अरस्तू का काव्य सिद्धान्त - अनुकरण , विरेचन और त्रासदी

 अरस्तू का काव्य सिद्धान्त - अनुकरण , विरेचन और त्रासदी
Aristotle's Poetry Theory - Imitation, Fermentation and Tragedy

अरस्तू का काव्य सिद्धान्त - अनुकरण , विरेचन और त्रासदी

अरस्तू ( Aristotiles ) का जीवन परिचय

अरस्तू का जन्म 384 ई . पूर्व मकदूनिया के समुद्रतट पर स्थित यूनानी उपनिवेश में एक अत्यंत प्रतिष्ठित परिवार में हुआ । इस परिवार में वंश परंपरा से वैद्यकी चली आ रही थी । इनके पिता मकदूनिया के राजवैद्य थे । अरस्तू बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी , कुशाग्रबुद्धि और विद्याव्यसनी थे । किशोरावस्था में एथेन्स जाकर वे प्लेटो के विद्यापीठ में दाखिल हो गए । वहाँ इन्होंने बीस वर्ष की आयु तक मुख्यतः दर्शन का अध्ययन किया । प्लेटो इनसे बहुत प्रभावित थे । वे एक ओर प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो के शिष्य थे , तो दूसरी ओर विश्वविजेता सिकन्दर के गुरु होने का गौरव भी उन्हें प्राप्त है । उन्होंने अपने जीवन में लगभग चार ग्रथों की रचना की जिनमें तर्कशास्त्र , भौतिकशास्त्र , मनोविज्ञान , ज्योतिषविज्ञान , राजनीति - शास्त्र , आचार - शास्त्र , काव्यशास्त्र आदि अनेक विषयों की सार - गर्भित विवेचना मिलती है । उनके साहित्य - संबंधी विचार काव्यशास्त्र ( Poetics ) एवं भाषण शास्त्र ( Rheotorics ) में उपलब्ध होते हैं । इनकी उपलब्ध रचनाओं में साहित्य से संबद्ध दो ग्रंथ हैं ।

इनमें से पेरिपोइतिकेस काव्यशास्त्र से संबद्ध है और तेखनेस रितरिकेस ' भाषण - कला या भाषण शास्त्र से संबद्ध है । जिसमें उनकी भाषा और अभिव्यक्ति पर विचार किया गया है । प्लेटो की साहित्य संबंधी मान्यताओं में उनके आदर्शवादी दार्शनिक दृष्टिकोण के कारण कई साहित्यिक सत्यों की उपेक्षा दिखाई देती है । इसलिए उन्होंने कवि और काव्य पर कई आक्षेप भी लगाए थे । अरस्तू की दृष्टि वस्तुवादी थी और उन्होंने साहित्यिक रचनाओं को सामने रखकर साहित्य की ही दृष्टिसे साहित्य का विवेचन किया । इस क्रम में उन्होंने अपने गुरु प्लेटो द्वारा कविता पर लगाए गए आक्षेपों का तो उत्तर दिया ही , कई मौलिक चिंतनों की भी स्थापना की । उन्होंने काव्य रचना के प्रेरक तत्वों , काव्य की प्रकृति , संरचना , प्रकार्य और प्रभाव सभी पर विचार किया और इसमें भी सबसे अधिक बल त्रासदी पर दिया । प्लेटो से ग्रहण ज्ञान को भी उन्होंने अपने मौलिक विचारों की कसौटी पर कसकर ग्रहण किया । इसलिए वे काव्य पर प्लेटो द्वारा लगाए गए आक्षेपों का उत्तर भी दे सके । काव्य के प्रसंग में अपने गुरु प्लेटो से उनकी असहमति का मुख्य मुद्दा तो यही था कि वे अनुकरण को निंदनीय या हीन नहीं मानते थे । इसके अतिरिक्त अनुकरण की प्रकृति को लेकर भी उनकी दृष्टि प्लेटो से भिन्न थी ।

अरस्तू के काव्य सिद्धांत 

अरस्तू के काव्य सिद्धांत त्रासदी के विवेचन क्रम में विकसित हुए हैं । अपने प्रसिद्ध ग्रंथ पोएसिस में उन्होंने ट्रेजेडी , एपिक ( महाकाव्य ) तथा कॉमेडी ( सुखात्मक नाटक ) की चर्चा अनुकरणात्मक काव्य रूप में की है । तात्पर्य यह है कि उन्होंने काव्य के सभी रूपों को अनुकरणात्मक माना है । इन सभी रूपों में त्रासदी ( ट्रेजेडी ) को सर्वाधिक महत्व देते हुए उन्होंने इसका विस्तृत विवेचन पोटटिक्स में चौदह अध्यायों ( छठे से उन्नीसवें अध्याय तक ) में किया है । त्रासदी के प्रयोजन की चर्चा के क्रम में ही उनका प्रसिद्ध विरेचन सिद्धांत सामने आया है । उनके काव्यचिंतन ने यूरोपीय काव्यशास्त्र पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है । उनके द्वारा प्रतिपादित काव्य सिद्धांत आज भी प्रासंगिक है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि उन्होंने मानव - मनोविज्ञान और अंत : प्रकृति को दृष्टि में रखकर अपनी स्थापनाएँ की हैं । इनके प्रमुख काव्य सिद्धांत हैं –

  • अनुकरण सिद्धात ( Theory of Imitation ) 
  • विरेचन का सिद्धांत  ( Theory of Cahersis ) 
  • त्रासदी का सिद्धांत 

अनुकरण – सिद्धान्त

' अनुकरण ' शब्द यूनानी ( ग्रीक ) भाषा के ' मिमेसिस ' ( Mimesis ) के पर्याय रूप में प्रयुक्त हुआ है । ' मिमेसिस ' का अंग्रेजी अनुवाद । ' इमिटेशन ' ( Imitation ) किन्तु इमिटेशन ' से ' मिमेसिस ' का पूरा  स्वरूप व्यक्त नहीं होता , क्योंकि यूनानी भाषा के बहुत सारे शब्दों की अर्थवत्ता या अर्थछटा अंग्रेजी में यथावत् व्यक्त नहीं हो पाती । हिन्दी में अनुकरण ' अंग्रेजी के इमिटेशन ' शब्द से रूपान्तर होकर आया है । अनुकरण का सामान्य अर्थ है- नकल या प्रतिलिपि या प्रतिछाया , जबकि आज इसका मान्य अर्थ है- " अभ्यास के लिए लेखकों और कवियों को उपलब्ध उत्कृष्ट रचनाओं का अध्ययन एवं अनुसरण करना । " यूनानी भाषा में कला के प्रसंग में अनुकरण का व्यवहार अरस्तू का मौलिक प्रयोग नहीं है । अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने अनुकरण का प्रतिपादन कविता को हेय तथा हानिकारक सिद्ध करने के हेतु किया था । अनुकरण के महत्त्व के कारण यहाँ एक जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से होती है कि अरस्तू ने काव्य - विवेचन में अनुकरण को इतना महत्व क्यों दिया ? इस संदर्भ में निम्नलिखित कारणों का उल्लेख किया जा सकता 

अरस्तू से पूर्व उनके गुरु प्लेटो ने काव्य तथा अन्य कलाओं को अनुकृति व्यापार दर्शन से सम्बद्ध होने के कारण हीन माना था । 

अरस्तू ने उसे मात्र काव्य और सृष्टि सम्बन्ध में ग्रहण किया । इससे उन्होंने अनुकरण का अर्थ और उसकी ध्वनियों को परिवर्तित कर दिया । ( अरस्तू ने प्लेटो के समान चित्र और काव्य को स्पष्ट रूप से अनुकरण - मूलक कहा है । 

अरस्तू काव्य में त्रासदी को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काव्य के रूप में मानते हैं उनका समस्त काव्य - विवेचन त्रासदी के विवेचन के संदर्भ में हुआ है । त्रासदी में अनुकरण की प्रधानता होती है , अतः अरस्तू के काव्य विवेचन में अनुकरण की प्रधानता होना स्वाभाविक है । 

ग्रीक भाषा में कवि के लिए ' पोयतेस ' शब्द का प्रयोग हुआ है जिसका व्युत्पत्यर्थ है- कर्ता या रचयिता । कवि घटनाओं का कर्ता नहीं अनुकर्ता माना जा सकता है । इस प्रकार अनुकरण की प्रधानता का सम्बन्ध ' पोयतेस ' के व्युत्पत्यर्थ से जुड़ जाता है । अरस्तू के व्याख्याकार अनेक आलोचकों ने अरस्तू की भिन्न - भिन्न प्रकार से व्याख्या की है , किन्तु एक बात में सभी सहमत है कि अरस्तू ने अनुकरण का प्रयोग प्लेटो की भांति स्थूल यथावत् प्रतिकृति के अर्थ में नहीं किया । 

प्रो ० बूचर के अनुसार अरस्तू के अनुकरण का अर्थ है- " सादृश्य विधान अथवा मूल का पुनरुत्पादन , सांकेतिक उल्लेखन नहीं । " कोई भी कलाकृति मूल वस्तु का पुनरुत्पादन जैसी होती है । वैसे नहीं अपितु जैसी वह इन्द्रियों को प्रतीत होती है वैसा करती है । कलाकृति , इन्द्रिय - बोध सापेक्ष पुनः सृजन है , यथातथ्य अनुकरण नहीं । कला का संवेदन तत्व ग्रहिणी शुद्धि के प्रति नहीं अपितु भावुकता और मन की मूर्ति विधायिनी शक्ति के प्रति होता है । 

प्रो ० गिल्बर्ट मरे ने यूनानी शब्द ' पोयतेस ' ( कर्ता या रचयिता ) को आधार मानकर अनुकरण की व्युत्पत्तिपरक व्याख्या प्रस्तुत की है । उनके अनुसार कवि शब्द के पर्याय में ही अनुकरण की धारणा निहित है , किन्तु अनुकरण का अर्थ सर्जना का अभाव नहीं ।

 यॉट्स के अनुसार , " अपने पूर्ण अर्थ में अनुकरण का आशय जैसे प्रभाव का उत्पादन , जो किसी स्थिति , अनुभूति तथा व्यक्ति के शुद्ध प्रकति रूप से उत्पन्न होता है । " वस्तुतः इनके अनुसार अनुकरण का अर्थ है- " आत्माभिव्यंजन से भिन्न जीवन का अनुभूति का पुनः सृजना " 

स्कॉट जेम्स के अनुसार - इन्होंने अनुकरण को जीवन के कल्पनात्मक पुनर्निर्माण का पर्याय माना है । इनकी द ष्टि से- " अरस्तू के काव्यशास्त्र में अनुकरण से अभिप्राय है साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन , जिसे हम अपनी भाषा में जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण कह सकते ये व्याख्याएं अपने आप में महत्वपूर्ण हैं । फिर भी अरस्तू के शब्दों को प्रमाण मानकर अनुकरण का विवेचन करना समीचीन होगा । 

कला और प्रकृति 

कला प्रकृति की अनुकृति है । यह कला और अनुकरण दोनों तत्वों का विवेचन का मूल सूत्र है । यहाँ अनुकरण की अपेक्षा प्रकृति शब्द का अधिक विवेच्य है । होरेस के आधार पर नव्यशास्त्रवादियों ने प्रकृति का अर्थ किया- नीति , नियमों से परिबद्ध जीवन और अनुकरण का अर्थ किया - यथावत् प्रत्यकन , इस प्रकार अरस्तू का यह सूत्र रीतिबद्ध काव्य - रचना का प्रेरक मन्त्र बन गया । किन्तु प्रकृति के अर्थ को इस प्रकार सीमित करने का कोई कारण नहीं है । यहाँ प्रकृति जीवन के समान रूप अर्थात् अन्तर्बाहा , दोनों रूपों की समष्टि का पर्याय है । इसमें स्थूलगोचर रूप अरस्तू को अभिप्रेत नहीं है अर्थात् मानवेतर प्रकृति का अनुकरण करना अनुकरणात्मक कला का नाम नहीं है । कवि या कलाकार प्रकृति की सर्जन - प्रक्रिया का अनुकरण करता है । अनुकरण का विषयागोचर वस्तुएँ न होकर उनमें निहित प्रकृति - नियम है । अतः अरस्तू के अनुसार- " प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं । प्रकृति इस आदर्श रूप की उपलब्धि की ओर निरन्तर कार्यरत रहती है । किन्तु कई कारणों से वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाती । अनुकरण में प्रकृति के अभावों को कला द्वारा पूरा किया जा सकता है । इस प्रकार अनुकरण एक सर्जन क्रिया है । काव्य कला प्रकृति की सर्जन - प्रक्रिया अनुकरण करती हुई प्रकृति के अधूरे कार्य को पूर्ण करती है । इसी से काव्य में अनुकरण तत्त्व की महत्ता है । 

अनुकरण की वस्तुएँ या विषय 

अरस्तू के अनुसार अनुकरण में तीन प्रकार की वस्तुओं में से कोई एक हो सकती है । जैसे –

  • वे थीं या है ( यथार्थ ) 
  • वे कही या समझी जाती है ( कल्पित यथार्थ ) ,
  • ये होनी चाहिए ( सम्भाव्य यथार्थ ) । 

इन्हीं को क्रमशः प्रतीयमान , सम्भाव्य , और आदर्श रूप माना गया है । 

" The poet being an imitator , like a painter or any other artist , must , necessity imitate one of three objects things as they were or are things as they are sad or , thought to be , or things as they ought to be " 

कवि को यह स्वतन्त्रता है कि वह वस्तु या विषय को उस रूप में चित्रित करे जैसी वह उसकी इन्द्रियों को प्रतीत होती है अथवा भविष्य में प्रतीत हो सकती है अथवा होनी चाहिए । निश्चय ही इसमें कवि की भावना और कल्पना का योगदान होगा - यह नकल मात्र नहीं होगा । इसी से अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त - भावना और कल्पनायुक्त अनुकरण को मानकर चलता है , शुद्ध प्रकृति को नहीं । काव्य सत्य के सम्बन्ध में अपने विचारों को सिद्ध करने के लिए अरस्तू ने कविता और इतिहास पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया है । इस तथ्य को बूचर ने स्पष्ट किया है 

" It is not the function of the poet to relate what has happened but what may happen , what is possible according to law of probability or necessity . The poet and historian differ not by writting in verse or in prose ... The difference is that one relates what has happened , the other what may happen . Poetry , therefore , is a more philosophical , . and a higher thing than history for poetry thends to express the universal history the particular . " 

अर्थात् कवि - कर्म जो कुछ घटित हो चुका है , उसका वर्णन करना नहीं , वरन् जो कुछ घटित हो सकता है- जो कुछ सम्भावना या अनिवार्यता के नियमाधीन सम्भव है- उसका वर्णन करना है .... कवि और इतिहासकार में गद्य और पद्य लेखन के कारण भेद नहीं है ...... वरन् उनमें वास्तविक भेद यह है कि एक उसका वर्णन करता है जो घटित हो चुका है तथा दूसरा उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है । इसलिए कविता इतिहास से अधिक श्रेष्ठ है , क्योंकि कविता सार्वभौम का चित्रण करती है , जबकि इतिहास विशेष का । " 

कवि और इतिहासकार में अन्तर

अरस्तू के मतानुसार , " कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि एक तो उसका वर्णन करता है जो घटित हो चुका है और दूसरा उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है । परिणामतः काव्य में दार्शनिकता अधिक होती है । उसका स्वरूप इतिहास से भव्यतर है , क्योंकि काव्य सामान्य ( सार्वभौम ) की अभिव्यक्ति है और इतिहास विशेष की । इतिहास की घटनाएँ देश - काल की सीमा से बंधकर केवल अपने और विशिष्ट रूप में हमारे सामने आती हैं , जबकि काव्य - निबद्ध तथ्य अपने - अपने सार्वभौम रूप में अभिव्यक्त होते हैं । अतः उनकी पुनरावृति सम्भावित होती है । इस प्रकार काव्य और इतिहास सम्बन्धी विवेचन में अनुकरण से है , यथार्थ वस्तुपरक प्रत्यंकन से नहीं ।

' कार्य ' का अभिप्राय

अरस्तू ने त्रासदी के विवेचन में लिखा है कि त्रासदी मनुष्यों का नहीं वरन् कार्य और जीवन का अनुकरण करती है । ' कार्य ' शब्द का प्रयोग उन्होंने मानव - जीवन का चित्रण के अर्थ में किया है । उनके अनुसार जो कुछ भी मानव - जीवन के आन्तरिक पक्ष को व्यक्त करे , बुद्धिसम्मत व्यक्तित्व का उद्घाटन करे , वह सभी कुछ ' कार्य ' के अन्तर्गत आएगा । अतः कार्य का अर्थ केवल मनुष्य के कर्म ही नहीं , उसके भाव , विचार , परित्र आदि भी है जो कर्म के प्रति उत्तरदायी होते हैं । अतः अनुकरण का विषय है- क्रियाशील मानव । अनुकरण और आनन्दः अरस्तू का विचार है कि अनुकूल वस्तु से प्राप्त आनन्द मी कम सार्वभौम नहीं है- " जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष दर्शन हमें दुख देता है , उनका अनुकरण द्वारा प्रस्तुत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है । डरावने जानवर देखने से हमें डर लगता है , किन्तु उनका अनुकूल रूप हमें आनन्द प्राप्त करता है । अतः अनुकरण आनन्द का तत्त्व अनिवार्यतः निहित होने का अर्थ यही है कि उसमें आत्म - तत्त्व का प्रकाशन निहित रहता है , क्योंकि आनन्द की उपलब्धि आत्मप्रत्त्य के प्रकाशन के बिना सम्भव नहीं है । अतः अनुकरण निश्चय ही यथार्थ वस्तुपरक अंकन न होकर भावात्मक और कल्पनात्मक होगा । किन्तु भाव - तत्त्व और उसमें निहित आत्म तत्त्व का सद्भाव होने पर भी अनुकरण विशुद्ध , आत्माभिव्यंजन का पर्याय नहीं है . क्योंकि इसमें वस्तु तत्त्व की प्रधानता अनिवार्य है । आधुनिक आलोचना शास्त्र की शब्दावली का आश्रय लेकर कहें तो अनुकरण में अभिजात कला के वस्तु परक भाव - तत्त्व की ही स्वीककृति है , किन्तु रम्याद्भुत कला के व्यक्तिपरक भाव - तत्व की नहीं । इस प्रकार उसमें जीवन की अनुभूतियों से निर्मित कवि की अन्तश्चेतना को पर्याप्त महत्व नहीं मिला है । अनुकरण में जिन विषयों का विवेचन होता है वे सभी स्थूल व सूक्ष्म होते हुए भी अनुकार्य हैं । उनकी स्थिति अनुकर्त्ता से बाहर है । अतः अनुकरण को व्यक्तिपरक अनुभूति के अभाव में शुद्ध आत्माभिव्यंजन की कोटि में नहीं रखा जा सकता । 

अनुकरण की व्याप्ति

अरस्तू ने गीतिकाव्य उपेक्षित कर दिया है । गीत को उन्होंने काव्य का अलंकार मात्र माना है । अरस्तू का पक्षपाती यह भी तर्क देता है कि जिस प्रकार त्रासदी में दूसरे की अनुभूतियों का अनुकरण सम्भव है , उसी प्रकार गीतिकाव्य में भी अपनी अनुभूतियों का अनुकरण सम्भव है । किन्तु जो स्वयं अभिव्यक्त रूप है , उसके अनुकरण का प्रश्न ही नहीं उठता । अतः अनुकरण शब्द का अर्थ इतना अर्थ विस्तार सम्भव नहीं है कि गीतिकाव्य को यथावत् उसकी परिधि में अन्तर्भूत किया जा सके , यही उसकी परिसीमा है । अनुकरण सिद्धान्त का क्रोथे के सहजानुभूति सिद्धान्त से भी साक्षात् विरोध है । क्रोधे के अनुसार , काव्य - कला का जो मौलिक रूप है, वह अनुकरण का विषय नहीं हो सकता और उसका मूर्त रूप , जो अनुकरण का विषय है , कोचे के अनुसार सर्वथा आनुषंगिक है । अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त में किसी भी प्रकार सहजानुभूति का समावेश नहीं हो सकता । अतः जिस अंश तक क्रोचे का सहजानुभूति सिद्धान्त मान्य है , उसी अंश तक अनुकरण सिद्धान्त अमान्य है । डॉ ० नगेन्द्र ने अनुकरण सिद्धान्त का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है कि सृजन और अनुकरण में मेल है । काव्य में वस्तुओं के मर्म को आकर्षक रीति से उद्घाटित करना कवि - कर्म है । इसके दो पक्ष हैं- वस्तु के मर्म का दर्शन और उसकी शब्दों में अभिव्यक्ति ये दोनों पक्ष अभिन्न हैं । काव्य दोनों की समन्वित क्रिया है , अनुकरण नहीं । कवि की प्रतिभा कारयित्री है अनुकारयित्री नहीं । कवि लौकिक पदार्थों के मार्मिक रूप का उद्घाटन करता है । इसी से काव्य नवनिर्माण है ,सृजन है , अनुकरण नहीं । वस्तुतः कवि जीवन में अनुभव में अपना दृष्टिकोण जोड़ देता है और यही दृष्टिकोण सृजन तत्त्व है । इसी से अनुकरण शब्द का अर्थ विस्तार हो गया है । 

अनुकरण की शक्ति 

अरस्तु के अनुकरण को नया अर्थ प्रदानकर कला का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित किया है । सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना है । प्लेटो द्वारा कला पर लगाए गए आक्षेप का निराकरण किया है और कविता दार्शनिक तथा नीतिकार बन्धन से छुटकारा दिलाया है । उन्होंने अनुकरण की हीनता का उन्नयन किया है । इन विशेषताओं के होते भी उसकी कुछ सीमाएँ हैं । 

सीमाएँ 

अनुकरण में व्यक्तिपरक भाव - तत्व की अपेक्षा वस्तुपरक भाव - तत्व को अधिक महत्व दिया , जो निश्चय ही अनुचित है । 

कवि की अन्तश्चेतना को उतना महत्व नहीं दिया , जितना दिया जाना चाहिए था । इससे उसकी परिधि संकुचित हो गई थी । 

विश्व की गीति काव्य संख्या में सर्वाधिक होते हुए भी अनुकरण की परिधि में नहीं समा सकता , क्योंकि उसकी आत्मा है - भाव , जो प्रेरणा के भार से दबकर फूटता है ।

कलाकार के मानस में घटित होनेवाले सहजानुभूति सिद्धान्त के अनुसार अनुकरण का कला - सृजन में कोई महत्त्व नहीं , जबकि अरस्तू अनुकरण को ही कला कहता है । 

अरस्तू द्वारा अपनाए गए ' मिमेसिस ' शब्द की अर्थ - परिधि ' पुनः सृजन ' ' कल्पनात्मक पुनर्निर्माण ' आदि अर्थों का अन्तर्भाव नहीं हो सकता है ।

सार

सत्य कभी एकदेशीय नहीं होता । उसकी उपलब्धि तो किसी - न - किसी रूप में होती जाती है , किन्तु उपलब्धि की विधि और उसका आधारभूत दृष्टिकोण भी कम महावूपर्ण नहीं होता । अरस्तू ने काव्य या कला को प्रकृति का अनुकरण माना है । अतः कला अनुकरण होते हुए भी नवीकरण है सृजक रूप है ।

विरेचन – सिद्धान्त

' विरेचन’ यूनानी कथार्सिस का हिन्दी रूपान्तर है । यूनानी चिकित्साशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है कैथार्सिस ' और भारतीय चिकित्साशास्त्र ( आयुर्वेद ) का पारिभाषिक शब्द है- ' विरेचन ' । इसका अर्थ है- रोचक औषधि के द्वारा शारीरिक विकारों अर्थात् उदर के विकारों की शुद्धि । स्वास्थ्य के लिए जिस प्रकार शारीरिक मल का निष्कासन - शोधन आवश्यक है , उसी प्रकार ईर्ष्या , द्वेष , लोभ , मोह और क्रोध आदि मानसिक मलों का निष्कासन एवं शोधन आवश्यक है । अरस्तू ने ' कथार्सिस ' शब्द का लाक्षणिक प्रयोग मानव - मन पर पड़नेवाली श्रासदी के प्रभाव का उद्घाटन करने के लिए किया है । त्रासदी के प्रति प्लेटो की आपति थी- " वह ( त्रासदी ) मानव की वासनाओं का दमन करने के स्थान पर उनका पोषण और सिंचन करती है । यह उच्चतर तत्वों के बदले निम्नतर तत्वों को उभारकर आत्मा में अराजकता उत्पन्न करती है । " अरस्तू ने कैथार्सिस ( विरेचन ) सिद्धान्त द्वारा प्लेटो के इस आक्षेप का खण्डनकर श्रासदी उपादेयता स्थापित की । प्लेटो ने जिसे दोष सिद्ध किया था , अरस्तू ने उसी को गुण के रूप में प्रस्तुत किया । अरस्तू का अभिमत " Tragedy is an imitation of an action that is serious complete and or a certain magnitude .... through pity and fear effecting the proper purgation or Katharsis of these emotions . " अर्थात् त्रासदी किसी गम्भीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य को अनुकृति का नाम है . .... जिसके करुणा त्रास से उदेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विवेचन किया जाता है ।

इसी प्रकार त्रासदी केवल अवांछनीय भावनाओं को ही उद्दीप्त नहीं करती , अपितु करुणा और त्रास के कृत्रिम उद्रेक द्वारा मानव के वास्तविक जीवन कराणा और वास की भावनाओं का निष्कासन करती है । 

विरेचन का स्वरूप 

विरेचन का उल्लेख अरस्तू की रचनाओं में केवल दो स्थानों पर मिलता है । प्रथम उल्लेख उसके ' पोयटिक्स ' ( काव्यशास्त्र ) ग्रन्थ में , जहाँ ट्रेजेडी स्वरूप की ओर संकेत किया गया है और दूसरा ' राजनीतिक ' नामक ग्रंथ में जहाँ उन्होंने संगीत की उपयोगिता प्रतिपादित की है । इन स्थलों पर उन्होंने विरेचन शब्द का सूत्र रूप में एवं उसके स्वरूप की चर्चा की है । अरस्तू का कथन है . " संगीत का अध्ययन एक नहीं वरन अनेक उद्देश्यों की सिद्धि के लिए होना चाहिए , अर्थात् शिक्षा के लिए विरेचन ( शुद्धि ) के लिए । संगीत से बौद्धिक आनन्द की भी उपलब्धि होती है । ..... धार्मिक रागों के प्रभाव से वे शान्त हो जाते हैं , मानों उनके आवेश का शमन और विरेचन हो गया हो । इस प्रकार विरेचन से अभिप्राय शुद्धि से है । अरस्तू के ये विचार त्रासदी - विरेचन के संदर्भ में फुटकर रूप में मिलते हैं । विशेष सुव्यवस्थितरूप से इनका सम्पादन नहीं किया गया है । आधुनिक युग में अरस्तू के सीमित और अल्प शब्दों ने पूर्ण काव्य - शास्त्रीय सिद्धान्त का रूप धारण कर लिया है । अतः एक प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठा कि करुणा और त्रास के उदेक तथा रेचन से अरस्तू का मूलतः क्या अभिप्राय था ? इस संदर्भ में अरस्तू के परवर्ती व्याख्याकारों ने विरेचन के अर्थ और व्याख्याएँ प्रस्तुत की मिन्न – भिन्न

धर्मपरक अर्थ - अरस्तू के व्याख्याकारों में प्रो ० गिल्बर्ट मरे और लिवि ने विरेचन की धर्मपरक व्याख्या प्रस्तुत की है । धर्मपरक अर्थ की एक विशेष पष्ठभूमि है । इसका सम्बन्ध धार्मिक उत्सवों से है । प्रो ० गिल्बर्ट मरे का कथन है कि - " यूनान में दिओन्यूसस नामक देवता से सम्बद्ध उत्सव अपने आप में एक प्रकार की शुद्धि का प्रतीक था , जिसमें विगत समय के कलुष और पाप एवं मृत्यु – झंझट से मुक्ति मिल जाती है । इस प्रकार बाह्य विकारों द्वारा आन्तरिक विकारों की शन्ति का यह उपाय अरस्तू के समय में धार्मिक संस्थाओं में काफी प्रचलित था । उन्होंने इसका लाक्षणिक प्रयोग उसी के आधार पर किया है और विरेचन का अर्थ हुआ- “ बाह्य उत्तेजना और अंत में उसके शमन द्वारा आत्मिक शुद्धि और शान्ति । " 

नीतिपरक अर्थ - बारनेज नामक जर्मन विद्वान विरेचन । नीतिपरक व्याख्या की है । उसके अनुसार मानव - मन अनेक मनोविकारों से आक्रान्त रहता है । जिनमें करुण और भय , मूलतः दुःखद मनोवेग है । त्रासदी रंगमंच पर अवास्तविक परिस्थितियों द्वारा इन्हें अतिरंजित रूप में प्रस्तुतकर कृत्रिम अस्पष्ट उपायों से प्रेक्षक के मन में वासना रूप में स्थित इन मनोवेर्गो के देश का निराकरण और उसके परिणामस्वरूप मानसिक सामंजस्य की स्थापना करती है । अतः विरेचन का नीतिपरक अर्थ हुआ - मनोविकारों के उत्तेजन के उपरान्त उद्धेग का शमन और तज्जन्य मानसिक विशदता । वर्तमान मनोविज्ञान तथा मनोविश्लेषण शास्त्र भी इस अर्थ की पुष्टि करते हैं । मानसिक स्वास्थ्य की साधक होने के कारण यह पद्धति नैतिक मानी गई है ।

कलापरक अर्थ - गेटे और अंग्रेजी के स्वच्छन्दतावादी कवि आलोचकों में विरेचन के कलापरक अर्थ के संकेत मिलते हैं । अरस्तू के प्रसिद्ध व्याख्याकार प्रो ० बुचर का अभिमत है कि विरेचन केवल मनोविज्ञान अथवा निदानशास्त्र के एक तथ्य विशेष का वाचक न होकर , एक कला - सिद्धान्त का अभिव्यंजक है । इस प्रकार त्रासदी का कर्तव्य - कर्म केवल करुणा या त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना ही नहीं अपितु इन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है । इनको कला के माध्यम में डालकर परिष्कृत और स्पष्ट करना है । विरेचन का अर्थ यहाँ व्यापक है- मानसिक संतुलन इसका पूर्व भाग मात्र है , परिणति उसकी कलात्मक परितोष का परिष्कार ही है जिसके बिना त्रासदी के कलागत आस्वाद का वृत पूरा नहीं होता । 

सारतः यद्यपि तत्कालीन धार्मिक परिस्थितियों से अरस्तू का प्रभावित होना स्वाभाविक है और स्वयं धार्मिक संगीत की ओर अरस्तू ने संकेत भी किया है कि जिस प्रकार धार्मिक संगीत श्रोताओं के भावों को उत्तेजित कर फिर शान्त करता है , उसी प्रकार त्रासदी प्रेक्षक के भय ओर करुणा के भावों को जगाकर बाद में उन्हें उपशमित करती है । त्रासदी के सम्बन्ध में यह मत अक्षरशः ठीक नहीं है , क्योंकि संगीत द्वारा ठीक किए जानेवाले व्यक्ति पहले ही मादाक्रान्त होते थे , जबकि प्रेक्षागृह में जानेवाले व्यक्ति करुणा या भय की मानसिक स्थिति में नहीं होते । अतः विरेचन सिद्धान्त की प्रकल्पना पर उक्त प्रथा का प्रभाव अप्रत्यक्ष तो माना जा सकता है । किन्तु सीधा सम्बन्ध स्थापित करना आवश्यक है । जहाँ तक नीतिपरक अर्थ की बात है , मनोविज्ञान भी इसकी पुष्टि करता है । विरेचन अरस्तू के तात्पर्य भावों का निष्कासन मात्र नहीं , वरन् उनका संतुलन भी है । इसी प्रकार प्रो ० बुचर का अर्थ भी विचारणीय है । उनके अनुसार विरेधन के दो पक्ष है- एक अभावात्मक और दूसरा भावात्मका अभावात्मक पक्ष यह है कि यह पहले मनोवेगों को उत्तेजित करें , तदुपरान्त उनका शमनकर मनःशांति प्रदान करे । इसके बाद सम्पन्न कलात्मक परितोष उसका भावात्मक पक्ष है । विरेचन को भावात्मक रूप देना उचित नहीं है । अरस्तू का अभीष्ट केवल मन का सामंजस्य और तज्जन्य विमदता तक ही है , जिसके आधार पर वर्तमान आलोचक रिचर्ड्स ने ' अन्तवृत्तियों के समंजन का सिद्धान्त प्रतिपादन किया है । डॉ ० नगेन्द्र का का मत है कि " विरेचन कला - स्वाद का साधक तो अवश्य है- समंजित मन कला के आनन्द को अधिक तत्परता से ग्रहण करता है , परन्तु विरेचन में कला - स्वाद का सहज अन्तर्भाव नहीं है । अतएव विरेचन सिद्धान्त को भावात्मक रूप देना कदाचित न्यायसंगत नहीं है । " आधुनिकतम आधुनिक विद्वानों के मतानुसार त्रास और करुणा की भावनाएँ अपने प्रकृत रूप में अधिक कष्टप्रद बनकर प्रकट होती है । त्रासदी के प्रेक्षणा के फलस्वरूप वे अपने अनुग्न एवं अनापत्तिजनक रूप को प्रकाशित करती है । इस रूप में वे निवैयक्तिक एवं सार्वभौम रूप में सामने आती हैं । इससे विरेचन और साधारणीकरण का घनिष्ठ सम्बन्ध सहज ही देखा जा सकता है । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि क्या त्रासदी के प्रभाव या प्रयोजन को समझने के लिए विरेचन सिद्धान्त ही एकमात्र समीचीन माध्यम है ? वस्तुतः त्रासदी के कार्य को रेधन तक सीमित कर देना उसके उद्देश्य को संकीर्ण बनाने जैसा है । इसके विपरीत भाववादी समीक्षकों ने विरेचन का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत बनाकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि विरेचन से अवांछनीय भावनाओं में भी परिवर्तन होता है और उनका अतिरेक मिटता है । इस व्यापक दृष्टिकोण का प्रतिपादन ड्राइजन , एडीसन आदि विद्वानों ने किया । आक्षेप और समाधान कुछ विद्वान विरेचन प्रक्रिया के अस्तित्व के बारे में शंका करते हैं । उनका आक्षेप है कि वास्तविक जीवन में ऐसा विरेचन नहीं होता है । श्रासदी से करुणादि मनोवेग उद्बुद्ध तो हो जाते हैं , किन्तु उनके विरेचन से मनः शान्ति सर्वथा नहीं होती । वास्तव में त्रासदी का चमत्कार मूलतः रागात्मक होता है । वह विरेचन - प्रक्रिया द्वारा भावों को उखुद करती है उनका समंजन करती है और इस प्रकार आनन्द की भूमिका प्रस्तुत करती है । यह विरेचन सिद्धान्त की महत्वपूर्ण देन है ।

 दूसरा आक्षेप यह है कि त्रासदी में प्रदर्शित भाग अवास्तविक होते हैं , अतः वे हमारे भावों को उदयुद्ध नहीं कर पाते , विरेचन की तो बात ही नहीं । वस्तुतः यह मत भी उचित नहीं है । त्रासदी द्वारा भावोद्रेक निश्चय ही कला चमत्कार का प्रतिफल नहीं , रागात्मक प्रभाव की परिणति है । सारभूत समंजनकारी प्रभाव ही उसकी सफलता का कारण है । अतः आक्षेप सर्वथा निर्मूल है । 

विरेचन का मनोवैज्ञानिक आधार

मनोविश्लेषण शास्त्र के अनुसार भावनाओं की अतृप्ति या दमन मानसिक रोगों का प्रमुख कारण है । इनका विचार भावों की उचित अभिव्यक्ति और परितोष द्वारा हो सकता है । अचेतन मन में पड़े भाव उचित अभिव्यक्ति के अभाव में मानसिक ग्रन्थियों को जन्म देते हैं । इन ग्रंथियों को चेतन स्तर पर लाकर मन की घुटन और अत प्ति को दूर किया जाता है । इससे मन का तनाव दूर हो जाता है और वित्त एक प्रकार की विशदता एवं हल्कापन अनुभव करता है । मनोविश्लेषण शास्त्र की उन्मुक्त विचार - प्रवाह प्रणाली का आधार यही प्रक्रिया है । इस दृष्टि से विरेचन का मनोवैज्ञानिक आधार सर्वथा पुष्ट है । फ्रायड आदि विद्वानों ने अनेक स्थलों पर अरस्तू वाक्यों को अपन मत के समर्थन में प्रस्तुत किया है । विरेचन और करुण रस अरस्तू द्वारा प्रतिपादित त्रासदी के प्रभाव का भारतीय काव्यशास्त्र में करुण रस से पर्याप्त साम्य है । त्रासद प्रभाव के आधारभूत मनोवेग है- करुणा और त्रास । ये दोनों भाव मूलतः दुःखद हैं । उधर करुण रस का स्थायी भाव ' शोक ' है । भारतीय काव्यशास्त्र ' शोक ' स्थायी भाव के अन्तर्गत करुणा के साथ त्रास के अस्तित्व को स्वीकार करता है । इष्ट नाश या विपत्ति शोक के कारण हैं । इनसे करुणा और त्रास दोनों की उद्भूति होती है । विपत्ति के साक्षात्कार से करुणा की , वसी ही विपत्ति की पुनरावृति की आशंका से त्रास की अनुभूति होती है । किन्तु भारतीय आचायाँ और अरस्तू के द प्टिकोण में प्रमुख अन्तर यह है कि अरस्तू का त्रासद प्रभाव एक मिश्र भाव है , जबकि भारतीय काव्यशास्त्र का शोक स्थायी भाव मूलतः अमिश्र है , जैसे · सीता के दुर्भाग्य से उत्पन्न करुणा में त्रास का स्पर्श नहीं है , जबकि अरस्तू की दृष्टि में त्रासहीन करुण प्रसंग आदर्श स्थिति नहीं है । 

सार 

विरेचन सिद्धान्त का महत्त्व बहुविध है । प्रथम तो यह है कि उसने प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आक्षेप निराकरण किया और दूसरा यह कि उसने गत कितने ही वर्षों के काव्यशास्त्रीय चिन्तन को किसी न किसी रूप में अवश्य ही प्रभावित किया ।

त्रासदी

अरस्तू की साहित्य शास्त्रीय चर्चा में जिस विधा की बड़े विस्तार और गहराई से चर्चा मिलती है , वह है त्रासदी ( Tragedy ) । वस्तुतः अरस्तू के युग के पहले ही यूनान में त्रासदी का रस विकसित हो चुका था और वहीं अरस्तू के विवेचन का आधार बना । त्रासदी ग्रीक साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा थी । प्राचीन यूनान में दिओनिसिअस देवता को प्रसन्न करने के लिए जो खेल - तमशे होते थे उन्हें ही ट्रेजेडी का मूल रूप कहा जाता है । यद्यपि प्लेटो आदि विचारकों ने भी ट्रेजेडी के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं पर अरस्तू ने ही सबसे पहले ट्रेजेडी का गंभीर , विशद एवं सर्वांगीण विवेचन किया है और उनका वह विवेचन केवल मौलिक ही नहीं है अपितु आगामी विद्वानों को चितन और तात्विक विश्लेषण करने की प्रेरणा भी देता है । इस प्रकार अरस्तू ने पहली बार ट्रेजेडी की परिभाषा देते हुए कहा है - " ट्रेजेडी एक ऐसे कार्य का अनुकरण है जो गंभीर है , स्वतः पूर्ण है और जिसका एक निश्चित आयाम है । यह अनुकरण एक ऐसी भाषा में होता है जो कलात्मक अलंकारों के हर प्रकार से सुसज्जित रहती है । कलात्मक अलंकारों के ये विविध प्रकार , विभिन्न भागों में पाये जाते हैं । यह अनुकरण करुणा और भय के संचार से मनोवेगों को उत्तेजित कर उनका उचित विरेचन करता है । अलंकृत भाषा से यहाँ तात्पर्य है ऐसी भाषा जिसमें लय , सामंजस्य और गीत का सामंजस्य हो । नाटक के विभिन्न भागों में पाये जाने का तात्पर्य है कि कुछ भागों में केवल पद्य के माध्यम का और गीत का प्रयोग किया जाता है । " प्रस्तुत परिभाषा के आधार पर हम त्रासदी की प्रमुखत : निम्न विशेषताओं को समझ सकते 

  • त्रासदी ' कार्य की अनुकृति ' है । 
  • इसमें वर्णित कार्य गंभीर होता है , स्वतःपूर्ण होता है । ( अर्थात् पूर्ण होने के लिए उसे किसी अन्य तत्व पर निर्भर नहीं रहना पड़ता ) , और उसका आयाम अर्थात् क्षेत्र तथा विस्तार निश्चित रहता है ।
  • बहुस्माख्यानात्मक ( वर्णनात्मक ) रूप में नहीं , बल्कि कार्य व्यापार के रूप में प्रस्तुत की जाती है ।
  • कार्य - व्यापार की प्रधानता होते हुए भी इसका माध्यम भाषा होती है और वह भाषा नाटक के लिए उपयुक्त अलंकारों से युक्त होती है ।
  • इसमें करुणा और वास का उद्रेक होता है , और इस उद्रेक के द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है ।

त्रासदी के तत्व

अरस्तू ने त्रासदी के छः तत्व माने हैं 

  • कथानक ( Plot ) 
  • चरित्र ( Character )
  • विचार ( Thought ) 
  • पदविन्यास ( Diction ) 
  • दृश्य - विधान ( Spectacle ) और 
  • गीत ( song ) ।

इन सभी तत्वों का उन्होंने कमोबेश विस्तार से विवेचन किया है और इन सभी का संबंध अनुकरण से है ।

कथानक 

त्रासदी की विषयवस्तु ही कथानक है । जिसका अर्थ है घटना - विन्यास । अरस्तू ने त्रासदी में सबसे अधिक महत्व इसी तत्त्व को दिया है । त्रासदी कार्य की अनुकृति है और कथानक उसी कार्य - व्यापार को प्रस्तुत करता है । यह व्यक्ति - चरित्र का नहीं , घटनायुक्त जीवन के कार्य - व्यापार का , सुख - दुःखमय प्रसंगों का अंकन है । त्रासदी का प्रभाव कार्य - व्यापार पर ही निर्भर करता है । इसके अन्य सब तत्व भी कार्य - व्यापार के ही साधक हैं । चरित्र कार्य - व्यापार के माध्यम के रूप में ही आते हैं । चरित्रों के बिना त्रासदी की योजना हो सकती है , कार्य - व्यापार के बिना नहीं । त्रासदी - विवेचन में अरस्तू ने कार्य - व्यापार को प्रस्तुत करनेवाले तत्व कथानक पर सबसे अधिक बल दिया है । क्योंकि अरस्तु की मूल दृष्टि वस्तुपरक धी , वस्तुजगत तथा इसमें घटनेवाली घटनाओं के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही थी । दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि जिन त्रासदियों को सामने रखकर अरस्तू ने अपना काव्यशास्त्र रचा था वे भी कार्य - व्यापार प्रधान ही थीं । अरस्तू ने कथानक के तीन स्रोत या तीन प्रकार माने हैं - दतकथामूलक , कल्पनामूलक एवं इतिहासमूलक । साथ ही शिल्प की दृष्टि से उन्होंने कथानक के सरल एवं जटिल नामक दो भेद किये हैं और कथानक में अनुपातिक आवयविक संगठन के साथ - साथ एक निचित आयाम ( Magnitude ) भी आवश्यक माना है । इसी प्रकार उन्होंने कथानक में पूर्णता , एकान्वित संभाव्यता एवं आवश्यकता और सहज विकास नामक गुण आवश्यक कहे हैं । 

चरित्र – चित्रण

कार्य - व्यापार का निष्पादन चरित्रों के द्वारा होता है । इसलिए कथानक के बाद चरित्र ही उनकी दृष्टि में सबसे महत्वपूर्ण है । चरित्रांकन के लिए अरस्तू ने चार बातों का ध्यान रखने के लिए कहा है 

चरित्र भद्र होना चाहिए और उनके माध्यम से नैतिक उद्देश्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए

चरित्रों के अंकन में औचित्य या अन्विति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए । ( औचित्य या अन्विति का अर्थ है , किसी चरित्र में विसंगत या परस्पर विरोधी विशेषताएँ नहीं दिखाई जानी चाहिए । 

चरित्रों में स्वभाविकता तथा संभाव्यता होनी चाहिए , अर्थात् जीवन के यथार्थ से उनका मेल हो ।

चरित्रों में आए परिवर्तन उनकी मूल प्रकृति के अनुरूप तथा स्वाभाविक हों । अरस्तू ने चरित्र - चित्रण के आदर्श एवं यथार्थ के कलात्मक समन्वय पर जोर देते हुए कहा है कि चरित्र यथार्थक्त होता हुआ भी कलाकार की कल्पना एवं भावुकता से अधिक सुन्दर , नवीन , भव्य और मनमोहक बन उठे । अरस्तू के अनुसार त्रासदी के नायक को कुलीन , अत्यंत वैभवशाली , यशस्वी , स्मृद्ध तथा प्रभावशाली होना चाहिए ताकि उसका अपकर्ष वृहत्तर समाज को भी प्रभावित करे ।

विचार 

अरस्तू ने विचार के अंतर्गत केवल बुद्धितत्व ही नहीं बल्कि भावतत्व को भी समेटा है । इसके अंतर्गत वक्ता के बौद्धिक चिंतन के तथा उसके वक्तव्यों के प्रमाण स्वरूप तक भी जिसका साधान वाणी या भाषा है और विचारों को व्यक्त करने वाली भाषा भी विशिष्ट होनी चाहिए । भाव के स्तर पर यह करुणा , त्रास . क्रोध आदि की व्यंजना करता है और उनका मूल्यांकन भी करता है ।

पदविन्यास

अरस्तु के युग में वक्तृत्वकला इतनी महत्वपूर्ण मानी जाती थी कि इसका विकास एक शास्त्र के रूप में हो गया था । त्रासदी में जो विचार तत्व निहित होता था उसे अभिव्यक्ति करने का माध्यम भी भाषा ही है । अस्तू के अनुसार पदविन्यास का अर्थ या शब्दों द्वारा अर्थ की अभिव्यक्ति । जिस प्रकार त्रासदी के कथानक और चरित्र यथार्थ जगत से उठाए जाकर भी यथार्थ की अपेक्षा कुछ विशिष्ट होते हैं उसी प्रकार उसकी भाषा मूलतः प्रचलित भाषा होते हुए भी विशिष्ट होती है ताकि वह त्रासदी के विचारतत्व में निहित सत्य को अभिव्यक्त कर सके । वह भाषा अलंकृत होनी चाहिए , अर्थात् उसमें लय , सामंजस्य और गीत का समावेश हो । वह प्रसाद गुण संपन्न , प्रसन्न , समृद्ध और उदात्त होनी चाहिए ।

दृश्य -विधान

त्रासदी के कार्य -व्यवहार का संचालन यदि चरित्रों के माध्यम से होता है तो उनकी प्रस्तुति दृश्य - विधान के माध्यम से । दृश्य -विधान का अर्थ है रंगमंचीय साधनों का कुशल प्रयोग । पर अरस्तू ने रंगमंचीय साधों को अनिवार्य नहीं माना । 

गीत

अरस्तू गीत को त्रासदी का अनिवार्य अंग मानते हैं । ग्रीक नाटकों में गायकों का समूह होता था जो कोरस ' कहलाता था । ग्रीक नाटकों में वृंदगान ( समूह गान ) करने वाले इस ' कोरस ' की महत्वपूर्ण भूमिका होती थी । उनके अनुसार नाटक में वृदगान का महत्व किसी पात्र से कम नहीं है । वह नाटक में आनन्द तथा गंभीरता की सृष्टि करता है । और उसके प्रभाव की वृद्धि करता है । अरस्तू ने सभी विधाओं में त्रासदी को सर्वोच्च स्थान दिया है । कामदी , महाकाव्य आदि अन्य विधाओं पर बातचीत में भी उन्होंने त्रासदी को ही संदर्भ बनाया है । त्रासदी की भाँति कामदी भी एक नाट्यविधा है किन्तु वह जिस यथार्थ का चित्रण करती है वह सामान्य से नीचे दर्जे का होता है । अरस्तू ने त्रासदी को महाकाव्य से श्रेष्ठ माना । इसका एक आधार यह था कि महाकाव्य का फलक बहुत विस्तृत होता है और उसकी कथा में अनेक प्रासंगिक कथाएँ गुंथी रहती है । इसलिए उसकी कथा और प्रभाव में बिखराव आ जाता है । इसके विपरीत त्रासदी का कथापट संक्षिप्त तथा सुगठित होता है ।

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