हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन व नामकरण Time division and naming of Hindi literature

हिन्दी साहित्य का काल-विभाजन व नामकरण Time division and naming of Hindi literature
काल-विभाजन


साहित्य सृजन निरन्तर निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। किसी भी भाषा का साहित्य स्थिर न होकर निरन्तर परिवर्तनशील होता है। इसके परिवर्तनों का व साहित्य के समुचित अध्ययन के लिए उसे कालानुक्रम में विभक्त किया जा न आवश्यक है।  किसी भी साहित्य के इतिहास का काल - विभाजन करने की सर्वाधिक उपयुक्त प्रणाली उस साहित्य में प्रवाहित साहित्य धाराओं , विविध प्रवृत्तियोंके आधार पर उसे विभाजित करना है । युग की परिस्थितियों के अनुकूल साहित्य में विषय तथा शैलीगत प्रवृतियों परिवर्तित होता रहता है । हिन्दी में भी एक विशेष काल में समाज की विशेष परिस्थितियाँ एवं तत्सम्बन्धी विचारधाराएँ रही है और उन्हीं के अनुरुप साहित्यिक रचनाएँ  हुई है ।

 काल विभाजन के सम्बंध में आचार्य शुक्ल का मत है- " जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है तब यह निश्चित्त है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ - साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है । आदि से अन्त तक इन्ही चित्तवृत्तियोंकी परम्परा को परखते हुए साहित्य परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ही साहित्य का इतिहास कहलाता है ।“
 हिन्दी साहित्य के इतिहास की सामग्री ' भक्तमाल ' , ' चौराशी वैष्णवन की वार्ता और ' दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता ' आदि ग्रन्थों में मिलती है किंतु कालविभाजन और नामकरण की ओर कोई दृष्टि नहीं की गई थी । हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम लिखने का श्रेय एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी को  जाता है । इन्होंने फ्रेन्च भाषा में ' इस्तवार द ला लितरेतयूर ए एंदुई एन्दुस्तानी’ नामक ग्रन्थ में अंग्रेजी वर्ण क्रमानुसार हिन्दी और उर्दू भाषा के अनेक कवियों का परिचय दिया है  । परन्तु इन्होंने  कालविभाजन और नामकरण की ओर ध्यान नहीं दिया  । इस परम्परा का दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ  शिवसिंह सेंगर का ' शिवसिंह सरोज ' है । इसमें लगभग एक हजार हिन्दी भाषा - कवियों के जीवन चरित्र और इनकी कविताओं के उदाहरण संग्रहित किये है किंतु काल विभाजन का इसमें कोई संकेत नहीं है । इस सम्बन्ध में सबसे पहला प्रयास करने का श्रेय जार्ज ग्रियर्सन का है । पर जैसा कि उन्होंने स्वयं अपने ग्रन्थ की भूमिका में स्वीकार किया है , उनके सामने अनेक ऐसी कठिनाइयाँ थी जिससे वे काल - क्रम एवं काल विभाजन के निर्वाह में पूर्णत : सफल नहीं हो सके । उन्होंने लिखा है - “ सामग्री को यथा संभव कालक्रमानुसार प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । यह सर्वत्र सरल नहीं रहा है और कतिपय स्थलों पर तो यह असंभव सिद्ध हुआ है । इन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को निम्नलिखित ग्यारह शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया है । -

  • चारण – काल ( 1702-1300 ई . ) 
  • पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनर्जागरण 
  • जायसी की प्रेम कविता 
  •  ब्रज का कृष्ण - सम्प्रदाय , 
  • मुगल दरबार 
  • तुलसीदास 
  • रीति काव्य 
  • तुलसीदास के अन्य परवर्ती
  • अट्ठारहवीं शताब्दी 
  • कम्पनी के शासन में हिन्दुस्तान और 
  • महारानी व्हिक्टोरिया के शासन में हिन्दुस्तान

डॉ ग्रियर्सन के विभाजन में अनेक असंगतियाँ , न्यूनता एवं त्रुटियाँ होते हुए भी प्रथम प्रयास होने के कारण इसका अपना महत्त्व है । आगे चलकर मिश्र बन्धुओं ने अपने ' मिश्र बन्धु - विनोद ' ( 1913 ) में काल - विभाजन का नया प्रयास किया जो प्रत्येक दृष्टि से ग्रियर्सन के प्रयास से बहुत अधिक प्रौढ़ एवं विकसित कहा जा सकता है । इनका विभाजन इसप्रकार है-

  • आरम्भिक काल / पूर्वारम्भिक काल ( 600-1343 वि . )
  • उत्तरारम्भिक काल ( 1344-1444बि . ) 
  • माध्यमिक काल / पूर्व माध्यमिक काल ( 1445-1560 वि . )
  • प्रौढ़ माध्यमिक काल ( 1561-1580 वि . ) 
  • अलंकृत काल / पूर्वालकृत काल ( 1681-1790 वि )
  • उत्तरालंकृत काल ( 1791-1889 वि . ) 
  • परिवर्तन काल - ( 1890-1925 वि )
  • वर्तमान काल - ( 1926 वि . से अब तक )

 मिश्र बन्धुओ के पश्चात् आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ने सन् 1929 में " हिन्दी साहित्य का इतिहास ' में काल - विभाजन का नया प्रयास किया । इनके काल - विभाजन में अधिक सरलता , स्पष्टता एवं सुबोधता है । अपनी इसी विशेषता कारण वह आज तक सर्वमान्य एवं सर्वत्र प्रचलित है । उनका काल - विभाजन इसप्रकार है -
  • आदिकाल ( वीरगाथा काल ) संवत् 1050 से 1375
  • पूर्व मध्यकाल ( भक्तिकाल ) संवत् 1375 से 1700
  • उत्तर मध्यकाल ( रीतिकल ) संवत् 1700 ते 1900
  • आधुनिक काल ( गद्यकाल ) संवत् 1900 से अब तक ।
 आचार्य शुक्ल के बाद डॉ. रामकुमार वर्मा ने कालविभाजन किया जो कि  इस प्रकार है
  • सन्धिकाल ( 750-100 वि . )
  • चारण काल ( 1000-1375 वि . )
  • भक्तिकाल ( 1375-1700 वि . )
  • रीतिकाल  ( 1700-1900 वि . ) 
  • आधुनिक काल ( 1900 से अब तक )
डॉ . वर्मा के विभाजन के अंतिम तीन काल - विभाजन आचार्य शुक्लजी के ही विभाजन के अनुरूप है . केवल ' वीरगाथाकाल ' के स्थान पर ' चारणकाल ' एवं ' सन्धिकाल ' नाम देकर अपना नयापन स्थापित किया । इस परम्परा में बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया हुआ काल - विभाजन भी उल्लेखनीय है ।  उनका काल - विभाजन इसप्रकार है -

  • आदिकाल ( वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक )
  • पूर्व मध्ययुग ( भक्ति का युग , संवत् 1400 से संवत् 1700 तक )
  • उत्तर मध्ययुग ( रीति ग्रन्थों का युग , संवत् 1700 से , संवत् 1900 तक )
  • आधुनिक युग ( नवीन विकास का युग , संवत् 1900 से अब तक ) 

उपर्युक्त काल - विभाजन की परम्परा में आचार्य शुक्ल के बाद कुछ विद्वानों ने थोड़ा - बहुत परिवर्तन करके अपना काल - विभाजन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । परंतु शुक्ल के इतिहास लेखन का आधार ही अधिक वैज्ञानिक , तर्कसंगत और उपयुक्त प्रतीत होता है । डॉ . गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास ' में उसका अनुमोदन किया है । उनका काल - विभाजन इसप्रकार है –

  • प्रारम्भिक काल ( 1184-1350 ई . )
  • पूर्व मध्यकाल ( 1350-1600ई )
  • उत्तर मध्यकाल ( 1600-1857 ई . ) 
  • आधुनिक काल ( 1857 ई . अब तक )

 इस परम्परा में डॉ . नगेन्द्र का नाम भी उल्लेखनीय है । इन्होंने हिन्दी साहित्य का काल विभाजन तथा नामकरण इसप्रकार किया है –

  • आदिकाल 7वीं शती के मध्य से 14 वीं शती के मध्य तक 
  • भक्तिकाल 14 वीं शती के मध्य से 17 वीं शती के मध्य तक
  • रीतिकाल 17 वीं शती के मध्य से 19 वीं शती के मध्य तक 
  • आधुनिक काल - 19 वीं शती के मध्य से अब तक 
  • पुनर्जागरण काल ( भारतेन्दु काल ) सं . 1877-1900 ई .
  • जागरण - सुधार काल ( द्विवेदी काल ) सं . 1900-1918 ई .
  • छायावाद काल सं . 1918-1938 ई . 
  •  छायावादोत्तर काल 
  • प्रगति - प्रयोग काल - सं . 1938-1953ई . 
  • नवलेखन काल सं .1953 ई.से अब तक ।

 उपर्युक्त सभी विद्वानों के काल - विभाजन में आचार्य शुक्ल का काल - विभाजन ही सर्वसम्मत एवं उपर्युक्त माना गया है ।

ये भी देखें

हिन्दी साहित्य का नामकरण

 हिन्दी साहित्य के काल - विभाजन को लेकर विद्वानो में अधिक मतभेद नहीं है , केवल हिन्दी साहित्य आरम्भ को लेकर मतभेद है । उसमें भी मुख्यतः दो वर्ग है - एक वर्ग हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ सातवीं शताब्दी से मानता है , और दूसरा वर्ग दसर्वी शताब्दी से । वास्तव में सातवी शताब्दी से दसवी शताब्दी के कालखण्ड को हिन्दी साहित्य की पृष्ठभूमि के रुप में स्वीकार कर लिया जाय तो यह मतभेद भी समाप्त हो जाता है क्योंकि इस कालखण्ड की रचनाएँ अपभ्रंश में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है । हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरूप एवं साहित्य - धारा को समझना अति आवश्यक है । हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालखण्डों नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद है । मुख्यत : दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के आरम्भिक कालखण्ड ( आदिकाल ) और सत्रहवी शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड ( रीतिकाल ) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है ।

दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड का विभिन्न विद्वानों द्वारा किया गया नामकरण इसप्रकार है –


  • चारणकाल – ग्रियर्सन
  •  प्रारम्भिक काल - मिश्रबन्धु 
  • वीरगाथाकाल-आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
  • सिद्धसामंत काल- राहुल सांकृत्यायन
  •  बीजवपन काल - महावीरप्रसाद द्विवेदी
  • वीरकाल - विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 
  • आदिकाल - हजारीप्रसाद द्विवेदी
  •  संधिकाल एवं चारणकाल - डॉ . रामकुमार वर्मा 

चारणकाल 

ग्रियर्सन ने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ' चारणकाल ' किया , किंतु इस नामकरण का कोई ठोस प्रमाण वे प्रस्तुत नहीं कर सके है । उन्होंने चारणकाल 643ई.  से माना है जबकि 1000ई. तक चारण कवियों द्वारा लिखित कोई रचना उपलब्ध नही होती । अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है ।
 प्रारम्भिक काल : - मिश्रबन्धुओं ने 643ई.1387ई. तक के काल को ' प्रारम्भिक काल ' नाम से अभिहित किया है । यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नहीं है । यह एक सामान्य मंशा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है । अत : यह नाम भी तर्कसंगत नहीं है ।

वीरगाथाकाल

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में संवत् 1050 से लेकर 1375 तक की कालावधि को ' वीरगाथा काल ' नाम दिया है । अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है - " आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़ - दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है - धर्म , नीति  , वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है । इस अनिर्दिष्ट लोक - प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बंधती पाते  है । राजानित कवि और चारण जिस प्रकार रीति  आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे , उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे । यह प्रबन्ध परम्परा ' रासो ' के नाम से पाई जाती है . जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ' वीरगाधा काल ' कहा है । शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए जिन बारह ग्रन्थों को आधार बनाया ये ग्रन्थ है –

  • विजयपाल रासो 
  • पृथ्वीराज रासो
  • जयचन्द प्रकाश 
  • जयमयंक जसचन्द्रिका 
  • कीर्तिपताका 
  • कीर्तिलता
  • परमाल रासो 
  • हमीर रासो
  •  खुमाण रासो 
  •  खुसरो की पहेलियाँ 
  • बीसलदेव रासो 
  • विद्यापति की पदावली 

आचार्य शुक्ल ने जिन 12 ग्रन्थों को नामकरण का आधार माना है आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ' वीरगाथाकाल ' नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है । जैसे बीसलदेव रासो और खुमान रासो नये शोध परिणामों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं । हम्मीर रासो , जयचन्द्रप्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका नोटिस मात्र है । इसीप्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्ध प्रामाणिक मान  गया है । परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कहीं पता नहीं लगता और खुसरो की पहेलियाँ तथा विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नहीं है । इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीरकाव्य ही नहीं लिखे गये अपितु धार्मिक , शृन्गारिक और लौकिक साहित्य की भी रचनाएँ हुई है ।

 सिद्धसामंत काल

 राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ' सिद्ध सामन्त काल ' दिया है । इनके मतानुसार इस कालखण्ड़ के समाज जीवन पर सिद्धों का और राजनीति पर सामन्तों का एकाधिकार था । इस युग के कवियों ने अपनी रचनाओं में सामन्तों का यशोगान ही प्रमुख रूप से किया है । इस युग की अन्तर्बाह्य प्रवृत्तियों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वहाँ सिद्धों और सामन्तों का ही वर्चस्व था । इस नामकरण से तत्कालीन सामन्ती वातावरण तो पता चलता है परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का उद्घाटन नहीं हो पाता । इस नामकरण से नाथ पंथी और  योगी कवियों तथा खुसरो आदि की काव्य प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो पाता ।
बीजवपन काल : - आ . महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ' बीजवपन काल ' किया है । परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है । भाषा की दृष्टि से यह काल भले ही बीजवपन का काल हो , परंतु साहित्यिक प्रवृत्ति की दृष्टि से स्थिति ऐसी नहीं थी । इस नाम से यह अभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी , जबकि ऐसा नहीं है । साहित्य उस युग में भी प्रौढता को प्राप्त था अतः यह नाम उचित नहीं है ।

वीरकाल

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मित्र जी ने इस काल का नाम ' वीरकाल ' किया है । यह नाम रामचन्द्र शुक्ल द्वारा दिये गये नाम ' वीर गाथा काल ' का रुपान्तर मात्र है , किसी नवीन तथ्य को प्रस्तुत करने वाला नहीं है । अत : यह नामकरण भी समीचीन नहीं है ।
सन्धि एवं चारणकाल : - डॉ . रामकुमार वर्मा ने आदिकाल को दो खण्डों में विभाजित कर ' सन्धिकाल ' एवं ' चारणकाल ' नाम दिया है । सन्धिकाल भाषा की ओर संकेत करता है और चारणकाल से एक वर्ग विशेष का बोध होता है । इस नामकरण में भी यह त्रुटि है कि इसमें किसी साहित्यिक प्रवृत्ति को आधार नहीं बनाया गया । किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं । अत : यह नामकरण भी ठीक नहीं है ।

आदिकाल

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया । नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता । इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ' आदिकाल ' रखा । अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए कहते हैं - वस्तुतः हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन परम्पराविनिमुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है । यह ठीक नहीं है । यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी , रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है । "
 इस प्रकार वास्तव में ' आदिकाल प्रारम्भ का न होकर परम्परा के विकास का सूचक है । इस नाम से सातवी - आठवीं शताब्दी के बौद्ध , सिद्ध , नाथयोगियों के साथ वीर गाथा काव्यों और अब्दुर्रहमान , विद्यापति तथा खुसरो आदि को एक सूत्रता में समेटा जा सकता है और फुटकर कवियों के नाम गिनाने से बचा जा सकता है । आदिकाल नाम में हिन्दी काव्यरूपों एवं भाषा के अंकुरित होने का भाव भी आ जाता है । अत : यही नाम उपयुक्त  है । अधिकांश विद्वानों द्वारा भी ' आदिकाल ' नाम ही मान्य  है ।

चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड का नामकरण 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  ने संवत 1375 से 1700 तक के कालखण्ड को पूर्वमध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है । इस युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए इस कालावधि का नामकरण ' भक्तिकाल ' किया है । इसे परवर्ती सभी विद्वानों स्वीकार किया है और आज भी ' भक्तिकाल ' नामकरण सर्वमान्य है ।
सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड ( रीतिकाल ) के नामकरण विषयक मतभेद
शुक्ल ने संवत1700-1900 तक के समय को उत्तर मध्यकाल नाम दिया है । इस युग के साहित्य में रीति ( लक्षण ) ग्रन्थों के लेखन की परम्परा को देखते हुए इसे ' रीतिकाल ' कहना तर्कसंगत माना है । इस काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है

  • अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु
  •  रीतिकाल -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 
  • कलाकाल - रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ' 
  • श्रृंगार काल - पं . विश्वनाथ प्रसाद मिश्र 

अलंकृतकाल

 मित्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण ' अलंकृत काल ' करते हुए कहा है कि - " रीतिकालीन कवियो " ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है , उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं । इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है । इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की । महाराजा जसवंतसिंह का ' भाषा भूषण ' , मतिराम का ' ललित ललाम ' , केशव की ' कविप्रिया ' , ' रसिकप्रिया ' तथा सूरति मिश्र की अलंकार माला ' आदि ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । परंतु इस काल को ' अलंकृतकाल ' नाम देना उचित नहीं है क्योंकि अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है । यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है । दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है । इससे कविता के अंतरंग पक्ष भाव एवं रस की अवहेलना होती है तथा बिहारी और मतिराम जैसे रससिद्ध कवि , जिनकी कविता में भाव की प्रधानता है , उनकी कविता के साथ न्याय नहीं हो पाता । इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृन्गार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है ।

कलाकाल

 रमाशंकर शुक्ल ' रसाल ' ने इस काल को ' कलाकाल ' नाम दिया है । उनका कहना है कि ' ' मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था । इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में काल के काल का प्रतीक बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई । इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया । इनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका । अत : एवं यह कलाकाल है । " कलाकाल नाम से भी वस्तुत : कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है । कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है । साथ ही इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना की अवमानना हो जाती है ।

श्रृंगार काल

पं . विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने इस काल को ' श्रृंगार काल ' कहना अधिक उपयुक्त समझा है । उनके द्वारा दिया गया यह नामकरण इस काल में प्रयुक्त श्रृंन्गार रस की प्रधानता को लक्ष्य कर दिया गया है । परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त वीर रस की कविता भी लिखी है । साथ ही भक्तिपरक , नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है । रीतिकालीन कवियों का मूल स्वर श्रृंगार कभी नहीं रहा । उनका उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था । आश्रयदाता विलासी वृत्ति के थे । श्रृंगार में उनकी रूचि को देखते हुए इन्होंने श्रृंगारपरक कविताएँ लिखी । यद्यपि इस काल में श्रृंगार रस की प्रधानता है , परंतु यह स्वतंत्र न होकर सर्वत्र रीति पर आश्रित है । अत : यह नामकरण उचित नहीं है ।

रीतिकाल

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस युग का नामकरण ' रीतिकाल ' किया है । इनका मत है कि- " इन रीतिग्रन्थो " के कर्ता भावुक , सहृदय और निपुण कवि थे । उनका उद्देश्य कविता करना था , न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना । अत : उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों ( विशेषत : श्रृंगार रस ) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए । " शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीतिग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है । इस नाम को सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है ।हजारी प्रसाद द्विवेदी , डॉ . नगेन्द्र आदि विद्वानों ने भी शुक्लजी द्वारा दिये गये इस नाम को स्वीकार किया है । डॉ . भगीरथ मिश्र जी ने इस युग के ' रीतिकाल ' नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए कहा है - " कलाकाल कहने से कवियों की रसिकता की उपेक्षा होती है । श्रृंगार काल कहने से वीर रस और राज प्रशंसा की , किंतु रीतिकाल कहने से प्रायः कोई भी महत्वपूर्ण वस्तुगत विशेषता उपेक्षित नहीं होती और प्रमुख प्रवृत्ति सामने आ जाती है । यह युग रीति - पद्धति का युग था , यह धारणा वास्तविक रूप से सही है । " इसप्रकार ' रीतिकाल ' नामकरण अधिक तर्कसंगत एवम् वैज्ञानिक प्रतीत होता है ।

19वीं शताब्दी से अबतक कालखण्ड़ का नामकरण 

संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ' गद्यकाल ' नाम दिया है ।आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उदभव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है । श्यामसुन्दर दास इसे ' नवीन विकास का युग ' कहते है । गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है । यद्यपि इस काल में कविता क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है , किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है , वैसा कविता का नहीं हो सका है । ' आधुनिक काल ' को शुक्ल ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान , द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है । अधिकांश आधुनिक विद्वान इन्हें ' भारतेन्दु युग ' अथवा ' पुनर्जागरण काल ' , ' द्विवेदी युग ' अथवा ' जागरण - सुधार काल ' , ' छायावादी युग ' तथा ' छायावादोत्तर युग ' में प्रगति , प्रयोग काल , नवलेखन काल मानते है । द्विवेदी युग तक तो आधुनिक युग की धारा सीधी रही किंतु छायावाद के जन्म के साथ ही उसमें नाना वादों और प्रवृत्तियों की बाढ़ सी आ गई । आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता ।
आज साहित्य अपनी गति से निरन्तर गतिमान है तथा नई ऊंचाइयों को छू रहा है।
...............जय हिंद!

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