आदिकाल- लौकिक व रासो साहित्य aadikal - Cosmic and Raso Literature

 आदिकाल- लौकिक व रासो साहित्य 
aadikal - Cosmic and Raso Literature

लौकिक व रासो साहित्य

लौकिक साहित्य(गद्य-पद्य साहित्य)
हिन्दी साहित्य के आरम्भिक काल आदिकाल में जैन व सिद्ध साहित्य का सृजन धर्माश्रय में तथा रासो साहित्य का सृजन राज्याश्रय में हुआ। जिस कारण वो बच गया। परन्तु इन दोनों के इतर कुछ लोक साहित्य का सृजन भी हुआ।  इसके लोकश्रित होने के कारण यह संरक्षित नही हो सका।
ढोला मारु-रा-दुहा:
        लोकभाषा व विप्रलंभ(वियोग)श्रृंगार की इस अद्भुत रचना का रचनाकाल 11वीं शती है।इसकी भाषा राजस्थानी  व रचनाकार कुशललाभ हैं। इसमें कछवाहा वंश के राजा नल के पुत्र ढोला व पूगल देश की राजकुमारी मारवणी के प्रेम व विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति है।
कथासार-कछवाहा वंश के राजा नल के पुत्र ढोला का विवाह बचपन में ही पूगल देश की राजकुमारी मारवणी से हो जाता है।युवा होने पर राजकुमारी मारवणी अपने बचपन के पति ढोला के विषय में सुनती है।ओर उसके विरह में व्याकुल हो जाती है।तथा ढोला का पता लगाने के लिये अनेक सन्देशवाहक भेजती है लेकिन कोई वापिस नही आता।क्योंकि ढोला ने राजकुमारी मालवणी से दूसरा विवाह कर लिया था।तो मालवणी मारवणी के किसी भी सन्देशवाहक को ढोला तक पहुंचने ही नही देती।अन्त में मारवणी एक ढाढ़ी को भेजती है जो किसी तरह ढोला तक पहुंचने में कामयाब हो जाता है और ढोला व मारू का पुनर्मिलन होता है


वसन्त विलास:
             यह लौकिक साहित्य का श्रेष्ठ ग्रन्थ है।वैसे तो इसके रचनाकार का ज्ञान नही है।इसका प्रथम प्रकाशन 1952
ई.में हाजी मुहम्मद स्मारक से हुआ।इसके प्रथम सम्पादक केशवदास हर्षदराय धुर्व थे।इसके कुल 84 दोहे प्राप्त हैं।


राउल वेल:
        यह 10वीं शती की शिलांकित रचना है।जो धार(मालवा)के शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण है।इस गद्य-पद्य मिश्रित चम्पूकाव्य के रचयिता रोड़ा कवि है।इसमें हूणी नारी की प्रंशसा की गई है।हिंदी में नख-शिख वर्णन की शुरूआत यहीं से मानी जाती है


उक्ति-व्यक्ति प्रकरण:
                  यह 12वीं शती की गद्य रचना है।जिसके रचयिता दामोदर भट्ट माने जाते हैं।दामोदर भट्ट कौशल नरेश गोविंदचंद्र के दरबारी रचनाकार थे।इन्होंने राजकुमारों को देशी भाषा की शिक्षा के लिये इस ग्रन्थ की रचना की।यह ग्रन्थ पांच प्रकरणों में विभक्त हैं।दामोदर भट्ट के अनुसार इसकी भाषा अपभ्रंश है परंतु परवर्ती विद्वान उक्ति-व्यक्ति प्रकरण की भाषा को प्राचीन अवधि मानते हैं।


वर्ण-रत्नाकर:
         ज्योतिरीश्वर ठाकुर रचित इस गद्य रचना का रचनाकाल 1325ई.माना गया है यह आठ कल्लोल में विभाजित है।अवहट्ठ शब्द का प्रथम उल्लेख इसी में प्राप्त होता है।इसे मैथिली गद्य की प्रथम रचना माना जाता है।यह एक व्याकरणिक ग्रन्थ है।



खुसरो का काव्य:
              मध्य एशिया की लाचन जाति के तुर्क सैफुद्दीन के पुत्र अमीर खुसरो का जन्म सन् 1253ईस्वी (६५२ हि.) में एटा उत्तर प्रदेश के पटियाली नामक कस्बे में हुआ था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन (1266-1286) ई0) के राज्यकाल में ‘’शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। सात वर्ष की अवस्था में खुसरो के पिता का देहान्त हो गया। किशोरावस्था में उन्होंने कविता लिखना प्रारम्भ किया और २० वर्ष के होते होते वे कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है ।वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा।उन्हे खड़ी बोली के आविष्कार का श्रेय दिया जाता है ।वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्हीं ने अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था।  अमीर खुसरो को तोता-ए-हिन्द कहा जाता है

अमीर खुसरो की प्रमुख रचनाएं-

1.खलिकबारी(कोशग्रंथ)
2.हालात -ए- कन्हैया(भक्ति परक रचना)
3.नजराना-ए-हिंदी
4.तुग़लकनामा(अंतिम रचना)

अमीर खुसरो की रचना के कुछ उदाहरण-

गोरी सोये सेज पर, मुख पर डाले केश,
चल खुसरो घर अपने, रैन भई चहूँ देश।

चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय,
ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।

सेज वो सूनी देख के रोवुँ मैं दिन रैन,
पिया पिया मैं करत हूँ पहरों, पल भर सुख ना चैन।

खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूँ पी के संग,
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय,
पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।

नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय,
पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।

साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन,
दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।

रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन,
तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।

अंगना तो परबत भयो देहरी भई विदेस,
जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।

संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत,
वे नर ऐसे जाऐंगे जैसे रणरेही का खेत।

खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन,
कूच नगारा सांस का बाजत है दिन रैन|

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,न लेहो काहे लगाये छतियां|

मैं हिन्दुस्तान की तूती हूँ। अगर तुम वास्तव में मुझसे जानना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो। मैं तुम्हें अनुपम बातें बता सकूँगा - अमीर ख़ुसरो

         
           

विद्यापति की पदावली:
             विद्यापति भारतीय साहित्य की 'शृंगार-परम्परा' के साथ-साथ 'भक्ति-परम्परा' के प्रमुख स्तंभों मे से एक और मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाने जाते हैं। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव , शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है। मिथिला के लोगों को 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तरी-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित करने का महान् प्रयास किया है। कीर्तिपताका और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएँ हैं।महाकवि विद्यापति संस्कृत, अवहट्ठ, मैथिली आदि अनेक भाषाओं के प्रकाण्ड पंडित थे।महाकवि विद्यापति अनेक राजाओं के दरबार में रहे वे राजा निम्न हैंं-
कीर्तिसिंह
 शिवसिंह
पद्मसिंह
 नरसिंह
 धीरसिंह
भैरवसिंह और
चन्द्रसिंह।

इसके अलावा महाकवि विद्यापति इसी राजवंश की तीन रानियों के भी सलाहकार रहे ये रानियाँ है:

 लखिमादेवी (देई)
विश्वासदेवी, और
धीरमतिदेवी।

विद्यापति की प्रमुख रचनाएं:

संस्कृत में-
भूपरिक्रमा
पुरुषपरीक्षा
शैवसर्वस्वसार
दुर्गाभक्तितरंगिणी
मणिमञ्जरी नाटक
गोरक्षविजय नाटक

अवहट्ठ में-
कीर्तिलता
कीर्तिपताका

मैथिली में-
पदावली

विद्यापति श्रृंगारी कवि हैं ओर विद्यापति के शृंगारी कवि होने का कारण बिल्कुल स्पष्ट है। वे दरबारी कवि थे और उनके प्रत्येक पद पर दरबारी वातावरण की छाप दिखाई देती है। पदावली में कृष्ण के कामी स्वरूप को चित्रित किया गया है। यहां कृष्ण जिस रूप में चित्रित हैं वैसा चित्रण करने का दुस्साहस कोई भक्त कवि नहीं कर सकता। इसके इलावा राधा जी का भी चित्रण मुग्धा नायिका के रूप मे किया गया है। विद्यापति वास्तव में कवि थे, उनसे भक्त के समान अपेक्षा करना ठीक नहीं होगा।

विद्यापति की पदावली से श्रृंगार के कुछ पदों के उदाहरण:

कत न वेदन मोहि देसि मरदाना।
हट नहिं बला, मोहि जुबति जना।
भनई विद्यापति, तनु देव कामा।
एक भए दूखन नाम मोरा बामा।
गिरिवर गरुअपयोधर परसित।
गिय गय मौतिक हारा।
काम कम्बु भरि कनक संभुपरि।
ढारत सेरसरि धारा।

लीलाकमल भमर धरु वारि।
चमकि चलिल गोरि-चकित निहारि।
ले भेल बेकत पयोधर सोम।
कनक-कनक हेरि काहिन लोभ।
आध भुकाएल, बाघ उदास।
केचे-कुंभे कहि गेल अप्प आस।

रासो साहित्य(वीर काव्य)
आदिकाल में रचित साहित्य में रासो साहित्य का विशेष योगदान है।जैन कवियों द्वारा रचा गया रास-काव्य वीर रस प्रधान रासो-काव्य से भिन्न है।रासो शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है।फ्रांसीसी विद्वान गार्सा-द-तासी रासो शब्द की व्युत्पत्ति राजसूय से,कुछ विद्वान राजस्थानी के रास शब्द जिसका अर्थ लड़ाई या युद्ध है से,आचार्य रामचंद्र शुक्ल रसायण से मानते है।परंतु सर्वाधिक समीचीन मत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का है जो रासो शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के रासक शब्द से मानी है उनके अनुसार रासक एक छन्द व काव्यभेद भी है।अपभ्रंश में एक 29 मात्राओं का छन्द है जिसे रास या रासा कहा जाता है।वर्तमान में रासो शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर प्रायः आ.हजारीप्रसाद के इसी मत को स्वीकार किया गया है।कुछ प्रमुख रासो काव्य-

खुमाण रासो:
            दलपति विजय कृत इस ग्रन्थ का रचनाकाल संदिग्ध है।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल इसे 9वीं शती का,आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी 1673-1703ई. मध्य व डॉ. मोतीलाल मेनारिया 17वीं शती का स्वीकार करते हैं।इस ग्रन्थ का नायक मेवाड़ राजा खुमाण द्वितीय है।इस ग्रन्थ की प्रमाणित प्रति पूना-संग्रहालय में उपलब्ध है।ग्रन्थ में लगभग 5000 छन्द है।वीर रस प्रधान इस रचना में श्रृंगार रस भी देखने को मिलता है।

परमाल रासो (आल्हा खण्ड):
            इसके रचयिता कवि जगनिक हैं।ये चन्देल वंशी राजा परमर्दिदेव के दरबारी कवि थे।परमाल रासो में प्रमुखतः परमर्दिदेव देव के सेनापति आल्हा व उदल   की वीरता का वर्णन है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे अर्द्ध प्रमाणित मानते हैं।आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नही है, पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा भाषी प्रान्तों में सुनाई पड़ते हैं।यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं। यह पूर्णतः प्रमाणित न होते हुए भी अपनी गेेयता व वीर रस की अतुल्य  अभिव्यक्ति के कारण उल्लेखनीय कृति है।



हम्मीर रासो:
           यह अनुपलब्ध रासो ग्रन्थ है जिसके अस्तित्व कल्पना आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्राकृत पेंगलम में उपलब्ध 8 छन्दों के आधार पर की। इसके रचियता शारंगधर व रचनाकाल 14वीं शती है।इसका नायक रणथम्भौर का शासक राजा हम्मीर है।इस ग्रन्थ में चौहानों को सूर्यवंशी माना गया है, अग्नि वंशी नही।आचार्य शुक्ल इस हम्मीर रासो(1357ई.) की रचना के साथ ही अपभ्रंश लेखन परम्परा की समाप्ति मानते हैं।


वीजयपाल रासो:
                इसके रचयिता नल्ह सिंह भाट हैं।वर्तमान में इस रचना के मात्र 42 छन्द उपलब्ध है।इसका नायक करौली के यादव शासक हैं।इसका रचनाकाल लगभग 17वीं शती है।
           
बीसलदेव रासो:
               बीसलदेव रासो की रचना नरपति नाल्ह ने 1155ई
में की।इस ग्रन्थ का नायक विग्रहराज चतुर्थ है।यह वीर काव्य न होकर विरह काव्य है।चार खंडों विभक्त बीसलदेव रासो 125 छंदों की एक प्रेम परक रचना है।


पृथ्वीराज रासो:
              यह ग्रन्थ पृथ्वीराज चौहान के अभिन्न मित्र व कवि चन्दबरदाई द्वारा रचित है।इसकी प्रमाणिकता संदिग्ध है।


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