छंद-मात्रिक छन्द maatrik chhand
मात्रिक छन्दों में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है । इसमें वर्गों की संख्या पर ध्यान नहीं दिया जाता है । अर्थात मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु - गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है ।
उदाहरण
हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।
लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्म-रक्षक वीर व्रत धारी बनें ।
( गीतिका )
मात्रिक छन्दों के प्रकार
सम मात्रिक छंद
जिन छन्दों के चारों चरणों में मात्राओं की संख्या बराबर होती है , वे सम मात्रिक छंद कहलाते हैं ।
प्रमुख सम मात्रिक छंद
गीतिका ( 26 मात्रा ) , हरिगीतिका ( 28 मात्रा ) , रोला , दिक्पाल , रूपमाला ( सभी 24 मात्रा ) , वीर या आल्हा ( 31 मात्रा ) , अहीर ( 11 मात्रा ) , तोमर ( 12 मात्रा ) , मानव ( 14 मात्रा ) ; अरिल्ल , पद्धरि / पद्धटिका , चौपाई ( सभी 16 मात्रा ) , पीयूषवर्ष , सुमेरु ( दोनों 19 मात्रा ) , राधिका ( 22 मात्रा ) , , सरसी ( 27 मात्रा ) , सार ( 28 मात्रा ) , तांटक ( 30 मात्रा ) आदि ।
अर्द्धसम मात्रिक छंद
जिस छन्द के पहले - तीसरे , दूसरे - चौथे चरणों में मात्राओं की संख्या बराबर होती है , अर्द्धसम मात्रिक छंद कहलाते हैं ।
प्रमुख अर्द्धसम मात्रिक छंद
दोहा ( विषम - 13 , सम - 11 ) , सोरठा ( दोहा का उल्टा ) , उल्लाला ( विषम - 15 , सम - 13 ) , बरवै ( विषम चरण में - 12 मात्रा , सम चरण में - 7 मात्रा ) आदि ।
विषम मात्रिक छंद
जिस छन्द में चार अधिक छ : या आठ चरण होते हैं और उनमें मात्राओं की संख्या भिन्न होती है , उन्हें विषम मात्रिक छंद कहते हैं ।
प्रमुख विषम मात्रिक छंद
छप्पय ( रोला + उल्लाला ) , कुण्डलिया ( दोहा + रोला ) आदि ।
प्रमुख मात्रिक छंद
चौपाई छंद
यह सम मात्रिक छंद है । इसके चार चरण या पद होते हैं । प्रत्येक चरण में 16-16 मात्राएँ होती हैं ।चरण के अंत में गुरु लघु (S।) नही आता है अर्थात जगण व तगण का प्रयोग वर्जित है ।
उदाहरण
(क) आगे रामु लखनु बने पाछें। तापस बेष बिराजत काछें॥
उभय बीच सिय सोहति कैसे। ब्रह्म जीव बिच माया जैसे॥
(ख) सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
(ग) रघुकुल रीति सदा चली आई । प्राण जाय पर वचन न जाय ।।
बरवै छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में 12-12 मात्राएँ तथा द्वितीय और चतुर्थ चरण में 7-7 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों के अंत में जगण (ISI )होता है।
उदाहरण
(क) तुलसी सुमिरत राम सुलभ फल चारि । बेद पुरान पुकारत कहत पुरारि।।
राम नाम पर तुलसी नेह निबाहु । एहि ते अधिक न एहि सम जीवन लाहु।।
(ख) हेमलता सिय मूरति मृदु मुसकाइ । हेम हरिन कहँ दीन्हेउ प्रभुहि दिखाइ।।
जटा मुकुट कर सर धनु संग मरीच । चितवनि बसति कनखियनु अँखियनु बीच।।
दोहा छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । इसके प्रथम व तृतीय चरण में 13-13 तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण में 11-11 मात्राएँ होती हैं । अंत में गुरु लघु (S।) आते हैं । प्रारंभ में जगण का प्रयोग वर्जित है।
उदाहरण
(क) बिंधि न ईंधन पाइऐ सागर जुरै न नीर।
परै उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर।
(ख) बरसा को गोबर भयों केा चहै को करै प्रीति।
तुलसी तू अनुभवहि अब राम बिमुख की रीति।
(ग) पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ।
(घ) पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ।
सोरठा छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । यह दोहा का उल्टा होता है अर्थात विषम चरण में 11-11 व सम चरण में 13-13 मात्राएँ होती हैं । तुक विषम चरणों में मिलती है । विषम चरणों के अंत में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है।
उदाहरण
(क) जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन।
करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन
(ख) कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारी तब।
जनु असोक अंगार दीन्हि हरषि उठि कर गहेउ ।।
(ग) अकबरियो दिवलै जिस्यो, बण्या पतिंगा राजवी
लौ कांपी बाजी जणा, पून राण प्रतापसी
(घ) लीन्या सै नै चूंख, भंवरो बण अकबर जवन
पण चंपक रो रूंख, रहियो राण प्रतापसी
रोला छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । इसके विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ होती हैं।
उदाहरण
(क) यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
पर-स्वारथ के काज, शीश आगे धर दीजै॥
(ख) हुआ बाल रवि उदय,कनक नभ किरणै फूटीं ।
भरित तिमिर पर परम्,प्रभामय बनकर टूटीं ।
जगत जगमगा उठा,विभा वसुधा में फैली।
खुली अलौकिक ज्योति पुंज की मंजुल थैली।।
गीतिका छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । प्रत्येक पंक्ति में 26 मात्राएँ व सम चरणों में 14,विषम चरणों मे 12-12 मात्राएँ होती हैं । अंत में लघु-गुरु(।S) आता है ।
उदाहरण
हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।
लीजिये हमको शरण में, हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्म-रक्षक वीर व्रत धारी बनें । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
निंदा किसी की हम किसी से भूल कर भी न करें,
ईर्ष्या कभी भी हम किसी से भूल कर भी न करें । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
सत्य बोलें, झूठ त्यागें, मेल आपस में करें,
दिव्या जीवन हो हमारा, यश तेरा गाया करें । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
जाये हमारी आयु हे प्रभु लोक के उपकार में,
हाथ डालें हम कभी न भूल कर अपकार में । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
कीजिए हम पर कृपा ऐसी हे परमात्मा,
मोह मद मत्सर रहित होवे हमारी आत्मा । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
प्रेम से हम गुरु जनों की नित्य ही सेवा करें,
प्रेम से हम संस्कृति की नित्य ही सेवा करें । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
योग विद्या ब्रह्म विद्या हो अधिक प्यारी हमें,
ब्रह्म निष्ठा प्राप्त कर के सर्व हितकारी बनें । ॥ हे प्रभु आनंद-दाता ……..
हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए ।
हरिगीतिका छंद
यह सम मात्रिक छंद है । इसकी प्रत्येक पंक्ति में 28 मात्राएँ होती है । यति 16,12 पर होती है । प्रत्येक चरण के अंत में लघु-गुरु (।S) अवश्य होता है । गीतिका छंद के आरम्भ में दो मात्राएँ जोड़ने से हरिगीतिका छंद बनता है ।
उदाहरण
(क) हे तात! हे मातुल! जहाँ हो , है प्रणाम तुम्हें वहीं
अभिमन्यु का इस भाँति मरना, भूल न जाना कहीं
(ख) कोई न मेरे राज्य में,भूखा तथा नँगा रहे
सुख का हिमालय हो खड़ा सुख चैन की गंगा बहे
उल्लाला छंद
यह अर्द्धसम मात्रिक छंद है । इसके सम चरणों में 13-13 व विषम चरणों में 15-15 मात्राएँ होती हैं ।
उदाहरण
(क) करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की
हे मातृभूमि तू सत्य ही सगुण मूर्ति सर्वेश की
(ख) हे शरणदायिनी देवी तू , करती सबका त्राण है
तू मातृभुमि सन्तान हम , तू जननी तू प्राण है
छप्पय छंद
छप्पय का शाब्दिक अर्थ है षटपद । यह रोला व उल्लाला से बना विषम मात्रिक मिश्रित छंद है । इसमें छ पंक्तियाँ होती हैं । प्रथम चार पंक्तियों में 24-24 मात्राएँ व अन्तिम दो पंक्तियों में 26-26 मात्राएँ होती हैं ।
उदाहरण
(क) पडे़ भूमि पर सोना, तो सुख से सो जाते,
मिले कहीं पर्यंक, उसी पर सेज बिछाते,
कभी शाक-भाजी खाकर हैं क्षुधा मिटाते,
मिलें विविध व्यंजन तो उनका भोग लगाते,
फटे-पुराने पट कभी, शाल-दुशाले ओढ़ते।
किन्तु नहीं कर्त्तव्य से बधुजन मुख हैं मोड़ते।।
(ग) दाँतों से दुर्गन्ध सदा है जिसके आती,
वस्त्र मलिनता, घृणा सभी के उर उपजाती,
सूर्याेदय तक नींद न जिसकी खुलने पाती,
कटु वाणी जिसकी श्रोता को व्यथित बनाती,
तज देती बस रूष्ट हो, लक्ष्मी उसका साथ है।
वह चाहे भगवान ही, स्वयं त्रिलोकीनाथ है।।
कुंडलियाँ छंद
यह विषम मात्रिक मिश्रित छंद है जो दोहा व रोला के योग से बनता है । इसकी पहली दो पंक्तियाँ (चार चरण) दोहा छंद व अन्तिम दो पंक्तियां रोला छंद की होती हैं ।
विशेष
पहला शब्द अंत मे दोहराया जाता है । दूसरी पंक्ति के दोहे का अंतिम चरण को तीसरी पंक्ति में रोला के आरम्भ में दोहराया जाता है । यह छंद जिस शब्द से शुरू होता है उसी शब्द से समाप्त होता है ।
उदाहरण
कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान|
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान||
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक|
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक|
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया|
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया||
नवीन सी. चतुर्वेदी
छत्ता घुरछा पल्लौसँ, भेल दिने अन्हार।
दिन बितलापर घर घुरी, काल भेल विकराल॥
काल भेल विकराल, पोरे-पोर सिहरैए।
सुनत केओ सवाल, बोल बगहा लगबैए।
ऐरावत बेहाल, बोल कतऽ भेल निपत्ता।
घुरियाए बनि काल, पैसि बिच घोरन छत्ता।।
पत्नी बजली बिगड़ि कय हम छी बहुत निराश
कूलर टी.भी. फ्रिज नहि कोना करब हम बास?
कोना करब हम बास बजायब अपन पिताकेँ
कोना रहै छी व्यक्त करब सब मनक व्यथाकेँ
आबहु होउ फराक कोन अप्पन अछि कुड़िया
बूढ़ा जाथु दलान कोन गाड़ल छनि हुड़िया
दिक्पाल(दिग्पाल) छंद
सम मात्रिक छंद है । इसके प्रत्येक चरण में 24-24 मात्राएँ व 12-12 पर यति होती है । प्रथम यति के अंत में गुरु, और द्वितीय यति के अंत में दो गुरु तथा दो पंक्तियों का तुकांत होता है ।
उदाहरण
सुमेघ की सजल घटा ,
सुरेश चाप की छटा ।
प्रदीप्त सांझ की बिखर ,
रही अलक लहर लता ।।
लता लता समूह से ,
विटप विटप सटा सटा ।
विहँस रहा ठठा ठठा ,
अबाध नभ डटा डटा ।।
आल्हा या वीर छंद
प्रत्येक चरण में 31 मात्राएँ होती हैं तथा 16-15 पर यति होती है । चरण के अंत में गुरु लघु होते (S।) हैं ।
उदाहरण
विदा करो मां, जाते हैं हम विजय ध्वजा फहराने आज,
देश स्वतंत्र बनाने जाते, हम निज शीश चढ़ाने आज।
वीर प्रसू तू रोती क्यों है, सत्य-अहिंसा मेरे साथ,
मलिन वेश यह, आंसू कैसे, क्यों कंपित होता है गात!
रूपमाला(मदन) छंद
प्रत्येक चरण में 24 मात्राएँ , चरण के अंत में गुरु-लघु (S।) होता है ।
उदाहरण
चित्त है बेचैन हर दिन, क्षुब्ध मन के भाव।
भ्रात ने ही ख़ुद दिये हैं, बांधवी को घाव॥
विधि कहाँ ऐसी 'अना' है, कर सके जो न्याय।
बोझ रुपयों का करेगा, बंद हर अध्याय॥
क्यों नहीं घाटी खिलाती, केसरी शुभ फूल।
सोचकर यह नित सिसकते, हैं नदी के कूल॥
हो रहे हैं नित धमाके, मौन है डल झील।
द्वेष की कुत्सित अनल में, बुझ गये कंदील॥
त्रिभंगी छंद
प्रत्येक चरण में 32 मात्राएँ व 10-8-8-6 पर यति होती है । चरण के अंत में दो गुरु (SS) होते हैं ।
उदाहरण
साजै मन सुरा निरगुन नुरा जोग जरूरा भरपूरा ,
दीसे नहि दूरा हरी हजुरा परख्या पूरा घट मूरा
जो मिले मजूरा एष्ट सबूरा दुःख हो दूरा मोजीशा
आतम तत आशा जोग जुलासा श्वांस ऊसासा सुखवासा ।।
सुमिरण के संगा दरद न दंगा चित हो यंग रंग रंगा
प्राते लै पंगा ब्रह्म सभंगा जाप जपंगा सूद अंगा
ऐसे सत संगा गुरु के संगा , नित की गंगा हो पासा
आतम तत आशा जोग जुलासा श्वांस ऊसासा सुखवासा ।।
सार (ललित) छंद
प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ व 16-12 पर यति होती है । चरण के अंत में दो गुरु (SS) होते हैं ।
उदाहरण
राधा तेरी ही दीवानी ,तुमसे बाँधी डोरी
चोर बड़े मतवाले हो तुम, दिल की करते चोरी
मीरा जोगन हुई सावँरे ,गली-गली गुण गाकर
कुब्जा का कूबड़ छुड़वाया , माथे तिलक लगाकर
ताटंक छंद
प्रत्येक चरण में 30 मात्राएँ व 16-14 पर यति होती है । चरण के अंत में मगण या भगण होता है ।
उदाहरण
हिन्दू, मुस्लिम सिख ईसाई, सब में भाई चारा हो।
जाति पाँति का भेद खत्म हो, सरल प्रेम की धारा हो॥
ऊँच-नीच की कटें सलाखें, क्यों धर्मो का पंगा हो।
मंदिर-मस्जिद गुरुद्वारों की, केवल शान तिरंगा हो॥
यह जीवन है अजब पहेली, राज न कोई जाना है।
कब उड़ जाये कैद परिंदा, कब तक ताना बाना है॥
माटी की है देह मनुज की, माटी में मिल जाएगी।
मेलजोल से रहें सभी जन, सबको दुनिया भायेगी॥
ये भी देखें
कारक <> सन्धि <> समास <> पर्यायवाची शब्द <> विलोम शब्द <> वाक्यांश के लिए एक शब्द one word <> एकार्थी प्रतीत होने वाले भिन्नार्थक शब्द <> शब्द-युग्म : समोच्चरित भिन्नार्थक शब्द <> वाक्य - विचार vaaky-vichaar भाग-1 <> वाक्य - विचार vaaky-vichaar भाग-2 <> वाक्य – शुद्धि <> पदबंध <> शब्द – शक्ति <> मुहावरे <> लोकोक्ति <> छन्द
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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