छन्द Stanza-1
विश्व की किसी भी भाषा के काव्य का अध्ययन करने से पहले यह आवश्यक है कि हम उसके छन्द विधान से भलीभाँति परिचित हों । ‘छन्द’ शब्द संस्कृत की छद् धातु में असुन प्रत्यय लगाने से बना है । यह अनेकार्थवाची है । इसके अर्थ है- प्रसन्न करना , फुसलाना , बांधना आच्छादित करना कामना या आकांक्षा करना , अक्षर संख्या का परिमाण करना आदि । इन्ही अर्थों के कारण - छन्द का अर्थ प्रसन्न करने वाली वस्तु , आच्छादित , बंधन , अक्षर क्रम विशेष आदि से लिया जाता है ।
महर्षि कात्यायन के अनुसार ‘यदक्षर परिमाण तच्छन्दः’ अर्थात् जिसमें अक्षरों के परिमाण या संख्या में वर्गों की सत्ता निहित होती है , वह छन्द कहलाता है ।
प्रत्येक छन्द में वर्णों की संख्या निर्धारित रहती है । कविता में प्रयुक्त होने वाले वर्ण , मात्रा , यति आदि के संघटन को छन्द कहते हैं । कविता की पंक्ति में मात्रा , वर्ण , यति , चरण , गति , गण , की एक निश्चित व्यवस्था रहती है । इसी का नाम छन्द विधान है ।
छंद शास्त्र के प्रारंभिक ग्रन्थ व रचनाकार
शारव्यापन श्रोत सूत्र के सातवें सूत्र से सत्ताईसवें सूत्र तक वैदिक छन्दों का , ऋग्वेद प्रातिशारव्य में सोलहवें पटल से अठारहवें पटल तक , निदान सूत्रों में , छन्दों का परिचय मिलता है । छन्द ज्ञान के निधि आचार्य पिंगल की परम्परा में ही अग्निपुराण , वृतरत्नाकर आदि ग्रन्थों की रचना हुई । छन्द सूत्रों पर आचार्य हलायुध की वृत्ति मृतसंजीवनी बहुत प्रसिद्ध है । यादव प्रकाश व भास्करराय के नाम भी उल्लेखनीय हैं । पिंगल ने अपने ग्रन्थ में पूर्ववर्ती छन्द शास्त्र रचयिताओं में स्कन्ध ग्रीवी क्रौष्टुके . उरोवृहती यास्कस्य , सतो वृहती ताण्डिनः , सर्वत्र सैतवस्य , उद्घर्षिणी सैतवस्य , सिंहोन्नता काश्यपस्य , अन्यत्र रात माण्डव्याय्याम को उद्धृत किया है । किन्तु उनके ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । वराहमिहिरकृत वृहत्संहिता के पश्चात् पिंगल के पश्चात् - जयदेव छन्दस , जयकीर्तिकृत छन्दोअनुशासन , केदारमद कृत वृत्तरत्नाकर , आचार्य क्षेमेन्द्रकृत सुवृत्त तिलक , आचार्य हेमचन्द्रकृत छन्दोअनुशासन , गंगादासकृत छन्दोमंजरी , कवि शेखर भट्ट शेखरकृत वृत्तमौक्तिक , देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट कृत वृत्तमुक्तावली , दामोदर मिश्र कृत वाणी भूषण , डॉ . भोला शंकर व्यास द्वारा सम्पादित प्राकृत पैंगलम् श्री जगन्नाथदास भानु कृत छन्द प्रभाकर आदि हिन्दी कवियों का छन्द शास्त्र में योगदान उल्लेखनीय हैं ।
हिन्दी के प्रमुख छंद(पिंगल) ग्रन्थ
मतिराम कृत छन्दहार पिंगल , पद्माकर कृत छन्द मंजरी , भानु कृत छन्द प्रभाकर , रामनरेश त्रिपाठी कृत पद्य रचना , रघुवर दयाल कृत पिंगल प्रकाश, परमानन्द कृत पिंगल पीयूष आदि ।
छन्द के घटक
वर्ण
स्वर अथवा स्वरयुक्त व्यंजन वर्ण कहलाते हैं ।
मात्रा
स्वर / वर्ण की निश्चित उच्चारण कालावधि को मात्रा कहा जाता है । गुरु तथा लघु भेद से मात्राओं के दो भेद हैं ।
लघु
हस्व को लघु कहते हैं । हस्व वर्ण की एक मात्रा गिनी जाती है । अ , इ , उ , ऋ , लु , ये पाँच हस्व स्वर हैं । किसी व्यंजन में इनकी मात्रा रहने पर भी वह लघु वर्ण ही गिना जाएगा । मात्रा गणना के समय लघु के लिए ‘।‘ चिह्न प्रयोग में आता है तथा दीर्घ के लिए ' S ' का चिह्न ।
गुरु
एक से अधिक मात्रा वाले वर्ण को गुरु कहा जाता है । आ , ई , ऋ , ए , ऐ , ओ , औ , अं , अः , ये सभी दीर्घ स्वर गुरु कहे जाते हैं ।
“संयुक्ताद्यं दीर्घ सानुस्वारं विसर्गसंमिश्रम् विज्ञेयमक्षरं गुरु पादान्तस्थं विकत्येन”
- संयुक्ताद्य संयुक्त वर्ण के पहले वाला वर्ण गुरु होता है - विद्या ( वि - गुरु )
- दीर्घ .. का , की , के
- सानुस्वार अनुस्वारयुक्त - कंस , वंश , संयम में कं वं सं दीर्घ हैं ।
- विसर्गयुक्त हरिः , भानुः दुःख , निःसृत में रिः , नुः , दुः , निः गुरु हैं ।
- संयुक्त व्यंजन से पूर्व - सत्य , मन्द , वज में स , म . व - गुरु हैं ।
- हलंत् व्यंजन से पूर्व - महत् . राजन् सत् में ह , ज . स गुरु हैं ।
- चरण के अन्त में यदि आवश्यकता हो तो- वही हमारी यह मातृ भूमि ( उपेन्द्रवज्रा ) यहाँ मि छन्द के चरण के अन्त में लघु होने पर भी गुरु माना जाएगा ।
विशेष
- चन्द्र बिन्दु से युक्त होने पर वर्ण की मात्रा में कोई अंतर नहीं पड़ता - हँसी - हैं ( लघु ) हाँसी हाँ गुरु ।
- संयुक्त व्यंजन से पूर्व का लघु वर्ण तभी गुरु माना जाएगा जब उसे पढ़ने में उस पर जोर पड़े देश - प्रेम में श पर जोर पड़ेगा तो श गुरु हो जाएगा और जोर नहीं पड़ता है तो लघु रहेगा ।
- संयुक्ताक्षर के पूर्व वर्ण में गुरु मात्रा लगती है । चाहे वह पूर्व वर्ण लघु हो या गुरु किन्तु आधे अक्षर पर कभी मात्रा की गणना नहीं होती है ।
यति और गति
यति
यति का अर्थ है ठहरना । किसी छन्द का वाचन करते समय प्रत्येक चरण के अन्त में जो अल्प विराम आता है उसे यति कहते हैं । उच्चारण में वक्ता को थोड़ा विश्राम मिलने से नाद सौन्दर्य ओर अधिक बढ़ जाता है । इससे श्रोता के लिये अर्थबोध भी सुगम हो जाता है ।
उदाहरण
श्रीगुरु चरण सरोज रज , निज मन मुकुर सुधार ।
( दोहा छन्द - 13-11 मात्राओं पर यति )
तारे डूबे , तम टल गया , छा गयी व्योम लाली
( मन्दाक्रांता छन्द - 4-6-7 वर्णों पर यति । )
गति
छन्द को प्रभावपूर्ण ढंग से पढ़ने पर जो लय उत्पन्न होती है उसे गति कहते हैं । इसके द्वारा छन्द में संगीतात्मकता और ध्वन्यात्मकता आ जाती है । प्रत्येक छन्द की अपनी लय गति होती है
बरखा - काल , मेघ नभ छाये
वर्णों और मात्राओं का क्रम बदल देने पर उस छन्द की गति भंग होती है , दो भिन्न छन्दों में गति की भिन्नता होती है
दिवस का अवसान समीप था ( द्रुतविलंबित )
चूमता था भूमितल को , अर्ध विघुसा भाल । ( रूपमाला )
तुक और चरण
तुक
छन्द के चरणों की अन्तिम ध्वनि की समानता को तुक कहते हैं । जिन छन्दों के चरणों की अंतिम ध्वनियाँ मिलती हैं , उन्हें तुकान्त और जिनकी नहीं मिलतीं उन्हें अतुकान्त छन्द कहते हैं । अन्त्यानुप्रास के तीन भेद उत्तम , मध्यम व निकृष्ट माने गए हैं । 8-7-6 , 5-4-3 , 2-1 मात्राओं का साम्य ।
तुकान्त
दीपक के जीवन में आली ।
फिर भी है जीवन की लाली ।।
अतुकान्त
परम्परा जब लुप्त होती है
सभ्यता अकेलेपन के दर्द से मरती है ।
कलमें लगाना जानते हो तो जरूर लगाओ
मगर ऐसे कि फलों में अपनी मिट्टी का स्वाद रहे ।
चरण
छन्द की पंक्ति को चरण कहते हैं । इसे पद भी कहा जाता है । प्रत्येक छन्द के प्रत्येक चरण में मात्राओं की गिनती निर्धारित रहती है ।
गण
तीन वर्गों का समूह गण कहलाता है । इन गणों की संख्या आठ हैं
यगण ।SS , मगण SSS , तगण SS। , रगण S।S
जगण ।S। , भगण S।। , नगण ।।। , सगण ।।S
इन गणों को संक्षेप में निम्नानुसार लिखा जा सकता है । क्रमशः तीन - तीन वर्गों का समूह लिखने से प्रत्येक गण तथा उसमें निहित मात्राओं का बोध होता है ।
य - मा - ता - रा - ज - भा - न - स - लगा
आदिमध्यावसानेषु भजसा यान्ति गौरवम् ।
यरता लाघवम् यान्ति , मनौ तु गुरु लाघवम् ।।
मस्त्रिगुरु स्त्रिलघुश्य नकारो भादिगुरुः पुनरादिलघुर्यः ।
जो गुरु मध्यगतो रत्नमध्यः सोSन्तगुरुः कथितो अन्तलघुस्तः ।।
मात्रिक गण
- सर्वगुरु SSS 6 मात्रा
- अन्तगुरु ।।S 4 मात्रा
- मध्यगुरु ।S। 4 मात्रा
- आदिगुरु S।। 4 मात्रा
- सर्वलघु ।।। 3 मात्रा
छन्दों के प्रकार
छन्द मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं
- मात्रिक
- वर्णिक
मात्रिक छन्द
मात्रिक छन्दों में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है । इसमें वर्गों की संख्या पर ध्यान नहीं दिया जाता है ।
उदाहरण
( गीतिका छन्द )
हे प्रभो ! आनन्ददाता , ज्ञान हमको दीजिए । 26 मात्राएँ
शीघ्र सारे दुर्गुणों को , दूर हमसे कीजिए ।। 26 मात्राएँ
लीजिए हमको शरण में , हम सदाचारी बने । 26 मात्राएँ
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक , वीर व्रतधारी बनें ।। 26 मात्राएँ
वर्णिक छन्द
वर्णिक छन्द में वर्गों की संख्या निश्चित और नियमित होती है । इनमें मात्राओं की संख्या निश्चित व नियमित हो आवश्यक नहीं है । गणों के आधार पर इनके लक्षणों को पुष्ट किया जाता है । यति स्थान निर्धारित रहता हैं ।
वर्णिक छंद के भेद
वर्णिक छन्द के दो भेद माने गये हैं
साधारण –
1 से 26 वर्ण तक के छन्द साधारण छन्द कहलाते हैं ।
दण्डक –
26 से अधिक वर्ण वाले दण्डक कहलाते हैं ।
अन्य छन्द
उभय छन्द
उभय छन्द में मात्राओं तथा वर्णों दोनों की ही संख्या निश्चित व नियमित होती है
उदाहरण
ऊपर को जल सूख - सूखकर उड़ जाता है ।
सरदी से सकुचाय , जलद पदवी पाता है ।।
पिघलावै रविताप , धरातल पै गिरता है ।।
बार - बार इस भाँति , सदा हिरता फिरता है ।।
( यति - 11-13 मात्रा , 8-9 वर्गों पर है , मात्रा - 24 , वर्ण – 17 )
मुक्त या स्वच्छन्द छन्द
इन छन्दों में परम्परा से हटकर रचना की जाती है । इन छन्दों में लय पर ध्यान रखा भी जा सकता है । किन्तु मात्राओं व वर्गों के नियमों की तरफ कवि कोई ध्यान नहीं देता । मात्रा , वर्ण की चिन्ता नहीं की जाती है ।
उदाहरण
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही
वह संध्या सुन्दरी परी सी
धीरे - धीरे - धीरे ।
( संध्या सुन्दरी - निराला )
उपवर्ग
मात्रिक व वर्णिक छन्दों के पुनः तीन - तीन उप वर्ग बताए गए
- सम
- अर्द्धसम
- विषम
सम
जिन छन्दों के चारों चरणों में वर्णों अथवा मात्राओं की संख्या बराबर होती है , समछंद कहलाते हैं । जैसे – चौपाई , गीतिका , हरिगीतिका ।
अर्द्धसम
जिस छन्द के पहले - तीसरे , दूसरे - चौथे चरणों में मात्राओं अथवा वर्गों की संख्या बराबर होती है , अर्द्धसम छंद कहलाते हैं । जैसे - दोहा , सोरठा ।
विषम
जिस छन्द में चार अधिक छ : या आठ चरण होते हैं और उनमें मात्राओं अथवा वर्गों की संख्या भिन्न होती है , विषम छंद कहलाते हैं । जैसे - छप्पय , कुंडलिया ।
काव्य में छंद का महत्त्व
छंद से हृदय को सौंदर्यबोध होता है।
छंद मानवीय भावनाओं को झंकृत करते हैं।
छंद में स्थायित्व होता है।
छंद सरस होने के कारण मन को भाते हैं।
छंद के निश्चित आधार पर आधारित होने के कारण वे सुगमतापूर्वक कण्ठस्त हो जाते हैं।
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