हिन्दी साहित्य का इतिहास-आदिकाल History of Hindi literature-aadikal

आदिकाल Aadikal

आदिकाल Aadikal
किसी भी भाषा का साहित्य नदी के प्रवाह की तरह होता है जो निरन्तर चलता रहता है जिसमें कभी कोई रुकावट नही आती। बस यदाकदा परिवर्तन होते रहते हैं।

साहित्येतिहास में कालविभाजन व उनका नामकरण अध्ययन को सरल व वैज्ञानिक बनाता है।

आदिकाल-परिचय एवं विशेषताएं

हिंदी साहित्य का आरम्भ 7वीं सदी से माना जाता है। इसी आरम्भ को भिन्न-भिन्न विद्वानों अलग-अलग नाम दियें हैं-

  • चारण काल-जार्ज ग्रियर्सन
  • प्रारम्भिक काल-मिश्रबन्धु
  • वीरगाथा काल-आचार्य रामचंद्र शुक्ल
  • सिद्धसामन्त काल-राहुल सांकृत्यायन
  • बीजवपन काल-महावीर प्रसाद द्विवेदी
  • वीरकाल-विश्वनाथप्रसाद मिश्र
  • आदिकाल- हजारीप्रसाद द्विवेदी
  • सन्धिकाल एवं चारण काल-डॉ रामकुमार वर्मा  
  इनमें सर्वाााधिक प्रचलित व विद्वानों द्वारा स्वीकृत नाम आदिकाल है।आदिकाल प्रारम्भ का सूचक न होकर परम्परा के विकास का सूचक है।इसमें समस्त काव्यरूपों एवं भाषा के अंकुरित होने का भाव निहित है अतः यही नाम सर्वाधिक उचित है
समस्त आदिकालीन साहित्य को हम कई भागों में बांट सकते हैं

                           आदिकालीन साहित्य
धार्मिक साहित्य          लौकिक साहित्य         वीर काव्य (रासो साहित्य)    
सिद्ध साहित्य      ढोला मारू रा दुहा        खुमान रासो
नाथ साहित्य       वसंत विलास              परमाल रासो
जैन साहित्य       राउल वेल                  विजयपाल रासो                                  उक्ति व्यक्ति प्रकरण      बीसलदेव रासो
                       वर्णरत्नाकर                 पृथ्वीराज रासो                                  खुसरो का काव्य
                     विद्यापति की पदावली

  आदिकाल-परिस्थितियां,साहित्यिक विवेचन-        

धार्मिक साहित्य-सिद्ध साहित्य-                       
         भारतीय धर्म साधना में सिद्धों का प्रादुर्भाव 8वीं शती के आसपास हुआ।सिद्ध सम्प्रदाय का जन्म वस्तुतः बौद्ध धर्म में आयी विकृति से हुआ। ईसा की पहली शताब्दी तक आते-आते बौद्ध धर्म दो शाखाओं-हीनयान और महायान में बंट गया। हीनयान केवल सन्यासियों को आश्रय देने लगा वहीं महायान ने अपने द्वार सबके लिये खोल दिए।
महायान आगे चलकर मन्त्रयान बन गया।बाद में मन्त्रयान के दो विभाग बने-वज्रयान व सहजयान।इनमें वज्रयानी ही सिद्ध कहलाए।ये मन्त्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने में विश्वास रखते थे।सिद्धों की संख्या चौरासी मानी जाती है। 84 सिद्धों के नाम-1.लूहिपा, 2.लोल्लप, 3.विरूपा, 4.डोम्भीपा, 5.शबरीपा, 6.सरहपा, 7.कंकालीपा, 8.मीनपा, 9.गोरक्षपा, 10.चोरंगीपा, 11.वीणापा, 12.शांतिपा, 13.तंतिपा, 14.चमरिपा, 15.खंड्‍पा, 16.नागार्जुन, 17.कराहपा, 18.कर्णरिया, 19.थगनपा, 20.नारोपा, 21.शलिपा, 22.तिलोपा, 23.छत्रपा, 24.भद्रपा, 25.दोखंधिपा, 26.अजोगिपा, 27.कालपा, 28.घोम्भिपा, 29.कंकणपा, 30.कमरिपा, 31.डेंगिपा, 32.भदेपा, 33.तंघेपा, 34.कुकरिपा, 35.कुसूलिपा, 36.धर्मपा, 37.महीपा, 38.अचिंतिपा, 39.भलहपा, 40.नलिनपा, 41.भुसुकपा, 42.इंद्रभूति, 43.मेकोपा, 44.कुड़ालिया, 45.कमरिपा, 46.जालंधरपा, 47.राहुलपा, 48.धर्मरिया, 49.धोकरिया, 50.मेदिनीपा, 51.पंकजपा, 52.घटापा, 53.जोगीपा, 54.चेलुकपा, 55.गुंडरिया, 56.लुचिकपा, 57.निर्गुणपा, 58.जयानंत, 59.चर्पटीपा, 60.चंपकपा, 61.भिखनपा, 62.भलिपा, 63.कुमरिया, 64.जबरिया, 65.मणिभद्रा, 66.मेखला, 67.कनखलपा, 68.कलकलपा, 69.कंतलिया, 70.धहुलिपा, 71.उधलिपा, 72.कपालपा, 73.किलपा, 74.सागरपा, 75.सर्वभक्षपा, 76.नागोबोधिपा, 77.दारिकपा, 78.पुतलिपा, 79.पनहपा, 80.कोकालिपा, 81.अनंगपा, 82.लक्ष्मीकरा, 83.समुदपा और 84.भलिपा।इनमें से 23 सिद्धों की रचनाएं प्राप्त होती है।इनका समय 8वीं शती से 13वीं शती (797ई. से 1257 ई.)के मध्य माना गया है।ये अपने नाम के पीछे 'पा' जोड़ते थे।
सिद्ध साहित्य की भाषा अर्द्ध मागधी अपभ्रंश है जो वास्तव में हिंदी व अपभ्रंश का मिला जुला रूप है।इनकी रचनाएं उपदेश,नीति व रहस्यपरक है। इनकी कविता में शांत व शृंगार रस की प्रधानता है।

प्रमुख सिद्ध कवि और उनकी रचनाएं-

सरहपा:
         इनका रचनाकाल769ई.माना जाता है।कुल रचनाएं 32 व प्रसिद्ध रचना दोहाकोश। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार हिन्दी के प्रथम कवि।
शबरपा:
        रचनाकाल 780ई.।प्रसिद्ध रचना चर्यापद।
लूईपा:
       शबरपा के शिष्य।रहस्य भावना की प्रधानता।
डोम्भीपा:
           रचनाकाल 840ई.।कुल ग्रन्थ 21।प्रसिद्ध ग्रन्थ-अक्षराद्वीपोकोश,योगचर्या व डोम्बिगीतिका।
कण्हपा:
         रचनाकाल 820 ई.।कुल ग्रन्थ 74।
कुक्कुरिपा:
             
धार्मिक साहित्य- नाथ साहित्य-
            नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोरखनाथ माने जाते हैं।नाथ पन्थ का उदय भी बोद्धों की सहजयान शाखा से हुआ।नाथों की संख्या 9 मानी जाती है आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनके नाम इस प्रकार बताये हैं-1.मत्स्येन्द्रनाथ,2.गहनिनाथ, 3.ज्वालेन्द्रनाथ,4.करणीपानाथ,5.नागनाथ,6.चर्पटनाथ,7.रेवानाथ,8.भर्तृनाथ,9.गोपिचन्द्रनाथ।इनमें गोरखनाथ का नाम न होने का कारण नाथ पन्थ के अनुसार गोरखनाथ ही भिन्न-भिन्न समय में अवतरित हुए हैं।


धार्मिक साहित्य- जैन साहित्य-
             जैन रचनाकारों का समय 8वीं शती से 13वीं शती के मध्य रहा है।इनका प्रभाव गुजरात और काठियावाड़ में रहा।जैन साहित्य की भाषा अपभ्रंश है।

प्रमुख जैन रचनाकार
 श्रावकाचार:देवसेन
            जैन ग्रंथों में सर्वप्रथम ग्रंथ देवसेन कृत श्रावकाचार 936 ईस्वी का माना जाता है। 'श्रावकाचार' में 250 दोहे हैं। उसमें श्रावक धर्म का प्रतिपादन किया गया है। इसमें ग्रहस्थ धर्म का विस्तार से विवेचन मिलता है। इसकी रचना दोहा छंद में है।
भरतेश्वर बाहुबली रास:शालिभद्र सूरि
                   इसकी रचना 1114 इसवी में शालिभद्र सूरी ने की थी।इस ग्रंथ में भरतेश्वर तथा बाहुबली का चरित्र वर्णन किया गया है। भरत आयु में बड़े थे और अधिक पराक्रमी थे वह अयोध्या के राजा बनाए गए थे और बाहूबली को तक्षशिला का राज्य मिल गया था। कवि ने इन दोनों राजाओं की वीरता युद्धों का विस्तार से वर्णन किया है। हिंसा और वीरता के पश्चात विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित किए गए हैं। वीर और श्रृंगार रसों का निर्वेद में अंत हुआ है। 250 शब्दों में रचित यह एक सुंदर खंड काव्य है। इसकी भाषा में नाटकीयता उक्ति वैचित्र्य तथा रचनात्मकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं ।आगे की रास या रासो रचनाओं को इस ग्रंथ में अनेक रूपों में प्रभावित किया है। अली जिन विजय ने इस ग्रंथ को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है।
चंदनबाला रास:आसगु
          यह 35 छंदों का एक लघु काव्य है जिसकी रचना 1280 के लगभग आसगु नामक कवि ने मालवा में की थी इसकी कथा नाई का चंदनबाला चंपानगरी के राजा पर एक बार कौशांबी के राजा शतामिक ने चंपा नगरी पर आक्रमण किया था ।सेनापति ने चंदनबाला का अपहरण किया और उसे एक शेठ को बेच दिया। शेठ की स्त्री ने उसे बहुत कष्ट दिया। चंदनबाला अपने सतीत्व पर अटल रही और दुख सहन करते हुए महावीर से दीक्षा लेकर मोक्ष की प्राप्ति की।इस प्रकार लघु कथानक पर आधारित यह जैन रचना करुण रस से भरी है।
स्थूलिभद्र रास:जिन धर्म सूरी
             1209 ईस्वी में रचित इस काव्य के कवि जिन धर्म सूरी है। इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है इस पर अपभ्रंश भाषा का भी प्रभाव देखने को मिलता है ।
रेवंत गिरीरास:कवि विजयसेन सूरी
              यह 1228 में लिखी गई रचना है जैन तीर्थकर का महत्व प्रतिपादित किया गया है इसमें गिरीनार के जैन मंदिरों के पुनरुद्धार की कथा है यह रचना चार कड़वा को में विभक्त है इसमें 80 छंद है ।
 नेमिनाथ रास:सुमति गनी
              इस काव्य की रचना सुमति गनी ने 1231 में की थी 58 छन्दों में की इस रचना में कवि ने नेमिनाथ का चरित्र सरल शैली में प्रस्तुत किया है।


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