों , पशुओं आदि की छाया गुफा में पड़ेगी और गुफा की ओर मुंह करके देखते रहने के कारण केवल उनकी गतिशील छाया को ही वह देख पाएगा । यद्यपि मूल वस्तु उसकी पीठ पीछे के प्राणी हैं , परन्तु उसे उनकी छाया ही मूल वस्तु जान पड़ेगी । इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे छायाचित्र वास्तविक नहीं , वैसे ही चक्षुगत संसार भी वास्तविक नहीं , छायामात्र है । कवि भी इसी छाया का अनुकरण अपने काव्य में करता है । अतः प्लेटो के अनुसार कवि वास्तविकता की नकल करता है , जो वास्तविक जगत् से दुगना दूर है । प्लेटो का कहना है कि होमर के काव्यों में भोग - विलास की कामना से पूर्ण उत्सवों का चित्रण और देवताओं का लोभ प्रकट होता है । इस प्रकार के वर्णन शुद्धता , सात्त्विकता और संयम के बाधक हैं , अतः त्याज्य हैं । 

इस प्रकार प्लेटो की दृष्टि में सत्य वह है जो समाज और व्यक्ति के नैतिक तथा आध्यात्मिक जीवन को शक्ति प्रदान करे जिसमें यह सामर्थ्य नहीं है , वह असत्य है । 

काव्य – प्रेरणा

प्लेटो के अनुसार काव्य - सृजन एक प्रकार के ईश्वरीय उन्माद का प्रतिफल है । काव्य में कवि वास्तविक तथ्यों और आदर्शों से हटकर अनैतिकता उदघोष करने लगता है । वह देवी देवताओं के चरित्र चित्रण में भी अनेतिकता को प्रश्रय देने लगता है । अतः कवि काव्य प्रेरणा को भले ही दैवी समझे , परन्तु वह दैवी नहीं होती ; उसके मानस का उन्माद ही उसकी प्रेरणा का स्रोत होता है । वह जिस काव्य का सृजन करता है , वह उसके उन्मादपूर्ण भावावेश का परिणाम होता है । वस्तुतः प्लेटों की यह मान्यता सर्वथा असत्य नहीं कही जा सकती । कालिदास द्वारा शिव - पार्वती का श्रृंगार वर्णन किसी भी प्रकार औचित्य की परिधि में नहीं रखा जा सकता । वस्तुतः कवि के उन्माद , ज्ञानलोप आदि को लाक्षणिक रूप में ही ग्रहण करना चाहिए क्योंकि सृजन के क्षणों में कवि का बाह्य जगत् से सम्पर्क टूटा सा रहता है । वह इस प्रकार से आत्मलीन हो जाता है । प्लेटो का उन्माद कवि की इसी अवस्था को उजागर करता है । काव्य का अनैतिक स्वरूप प्लेटो की मान्यता है कि सदाचार और नेतिकता के विषय में कविता को अन्तिम प्रमाण नहीं माना जा सकता और न उसे ज्ञान और सत्य का प्रमुख माध्यम ही कहा जा सकता है । क्योंकि कवि अधिष्ठातु देवी से प्रेरणा प्राप्तकर संज्ञा से शून्य अवस्था में ही काव्य सृजन में प्रवत्त होता है । अतः काव्य में नैतिकता की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता , अर्थात् काव्य का स्वभाव अनैतिक होता है । प्लेटो को होमर के महाकाव्य में पिण्डार ( Pindar ) के सम्बोध गीतों में , सोफोक्लीज की त्रासदियों में , सदाचारियों को पीड़ा और वेदनाग्रस्त देख बड़ा भारी मनस्ताप हुआ । उसके अनुसार 

They give us to understand that many evil livers are happy and mary righteous man happy and that wrong dining , if it be undetected , is profitable , while honest dealing is beneficial to doing . , cone's neighbeear , but dumaging to one's self . " ( रिपब्लिक ) 

अर्थात् वे समझने के लिए कह देते हैं कि " अनेक दुष्ट सौभाग्यशाली और सुखी है तथा बहुत से सदाचारी अभागे और दुःखी हैं , और अनैतिक कार्य , यदि उनका पता न लग सके तो लाभकारी है , जबकि निष्कपट व्यवहार स्वयं के लिए तो क्षतिकारी है , किन्तु पड़ोसी के लिए हितकारी है । " इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि प्लेटो ने साहित्य की भर्त्सना की और काव्य तथा कवि को आदर्श राज्य के लिए घातक माना ।

वस्तुतः प्लेटो एक नीतिशास्त्री थे । उन्होंने कविता के भावपक्ष पर कठोर प्रहार किया । तत्कालीन कवियों की कृतियों में प्रस्तुत भाव - प्रवणता और अनैतिकता ने उनकी इस कठोरता को और भी दृढ़ कर दिया । इसी से उन्होंने कवियों पर कठोर प्रहार किया और उन्हें राज्य से निष्कासित करने की सलाह दी । 

काव्य का उद्देश्य

प्लेटो के अनुसार काव्य का उद्देश्य आनन्द प्रदान करना ही नहीं अपितु मानव - चित्त को प्रभावित करना और उसका निर्माण करना भी है । साथ ही आत्मा की प्रच्छन्न शक्तियों को प्रकाश में लाना तथा मनुष्य को अपना जीवन श्रेष्ठतर बनाने और जगत् का पुनर्निर्माण करने योग्य बनाना है । वास्तव में प्लेटो की काव्य कला कठोर , संयम और आत्म - नियंत्रण पर आधारित है , जिसकी कसौटी है सत्य । यह कविता मानव को शिक्षा नहीं देती , समाज - कल्याण और सदाचार की वृद्धि नहीं करती है तो वह ऐसे काव्य की भर्त्सना करते हैं । कविता यदि अच्छी शिक्षा देती है तो मानव - चरित्र के उत्थान और राष्ट्र को उन्नयन में सहायक होगी । यदि वह अध्ययन पर भावातिरेक ही करती है तो उससे मनुष्य मानसिकरूप से कमजोर होंगे और राष्ट्र दुर्बल होगा । अतः कवि तभी अच्छा माना जा सकता है जब उससे समाज को शिक्षा मिलती हो । सारांशतः काव्य का प्रयोजन सत्य का उद्घाटन , मानव कल्याण तथा राष्ट्र - उन्नयन ही माना जा सकता है । प्लेटो रिपब्लिक में लिखते हैं  

" We must look for artists who are able , out of the goodness of their own nature to trace the nature of beauty and perfection , so that our young man , like persons who live in a healthy place . May he perpetually Influenced for gourd , " 

अर्थात् हमें उन्हीं कलाकारों को खोजना चाहिए , जोकि अपनी प्रकृति की अच्छाई अथवा उत्तमता में से ही सौन्दर्य और आदर्श को ढूँढ सके ताकि हमारे नवयुवक , जो कि स्वस्थ स्थान पर रहनेवाले व्यक्तियों के समान हैं . अनवरत रूप से अच्छाई से प्रभावित हो सके । 

काव्य का वर्गीकरण

प्लेटो ने काव्य के तीन मुख्य भेद किए है 

  • विवरणात्मक - जिसमें कलाकार स्वर्ग कोई लम्बा गीत लिखकर अपनी ही कथा कहता है , जैसे - प्रगीत । 
  • अनुकरणात्मक - जिसमें ट्रेजेडी और कॉमेडी का अन्तर्भाव होता है , जैसे नाटक । 
  • मिश्रित - जिसमें कवि कुछ अंश तक अपने माध्यम से और कुछ अंश तक पात्रों के माध्यम से अपनी बात कहता है , जैसे महाकाव्य । 

किन्तु अनुकरणात्मक होने के कारण प्लेटो ने महाकाव्य और नाटक को आदर्श राज्य के लिए अनुपयुक्त माना है । फिर भी जो नियमन काव्य के लिए विहित है , वही अन्य कलाओं के लिए भी । अतः जिस ' शिव ' की काव्य से अपेक्षा की जाती है , उसकी अन्य कलाओं से भी अपेक्षा की जानी चाहिए । मूर्तिकला , स्थापत्य कला और अन्य कलाओं में भी किसी प्रकार के दोष , असंयम , निकृष्टता और अभद्रता का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए । 

सारांश 

पाश्चात्य आलोचना में प्लेटो का जितना विशिष्ट स्थान है , उतना ही प्रभाव भी । वैसे उनका प्रकृत क्षेत्र दर्शन तथा उद्देश्य था- ' आदर्श गणराज्य की स्थापना ' । उनकी अभिव्यंजना में काव्य की रोचकता थी । आलोचक न होते हुए भी उनके लेखन में आलोचना के जो संकेत मिलते हैं , वे बड़े महत्वपूर्ण हैं । उन्होंने विधि निषेध , दोनों ही रूपों में परवर्ती आलोचना को प्रभावित एवं निर्देशित किया है । आलोचना के क्षेत्र में प्लेटो की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने साहित्यिक सिद्धान्तों को दार्शनिक रूप दिया । प्लेटो ने कला की अनुकरणमूलकता की उद्भावना की , जिसे परवर्ती आचार्य अरस्तु ने एक सिद्धान्त का रूप दिया तथा जिसकी मान्यता वर्षों तक बनी रही । किन्तु प्लेटो ने कला के संदर्भ में अनुकरण शब्द का प्रयोग अपकर्षी रूप में किया था , जो उचित नहीं है । यह उनकी भ्रांति थी , जिसका मूल कारण है-  सृजनशीलता को नजरअंदाज कर देना । वस्तुतः वे यह भूल जाते हैं कि कलाकार किसी की नकल नहीं करता अपितु स्वयं द्वारा उसका आदर्शीकरण करता है । प्लेटो की सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने मनुष्य को सोचने के लिए तत्पर कर , उसे समीक्षात्मक प्रणाली की ओर उन्मुख किया । उन्होंने कविता के स्तर को ऊंचा उठाकर मानव - जीवन के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ दिया ।

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1 comments:

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16 अगस्त 2023 को 9:48 am बजे

अति सुन्दर और ज्ञानवर्धक धन्यावाद आभार

Congrats bro Dr.Ravi Kumar Sundyal you got PERTAMAX...! hehehehe...
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उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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