हिन्दी साहित्य का इतिहास: रीतिकाल History of Hindi literature: Reetikal

रीतिकाल 

Reetikal 

रीतिकाल


हिन्दी साहित्य में रीतिकाल

हिन्दी साहित्य में उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल के नाम अभिहित किया गया है। रीतिकाल में श्रृंगार परक रचनाएँ अधिक हुई है इसका कारण तत्कालीन समय का परिवेश, राजा, नवाब और सामन्त लोगों का वर्चस्व था वहीं कवि अपनी जीविका का साधन काव्य रचनाओं को मानते थे और आश्रयदाता की रूचि के अनुसार उनके मनोरंजन के साधन के रूप में काव्य रचना की जाती थी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संवत् 1700-1900 (1643-1843 ई.)तक के काल को 'रीतिकाल' नाम से अभिहित किया है। रीतिकाल में 'रीति' शब्द का प्रयोग 'काव्यांग निरुपण' के अर्थ में हुआ है। ऐसे ग्रन्थ जिनमें काव्यांगो के लक्षण एवं उदाहरण दिये जाते हैं 'रीतिग्रन्थ' कहलाते हैं। रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने रीति निरुपण करते हुए लक्षण ग्रन्थ लिखे, अतः इस काल की प्रधान प्रवृत्ति रीति निरुपण को माना जा सकता है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के कालों के नामकरण प्रधान प्रवृत्ति के आधार पर किए हैं, अत : रीति की प्रधानता के कारण इस काल का नामकरण उन्होंने रीतिकाल किया है। रीति से उनका तात्पर्य पध्दति, शैली और काव्यांग निरूपण से है। हिन्दी साहित्य में रीति निरूपण प्रवृति भक्ति काल मे ही प्रारंभ हो गयी थी। सुरदास की साहित्य लहरी, नन्ददास की रस मंजरी में यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। आचार्य शुक्ल केशवदास को सभी काव्यांगों का निरूपण शास्त्रीय पद्धति से करने का श्रेय देते हैं परन्तु हिन्दी रीतिग्रंथों की अखण्ड परम्परा चिंतामणि त्रिपाठी से आरम्भ होती है। अतः रीतिकाल का आरम्भ इन्ही से माना जाता है। रीतिकाल का समय मुगलों के वैभव, पराभव या पतन एवं अंग्रेजों के उदय का काल है। सामन्तवादी प्रवृत्ति का बोलबाला इस काल में था और सामन्तवाद के दोष सर्वत्र व्याप्त थे। एक ओर विलासी शासकों, सामन्तों, अधिकारियों एवं मनसबदारों का बोलबाला था तो दूसरे और गरीब जनता पिस रही थी। विलासिता की बढती प्रवृत्ति के कारण नारी को सम्पत्ति माना जाने लगा था। विलास के उपकरणों का संग्रह करना एवं सुरा-सुन्दरी में लीन रहना उच्च वर्ग के जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया था। मध्य-वर्ग भी उन्हीं के अनुकरण में लीन रहता था। अभिजात वर्ग के घर सुन्दरी नारियों एवं रक्षिताओं से भरे रहते थे। कवि अपने समय का सजग चितेरा होता है। रीतिकालिन कवियों ने भी अपने समय के विलासी राजाओं,सामन्तों की विलासवृत्ति को तुष्ट करने के लिए श्रृंगारी रचनाएँ लिखीं। रीतिकाल के अधिकतर कवि राज्याश्रय में रहते थे अत : इन कवियों की सम्पूर्ण अन्तश्चेतना सुरा-सुन्दरी और सुराही तक ही सीमित रह गयी । उसने अपनी योग्यता का विस्तार नारी के अंग चित्रण में केन्द्रित कर दिया। डॉ . नगेन्द्र के अनुसार- " इस साहित्य का साँचा चाहे जैसा भी रहा हो उसमें ढली श्रृंगारिकता ही " डॉ . भगीरथ मिश्र ने रीतिकाल को काव्यकारों का यौवन तथा बसंत कहा है । इसके अतिरिक्त रीतिकाल में कुछ ऐसे भी राजाश्रित कवि थे जो अपने आश्रयदाताओं के दान , पराक्रम आदि का आलंकारिक वर्णन करते हुए धन की प्राप्ति करते थे। धार्मिक संस्कारों के कारण भक्ति परक रचनाएँ करके कुछ कवि आत्मलाभ भी करते थे। तो कुछ कवि जीवन के कटु-तिक्त वैयक्तिक अनुभवों को नीति का जामा पहनाकर नीति कथनों के रूप में भी व्यक्त किया है।

नामकरण एवं काल-निर्धारण

हिन्दी साहित्य के उत्तर मध्यकाल का नामकरण व काल-निर्धारण अलग-अलग विद्वानों ने अपने अपने तरीके से किया है। जॉर्ज ग्रियर्सन अपनी पुस्तक ‘द मॉर्डन वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ में रिटीकाव्य काल , मिश्रबन्धु अपनी पुस्तक ‘मिश्रबन्धु विनोद’ में अलंकृत काल(1681-1889 वि.), आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपनी पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में रीतिकाल(1700-1900 वि.), पं.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र श्रृंगार काल , डॉ. रमाशंकर रसाल कला काल जैसे नाम से अभिहित करते हैं। इनमें से सर्वाधिक प्रचलित व स्वीकार्य नाम रीतिकाल व समय 1700-1900वि.(1650-1850ई.) है। रीतिकाल नाम इस कालखण्ड की प्रवृति का निरूपण करता है। रीतिकाल नाम को स्वीकार करने वाले विद्वान हैं- नगेन्द्र ,  हजारीप्रसाद द्विवेदी , डॉ.रामकुमार वर्मा , श्यामसुंदर दास आदि।

रीतिकाल की सामान्य परिस्थितियां

किसी भी साहित्य का निर्माण युगीन परिस्थितियों से प्रभावित होता है। किसी युग की परिस्थितियों का सही आकलन करके ही हम उस युग की कविता के सही अर्थ तक पहुंच सकते हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की संचित चित्तवृत्तियों का प्रतिबिंब होता है।“ रीतिकालीन साहित्य को भी तात्कालिक राजनीतिक जीवन कि भौतिकता वादी प्रवृतियों ने प्रभावित किया । रीतिकालीन साहित्य सूक्ष्म के खिलाफ स्थूल के विद्रोह का साहित्य है। इस युग में साहित्य सूरा-सुंदरी व विलास की सामग्री बन गया। जिसके लिए निम्न परिस्थितियां उत्तरदायी हैं-

सामाजिक परिस्थितियां

इस काल में सामन्तवादी प्रवृत्ति का बोलबाला था और सामन्तवाद के दोष सर्वत्र व्याप्त थे। रीतिकाल की विलासिता से सामाजिक जीवन सारहीन हो गया।गरीब जनता विलासी शासकों सामन्तो, अधिकारियों व मनसबदारों के बीच पिस रही थी। नारी को सम्पत्ति मन जाने लगा। उच्च वर्ग के जीवन का लक्ष्य विलास की सामग्री जुटाना व सूरा-सुंदरी में लीन रहना भर हो गया। मध्यम वर्ग भी इन्ही सब को जुटाने में जुट गया। अभिजात वर्ग के हरम सुंदर नारियों व रक्षिताओं से भरे रहते थे फिर भी वेश्यागमन ही जीवन का परम सुख माना जाने लगा। विवाहित स्त्रियां भी पति से प्रेम न पाने के कारण इधर-उधर सम्बन्ध बनाने लगी। समाज का नैतिक अंकुश स्थिल हो गया एवं सर्वत्र विलासिता की प्रधानता व्याप्त हो गयी। दूसरी तरफ जन सामान्य को न तो कल की परख थी व न ही कलाकार को पुरस्कृत करने की क्षमता ही । इसी कारण से रीतिकाल का साहित्य लोकजीवन से नही जुड़ सका।

राजनैतिक परिस्थितियां

रीतिकाल मुगलों के वैभव व पराभव का काल था। अंग्रेजों का उदय हो रहा था। 1707ई. में औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसका पुत्र शाहआलम गद्दी पर बैठा। 1712ई. में मुगल साम्राज्य का पतन होने प्रारंभ हो गया। छोटे-छोटे जागीरदारों ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया। केंद्रीय सत्ता की पकड़ कमजोर हो गयी, विलासवृति में बढ़ोतरी हुई। अहमदशाह अब्दाली व नादिरशाह के आक्रमणों ने केंद्रीय सत्ता को ओर कमजोर कर दिया। अंग्रेज जो व्यापारी बनकर आये थे इन्होंने ने इन स्थितियों का पूरा लाभ उठाया व धीरे-धीरे शक्ति संचय कर लगभग सम्पूर्ण भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। वास्तविक सत्ता अंग्रेजों के हाथ आ गयी मुगल सम्राट नाम मात्र के शासक रह गए। अवध व राजपूताने के शासकों का भी विलासवृति के चलते अंत होने लगा। शासक वर्ग ने विलास को ही सब कुछ स्वीकार कर लिया यही कारण है कि भक्ति भावना की प्रवृत्ति ने श्रृंगार का रूप धारण कर लिया। रीतिकाल के कवि भी दरबारी जीवन से प्रभावित हुए तथा श्रृंगारिक रचनाएं करने लगे।

धार्मिक परिस्थितियां

रीतिकाल का धार्मिक जीवन अकबर व उसके पूर्ववर्ती शासकों के विपरीत था। औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीतियों से धर्म के स्वरूप में परिवर्तन आया। सामाजिक व नैतिक पतन की वजह से धर्म अब विलास व वैभव में बदल गया । जन सामान्य की आस्था के भगवान राधा और कृष्ण साहित्य के नायक नायिका हो गए, मर्यादापुरुषोत्तम राम की भक्ति में भी मधुरोपासना ने प्रवेश पा लिया। मुक्ति, मोक्ष व स्वर्ग की परिभाषाएं बदल गयी। आचार्य शुक्ल के अनुसार “हिंदी में श्रंगार की काव्यधारा भक्ति धारा से ही फूटी। अतः स्वकीया प्रेम के लिए उसमें अवकाश न रहा । प्रेम के विकास व वैविध्य के लिए परकीया प्रेम ही उपयुक्त था, फिर दरबारों में फ़ारसी प्रेम पद्दति के निरूपण में भी परकीया प्रेम में आवेग और तीव्रता का प्रदर्शन किया जाता था।”

सांस्कृतिक परिस्थितियां

रीतिकालीन कविता दरबारी संस्कृति से उपजी । इस काल मे संगीत, स्थापत्य व चित्रकला का विशिष्ट स्थान रहा। इस युग की युग की चित्रकला राजसी ठाटबाट व जनजीवन दोनों का चित्रण करती दिखाई पड़ती है। भारतीय संगीत भी फ़ारसी प्रभाव से संपृक्त होकर विलासवृति से युक्त हो गया। स्थापत्य कला की दृष्टि से ताजमहल व लालकिले का दीवाने खास उल्लेखनीय है। इस काल में कवियों व कलाकारों को खूब राज्याश्रय प्राप्त हुआ, जिससे साहित्य और कला का बहुमुखी विकास हुआ।

रीतिकालीन धाराएं

रीतिकाल का वर्गीकरण रीति को आधार बनाकर इस प्रकार किया गया-

रीतिमुक्त

इस धारा के कवि रीति के बंधन से पूर्णतः मुक्त हैं। अर्थात इन्होंने काव्यांग निरूपण के ग्रन्थों की रचना न करके हृदय की स्वतंत्र वृतियों के आधार पर काव्य रचना की। इन कवियों में प्रमुख हैं-
         घनानन्द
          बोधा
         आलम
         ठाकुर

रीतिसिद्ध

इस वर्ग में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थ नही लिखे किन्तु रीति की भली-भांति जानकारी रखते थे। इन्होंने अपनी रीति विषयक जानकारी का प्रयोग अपने ग्रन्थों में पूरा-पूरा किया है। इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं-बिहारी

रीतिबद्ध

रीतिबद्ध धारा में वे कवि आते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना की। लक्षण ग्रन्थ लिखने वाले इन कवियों में प्रमुख हैं-
                                       
                                     चिन्तामणि
मतिराम
 देव
जसवंत सिंह
कुलपति मिश्र
मण्डन
सुरति मिश्र
भिखारी दास
दुल्ह 
रघुनाथ
ग्वाल
प्रतापसिंह


ये भी देखें


रीतिकाल के प्रमुख रचनाकार एवं रचनाएं

केशवदास(1560-1617ई.)

आचार्य केशवदास समय विभाग की दृष्टि से भक्ति काल मे आते हैं परंतु प्रवृत्ति की दृष्टि से रीतिकाल के अंतर्गत आते हैं। ये अलंकारवादी आचार्य हैं ये अलंकार से हीन कविता को सुंदर नही मानते। इन्हें कठिन काव्य का प्रेत कहा जाता है।

प्रमुख कृतियां


कविप्रिया (रितिपरक ग्रन्थ)
रसिकप्रिया  (रितिपरक ग्रन्थ)
रामचंद्रिका
वीरसिंहचरित
विज्ञानगीता
रतनबावनी
 जहांगीर जसचन्द्रिका
नख-शिख
छंदमाला (रितिपरक ग्रन्थ)

चंचल न हूजै नाथ, अंचल न खैंची हाथ ,
सोवै नेक सारिकाऊ, सुकतौ सोवायो जू ।
मंद करौ दीप दुति चन्द्रमुख देखियत ,
दारिकै दुराय आऊँ द्वार तौ दिखायो जू ।
मृगज मराल बाल बाहिरै बिडारि देउं,
भायो तुम्हैं केशव सो मोहूँमन भायो जू ।
छल के निवास ऐसे वचन विलास सुनि,
सौंगुनो सुरत हू तें स्याम सुख पुओ जू ।

मतिराम(1604-1701ई.)

ये चिन्तामणि व भूषण के भाई हैं। इनके दोहों को लोग भ्रमवश बिहारी का समझ बैठते हैं क्योंकि इनके दोहे बिहारी सतसई के दोहों से किसी भी प्रकार कम नही हैं।

प्रमुख कृतियां


फुलमन्जरी
ललित ललाम
सतसई
अलंकार पंचाशिका
वृत्तकोमुदि
रसराज
लक्षणश्रृंगार
साहित्य सार

केलि की राति अघाने नहीँ
 दिन ही मे लला पुनि घात लगाई ।
प्यास लगी कोउ पानी दै जाउ
 योँ भीतर बैठि कै बैन सुनाई ।
जेठी पठाई गई दुलही हँसि
 हेरि हरै मतिराम बुलाई ।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्हो
 सुगेह की देहरी पै धरि आई ।

भूषण(1613-1715ई.)

भूषण शिवाजी महाराज व क्षत्रसाल बुंदेला के आश्रय में रहने वाले ऐसे रीतिकालीन कवि हैं जिन्होंने वीररस की रचनाएं की। चित्रकूट के राजा रुद्रसिंह सोलंकी ने इन्हें भूषण की उपाधि प्रदान की । इनके विषय मे कहा जाता है कि इनकी पालकी में स्वयं महाराज छत्रसाल ने कन्धा लगाया था।

प्रमुख कृतियां


शिवराज भूषण(अलंकार ग्रन्थ)
शिवाबावनी
छत्रसाल दशक
भूषण उल्लास
दूषण उल्लास
भूषण हजारा

दाढ़ी के रखैयन की दाढ़ी सी रहत छाती

बाढ़ी मरजाद जसहद्द हिंदुवाने की
कढ़ी गईं रैयत के मन की कसक सब
मिटि गईं ठसक तमाम तुकराने की
भूषण भनत दिल्लीपति दिल धक धक
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की
मोटी भई चंडी,बिन चोटी के चबाये सीस
खोटी भई अकल चकत्ता के घराने की

बिहारी(1595-1663ई.)

बिहारी का एक मात्र ग्रन्थ बिहारी सतसई है जिसमें कुल 713 दोहे हैं। कहा जाता राजा जयसिंह द्वारा इन्हें प्रत्येक दोहे के बदले एक स्वर्ण मुद्रा दी जाती थी।
बिहारी सतसई की प्रशंसा में किसी ने कहा है:

सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें घाव करे गम्भीर।।

बिहारी सतसई के कुछ दोहे

ऐंचति-सी चितवनि चितै भई ओट अलसाइ।
फिर उझकनि कौं मृगनयनि दृगनि लगनिया लाइ॥


सटपटाति-सी ससिमुखी मुख घूँघट-पटु ढाँकि।

पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखौ झाँकि॥



लागत कुटिल कटाच्छ सर क्यौं न होहिं बेहाल।

कढ़त जि हियहिं दुसाल करि तऊ रहत नटसाल॥



नैन-तुरंगम अलग-छबि-छरी लगी जिहिं आइ।

तिहिं चढ़ि मन चंचल भयौ मति दीनी बिसराइ॥



नीचीयै नीची निपट दीठि कुही लौं दौरि।

उठि ऊँचै नीचै दियौ मन-कुलंग झपिझोरि॥



तिय कित कमनैती पढ़ी बिनु जिहि भौंह-कमान।

चल चित-बेझैं चुकति नहिं बंक बिलोकनि बान॥



दूज्यौ खरै समीप कौ लेत मानि मन मोदु।

होत दुहुन के दृगनु हीं बतरसु हँसी-विनोदु॥



छुटै न लाज न लालचौ प्यौ लखि नैहर-गेह।

सटपटात लोचन खरे भरे सकोच सनेह॥



करे चाह-सौ चुटकि कै खरै उड़ौहैं मैन।

लाज नवाएँ तरफरत करत खूँद-सी नैन॥



नाबक-सर-से लाइकै तिलकु तरुनि इत ताँकि।

पावक-झर-सी झमकिकै गई झरोखा झाँकि॥

देव(1673-1767ई.)

इनका पूरा नाम देवदत्त था तथा ये इटावा के रहने वाले थे।

प्रमुख कृतियां

भाव विलास
अष्टयाम
भवानी विलास
कुशल विलास
प्रेम चन्द्रिका
जाती विलास
रस विलास
राग रत्नाकर
देवशतक
देवचरित्र
शब्द रसायन
सूजन विनोद
सुख सागर तरंग
देव माया प्रपंच
प्रेम तरंग

गोरी गरबीली उठी ऊँघत चकात गात ,

देव कवि नीलपट लपटी कपट सी ।
भानु की किरन उदैसान कँदरा ते कढ़ी,
शोभा छवि कीन्ही तम तोम पै दपट सी ।
सोने की शलाका श्याम पेटी ते लपेटी कढ़ि,
पन्ना ते निकारी पुखराज के झपट सी ।
नील घन तड़ित सुभाय धूम धुँधरित ,
धायकर धँसी दावा पावक लपट सी ।


घनानन्द(1689-1739ई.)

ये मुहम्मद शाह रँगीले के दरबार मे मिरमुंशी थे। ये सुजान नामक वेश्या से प्रेम करते थे।

प्रमुख कृतियां


सुजानसागर
विरहलीला
लोकसार
रसकेलिवल्ली
कृपाकाण्ड

झलकै अति सुन्दर आनन गौर,

 छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा,
 उर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैं,
 कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति की,
 परिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।

अन्य रीतिकालीन कवियों में प्रताप सिंह, मतिराम, चिंतामणी, भिखारीदास, रघुनाथ, बेनी, गंग, टीकाराम, ग्वाल, चन्द्रशेखर बाजपेई, हरनाम, कुलपति मिश्र, नेवाज, सुरति मिश्र, कवीन्द्र उदयनाथ, ऋषिनाथ, रतन कवि, बेनी बन्दीजन, बेनी प्रवीन, ब्रह्मदत्त, ठाकुर बुन्देलखण्डी, बोधा, गुमान मिश्र, महाराज जसवन्त सिंह, भगवन्त राय खीची, भूपति, रसनिधि, महाराज विश्वनाथ, द्विजदेव (महाराज मानसिंह) आदि प्रमुख हैं।

रीतिकाल की मुख्य प्रवृतियां


श्रृंगारिकता

श्रृंगारिकता इस काव्यधारा की ही नहीं , इस काल के साहित्य की भी सर्वाधिक मुखर प्रवृत्ति रही है । इस काल के कवियों में मौलिकता का अभाव भले ही रहा हो पर श्रृंगार रस के विभिन्न अवयवों- विभाव , अनुभाव , संचारी , इत्यादि के वर्णन , नायिकादि भेदोपभेदों , उनकी सूक्ष्म श्रृंगारिक मनःस्थितियों के उद्घाटन ऋतु आदि के वर्णनों में कवियों ने जितनी सरस और मार्मिक ऊक्तियाँ प्रस्तुत की हैं संस्कृत , प्राकृत और अपभ्रंश हजारों वर्षों के साहित्य से एकत्र की जाये तो भी इनकी तुलना में कम पड़ेगी । केवल मात्रा में ही सरसता में भी यह साहित्य अद्भूत है ।  इस धारा के कवियों ने श्रृंगार के संयोग और वियोग - दोनों ही पक्षों का पूरे मनोवेग से चित्रण किया है । प्रेम का मूल्याधार आलम्बन सौन्दर्य मानने के कारण , इन्होंने सौन्दर्य के चित्रण में विशेष रुचि आयी है ।

 सौन्दर्य चित्रण

रीतिबध्द श्रृंगारिक काव्य के मुख्य आलम्बन नायक - नायिका रहे हैं । इन दोनों में नायिका की अंग - ज्योति की ओर कवियों की दृष्टि अधिक रही है । नख - शिख वर्णन के सारे प्रसंग इसके प्रमाण है लेकिन हाव अनुभावादि के चित्रणों में यह रूप - सौन्दर्य अधिक मार्मिक होकर सामने आया है । भिखारीदास का एक सौन्दर्य चित्र दृष्टव्य है
पंकज से पायन में गूजरी जरायन की

 घाघरे को घेर दीठि घेरि घेरि रखियाँ ।
' दास ' मनमोहिन मति के बनाय बनि कंठमाल ,
 कंधुकी हवेल हार परिवयाँ ।।
भाग भरी भागिनी सोहाग भरी सारी
सूही माँग भरी मोती अनुराग भरी अखियाँ ।।

अलंकारिकता

 चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति रीतिकाल की सामान्य प्रवृत्ति रही है । चमत्कार का अर्थ है- अलंकार प्रधान होना । तत्कालीन रीतिबध्द कवि अलंकारों पर अधिक ध्यान देता थे। अलंकारों में भी ये कवि अनुप्रास , यमक पर विशेष बल देते थे , क्योंकि अनुमास के प्रयोग से मुक्तक की भाषा नाद उत्पन्न करने में समर्थ होती थी और काव्य में भी एक मधुरता आ जाती है । आश्रयदाता भी कविता का मर्मज्ञ नहीं होता था । उसे शब्दों के चमत्कार और उसकी गेयता से ही अधिक मतलब होता था । कभी - कभी इन मुक्तकों को अतिशयोक्ति और उपमा अलंकारों से भी सजाया जाता था । किन्तु यह अतिशयोक्त्ति कभी - कभी खिलवाड़ की सीमा तक पहुँच जाती थी । रीतिबध्द कवि संस्कृत के अलंकार शास्त्र के रूढीगत उपमानों को लेकर उनका ही पोषण करते रहे । इस सन्दर्भ में इन्होंने किसी नवीन मौलिक उद्भावना से काम नहीं लिया , परिणामतः उनके नखशिख वर्णन रुढिबध्द और अवैयक्तिक ही बने रहे । रूप सादृश्य मूलक अप्रस्तुत विधान की अपेक्षा धर्म - सादृश्य विधान सुन्दरतम होता है । रीतिबध्द कवियों में इसप्रकार के अप्रस्तुत विधान की कमी है ।

नारी चित्रण

नारी के प्रति रीतिकालीन कवियों का दृष्टिकोण भोगवादी रहा है । चाहे रीतिबध्द कवि देव , मतिराम , केशव हो चाहे रीतिसिध्द कवि बिहारी हो अथवा रीतिमुक्त कवि घनानन्द , बोधा या आलम हो , सभी की दृष्टि नारी के प्रति भोगवादी रही है । श्रृंगार भाव की इतनी बेकदरी और नारी के प्रति इतनी गिरी हुयी दृष्टि हिन्दी साहित्य में कभी नहीं प्रकट हुयी । इसका मुख्य कारण यह है कि मुगल शासन की निरंकुश सत्ता के सन्मुख देशी राजवाडों के नरेशों का तेज आहत हो चुका था । मुगल दरबार के प्रचुर विलास का अनुकरण करना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था , मानो यह एक मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति थी । राजाश्रित कवि नारी के कूच - कटाक्ष के महीन से महीन विलासात्मक रंगीले और भड़कीले चित्र उतारकर अपने स्वामी के गहरे मानसिक विषाद को दूर करने में प्रयत्नशील थे । उनके सामने नारी का एक ही रुप था और वह था विलासिनी प्रेमिका का । अपने दुःखों और पराभवों को भूलने के लिए इन लोगों ने नारी की मधुर चंचल छाया में बैठना ही उचित समझा । रीतिबध्द कवि दरबारी बनकर जन समाज से कट गये थे । रीतिकालीन कविता इसीलिए समाज के प्रति उपेक्षा पूर्ण दृष्टिकोन रखती है । उसके आश्रयदताओं के लिए नारी का सम्बल एक विलास स्थल बन गया था । अपने एकांगी दृष्टिकोन के कारण नारी जीवन के सामाजिक पक्ष , उसके श्रध्दाश्रय रुप और मातृ शक्ति को रीति कवि देख न सका । यहाँ तक कि आराध्य देवी के भी शारीरिक लावण्य पर रिझता रहा । इनके नारी चित्रण में वात्सल्य भावना कहीं पर भी नहीं दिखती । ऐसा लगता है कि मानो वासना ही उस नारी के जीवन का खाना पीना , ओढना - बिछौना सब कुछ हो । नारी रीतिबध्द कवियों के लिए विलास का एक उपकरण मात्र है । देव ने कहा है
" कौन गणै पुर वन नगर कामिनी एकै रीति ।

देखतहरै विवेक को चित्त हरै करि प्रीति ।


 प्रकृति  चित्रण

रीतिकाल में प्रकृति का आश्रय या स्वतंत्र रूप में कम ही चित्रण हुआ है । रीतिबध्द कवि दरबारी कवि था , उसके पास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में विचरने का अवकाश भी कम था अतः उसके काव्य में वाल्मीकि , कालिदास का सा प्रकृति का ह्र्दयग्राही रूप नहीं मिलता । प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण भी परम्परा मुक्त है । प्रकृति का चित्रण नायक और नायिका की मानसिक दशा के अनुकूल ही किया गया है । संयोग में उसका मनोमुग्धकारी उत्फुल्ल रूप है और वियोग में विदग्धकारी रूप । प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण षट्ऋतु और बारहमासा की चित्रण पध्दति पर हुआ है । संयोग पक्ष में पावस का उतना प्रभावोत्पादक वर्णन नहीं , जितना इससे सम्बध्द हिंडोले और तीज त्यौहारों का । पावस में प्रेमी - प्रेमिका के मिलन अवसर पर कवि का मन खूब रमता हुआ सा दिखाई देता है । रीतिबध्द कवि की नायिका को वियोग काल में शुभ्र चंद्रमा कसाई सा लगता है तो पपीहे की पी - पी प्राण लेने लगती है । कहीं कहीं इन कवियों ने प्रकृति चित्रण में अपने अज्ञान का भी परिचय दिया है ।

भक्ति , नीति और वीर रस

रीतिबध्द काव्य में भक्ति और नीति सम्बन्धी सूक्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी हुई मिल जाती है , पर इनके आधार पर हम रीति कवि को न तो अनन्य भक्त कह सकते हैं और न ही राजनीति निष्णात राधा-कृष्ण के नामोल्लेख मात्र से रीति कवि को भक्ति परम्परा में नहीं बिठाया जा सकता । प्रायः इन सभी कवियों ने श्रृंगार के साथ साथ भक्ति की भी रचनाएँ की है , किन्तु उनकी भक्ति परक रचनाएँ उनके विभाजित व्यक्तित्व की परिचायक है । पद्माकर या रसखान जैसे कवियों भक्ति की रचनाओं में थोड़ी - बहुत सफलता अवश्य पाई है । डॉ . राजशेखर प्रसाद चतुर्वेदी ने अपने शोध - प्रबन्ध में स्पष्ट किया है कि अशक्त होकर केशवदास , पद्माकर आदि सभी प्रमुख कवि वैराग्य से ग्रसित दिखलाई पड़ते है । सच तो यह है कि भक्ति और नीति इस कवि के जीवन के अवसान और थकान की द्योतक है । वीर काव्य का निर्माण यद्यपि रीतिकालीन परंपरागत श्रृंगारिकता के विपरीत है , परंतु रीतिबध्द कवि पद्माकर द्वारा रचित वीर रस की कविता को दुर्लक्षित नहीं किया जा सकता । जिस प्रकार भूषण , सूदन आदि कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की धमनियों में अपने अतातायी के विरूध्द खड़े होकर सबल टक्कर लेने के लिये , नवीन रक्त का संचार करने के लिए रसात्मक कविताओं की रचना की , उसी प्रकार पद्माकर ने भी बडी ओजस्विनी भाषा में वीर रसात्मक काव्य की सृष्टि की । इसमें राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है ।

ब्रजभाषा की प्रधानता

ब्रजभाषा इस युग की प्रमुख साहित्यिक भाषा है । भारतीय साहित्य में लालित्य के क्षेत्र में संस्कृत भाषा के पश्चात् ब्रजभाषा का स्थान आता है । एक तो वह मध्यदेशीय भाषा थी , दूसरा यह प्रकृति से मधुर थी , साथ ही कोमल रसों की सुन्दर अभिव्यक्ति की इसमें अपार क्षमता थी । माधुर्य गुण और नाजुक मिजाजी के कारण संगीत के लिए इनके शब्द सर्वथा अनुकूल थे । डॉ । नगेन्द्र का कथन दृष्टव्य है - " भाषा के प्रयोग में इन कवियोंने एक खास  नाजुक मिजाजी बरती है । इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं जिसमें माधुर्य नहीं है । अक्षरों के गुंफन में इन्होंने कभी भी त्रुटी नहीं की । संगीत के रेशमी तारों में इनके शब्द माणिक्य मोती की तरह गूंथे हुए हैं । " यह ब्रजभाषा की चरमोन्नति का काल है । इस समय ब्रजभाषा में विशेष निखार , माधुर्य और प्रांजलता का समावेश हुआ तथा वह अत्यन्त प्रौढ बन गयी । रीतिबद्ध कवियों की भाषा में कुछ दोष अवश्य पाये जाते हैं लेकिन यह भी सच है कि रीतिबद्ध कवि देव और पदमाकर ने कोमलकांत पदावली की दृष्टि से तुलसी को पीछे छोड़ दिया है ।
 उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रीतिबध्द कवियों ने काव्य को उपयोगिता और जीवन से अलग रखकर विशुध्द कला के रुप में देखा। फलस्वरुप यह काव्य मोहक छटा से युक्त किंतु निर्जीव मूर्ति के रुप में सामने आया है । परिपाटी बद्धता के कारण इस काव्य में भावना अत्यन्त संकुचित घेरे में बंध गयी है । इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- " जीवन की विभिन्न चिन्त्य बातों तथा जगत के नाना रहस्यों की ओर कवियों की दृष्टि नहीं जाने पायी । वाग्धारा बंधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर सामने आने से रह गये । "


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1 comments:

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Unknown
admin
14 जून 2023 को 9:25 pm बजे

Rithikal

Congrats bro Unknown you got PERTAMAX...! hehehehe...
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उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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