मीराबाई

 मीराबाई Mirabai
( 1498ई. – 1573ई. )

Mirabai

जीवन परिचय

मीराबाई का जीवन वृत्त अन्य मध्यकालीन कवियों की ही तरह साक्ष्य प्रमाणों के अभाव में पूर्णतः निश्चित नहीं है । उनके जीवनवृत्त को जानने के लिए विद्वानों ने जनश्रुतियों का आश्रय लिया है । स्वयं मीराबाई के पदों से भी उनके जीवन के अनेक संदर्भों के संकेत मिलते हैं । सभी अनिश्चितताओं के बीच यह स्पष्ट है कि वे राजपूताने के प्रसिद्ध राजकुल में जन्मीं मेड़ता के नरेश राव दूदा मीराबाई के दादा थे । लगभग 1498 ई . (संवत् 1555) में कुड़की नामक गाँव में मीरांबाई का जन्म माना जाता है । यह गाँव वर्तमान में पाली जिले में आता है । हालांकि विद्वान इस विषय पर एकमत नहीं हैं । कोई उनका जन्म चौकड़ी में , कोई बाजौली में तो कोई मेड़ता में मानता है । यद्यपि स्वयं मीराबाई के पदों में उनके मेड़ता के होने का उल्लेख मिलता है । मीरा जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव दूदा की पौत्री थी । उनके पिता का नाम रतनसिंह था तथा माता का नाम वीर कुँवरी था । अपने पिता की इकलौती संतान मीरा के बचपन का नाम पेमल था । जनश्रुति के अनुसार छोटी उम्र में ही उनकी माँ का देहांत हो गया । माता की मृत्यु और युद्धों में पिता की व्यस्तता के कारण इनका पालन पोषण मेड़ता में इनके दादा की देख - रेख में होने लगा । दादा राव दूदा के धार्मिक संस्कारों ने ही नन्ही बालिका के हृदय में कृष्णभक्ति के बीज पल्लवित पुष्पित किए । कहा जाता है कि एक बार विवाहोत्सव को देख उत्सुकता में नन्ही मीराबाई ने अपने घर के विषय में बालसुलभ प्रश्न पूछा उत्तर में माँ ने कृष्ण की मूर्ति की ओर संकेत कर दिया । इस तरह परिवार के स्वाभाविक धार्मिक झुकाव के मध्य मीरा का कृष्ण प्रेम गहरा होता गया । 1516 ई . में राणा सांगा की पुत्रवधू और भोजराज की पत्नी के रूप में वे जब मेवाड़ पहुँची तो माना जाता है कि कृष्ण की मूर्ति उनके हाथों में ही थी । कृष्ण उपासना बेरोक - टोक जारी रही । मीराबाई का दांपत्य जीवन भी लंबा न रहा । एक के बाद एक परिजनों की मृत्यु के आघात ने मीरांबाई के जीवन में सांसारिकता के प्रति आकर्षण नष्ट कर दिया । फलतः संसार की निःसारता का बोध और अलौकिक के प्रति प्रेम का भाव भी दिन प्रतिदिन बढ़ता गया । ये अपना अधिकतम समय भगवद् भजन में समय बिताने लगीं । कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ समर्पण ने उन्हें सांसारिक बंधनों से विमुक्त कर दिया । मीरांबाई की ख्याति बढ़ने लगी पारिवारिक बंधनों को न स्वीकार करने के उनके उन्मुक्त भक्त व्यवहार ने अनेक कष्टों को न्यौता दिया । राजमाता कर्मवती ननद ऊदाबाई और राणा विक्रमाजीत सिंह द्वारा किए गए षड्यंत्रों की अनेक कथाएँ जनश्रुतियों में मौजूद हैं । कहा जाता है कि परिवारजनों द्वारा सताए जाने एवं भक्ति में बाधा उपस्थित किए जाने पर उन्होंने समकालीन कवि तुलसीदास से मार्गदर्शन माँगा । तब तुलसी ने इस पद के माध्यम से उन्हें मार्गदर्शन प्रदान किया

जाके प्रिय न राम बैदेही । 

तजिए ताहि कोटि बैरी सम जदपि परम सनेही ।।

1534 ई . में मीराबाई ने मेवाड़ छोड़ दिया और मेड़ता वापस आ गई । कीर्तन - भजन व भक्ति के मधुर गीतों की रचना में लीन मीराबाई यहाँ भी लंबे समय तक न टिक सकी और सभी बंधनों को पीछे छोड़कर उन्मुक्त भाव से कृष्णभक्ति के गीत गाते तीर्थाटन पर निकल पड़ी । इस समय वृंदावन में इनकी भेंट जीव गोस्वामी से हुई । कहा जाता है कि चेतन्य संप्रदाय के जीव गोस्वामी द्वारा मीराबाई से मिलने से इनकार करने पर ( वे स्त्रियों से नहीं मिलते थे ।) उन्होंने संदेश भेजा कि मैं समझती थी कि वृंदावन में मात्र एक ही पुरुष हैं , शेष सभी गोपियाँ हैं । यह हैरानी की बात है कि यहाँ अपने को पुरुष समझने वाला कोई और भी है । यह सुनकर जीव गोस्वामी का अहंकार टूट गया और मीराबाई के स्वागत में तुरंत बाहर आए । इसके पश्चात मीराबाई के द्वारका यात्रा के उल्लेख मिलते हैं । इस समय तक वे पर्याप्त लोकप्रिय हो चुकी थीं । दूसरी ओर मेड़ता और मेवाड़ के बिगड़ते हालातों और समस्याओं से दुखी प्रजा इसे मीराबाई के साथ हुए व्यवहार का परिणाम मानने लगी । उन्हें वापस लाने की योजना से ब्राह्मणों को द्वारका भेजा गया । मीराबाई द्वारा बार - बार मना करने पर भी ब्राह्मणों ने उन्हें लौटने के लिए विवश किया एक किंवदंती के अनुसार अधिक विवश करने पर मीरांबाई रणछोडजी ( कृष्ण ) से मिलने का बहाना कर मंदिर के भीतर गईं कपाट बंद किए और रणछोड़जी की मूर्ति में ही समा गईं । इस तरह मीराबाई कब तक जीवित रहीं इसके भी कोई निश्चित प्रमाण नहीं है किंतु माना जाता है कि 1563 ई . (सम्वत् 1603) के आसपास तक वे जीवित रही थीं । ऐतिहासिक साक्ष्यों के अभाव में ऐसी किंवदतियों का बन जाना स्वाभाविक है । अंततः इस अनिश्चितता के मध्य इतना तो स्पष्ट है कि मीरांबाई अपने जीवनकाल में ही भक्त एवं कवि के रूप में विशिष्ट प्रसिद्धि और सम्मान पा चुकी थीं । कृष्ण प्रेम में एकाकार उनके व्यक्तित्व के साथ यदि ऐसी किंवदंती बनती भी है तो इसमें आश्चर्य नहीं इस सबके बीच प्रेमाभक्ति में निमग्न उनके मधुर गीतों की आकंठ ध्वनि आज भी उन्हें जन - मन के बीच जीवित रखे हुए है । छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत ने मीरा बाई को ' भक्ति के तपोवन की शकुन्तला ' तथा राजस्थान के मरुस्थल की मंदाकिनी कहा है । भक्तमाल के रचयिता कवि नाभादास ने निम्न पंक्तियों द्वारा मीरा के जीवन पर प्रकाश डाला है 

  • सदृश्य गोपिका प्रेम प्रगट कलि जुगत दिखायो । 
  • निर अंकुश अति निडर रसिक जन रसना गायो ।। 
  • दुष्ट ने दोष विचार मृत्यु को उद्धिम कियो । 
  • बार न बांकों भयो गरल अमृत ज्यों पीयो । 
  • भक्ति निशान बजाय कैं काहुन तें नाहिन लजी । 
  • लोक लाज कुल श्रृंखला तजि मीरा गिरधर भजी |

रचनाएँ

मीराबाई के जीवनवृत्त की ही तरह उनकी रचनाओं के संबंध में भी हमें कोई प्रामाणिक दस्तावेज नहीं मिलते । उनके नाम से अनेक रचनाओं का उल्लेख यत्र - तत्र मिलता हैं , जिनमें ' मीराबाई की पदावली ' , ' गीतगोविंद की टीका , नरसी जी का मायरा ' , ' राग सोरठ पद - संग्रह , ' राग गोविंद ' , ' मीरांबाई का मलार , ' गर्वागीत ' , ' राग विहाग ' एवं ' फुटकर पद ' आदि शामिल हैं । मीरा की उपासना ' माधुर्य भाव ' की थी । उन्होंने अपने इष्ट श्री कृष्ण को प्रियतम या पति रूप में माना । मीरा पीड़ा व वेदना की कवयित्री हैं । सत्संग के द्वारा भक्ति और भक्ति से ज्ञान द्वारा मुक्ति की कामना उनकी रचनाओं में झलकती है । मीरा के दाम्पत्य भाव में अनन्यता है । उन्होंने लिखा है- ' मेरे तो गिरधर गोपाल , दूसरो न कोई । ' उनकी रचनाओं में विरह वेदना , आत्मनिवेदन तथा आत्मसर्मपण सर्वत्र झलकता है । मीरां की रचनाएँ लिखित रूप में प्राप्त नहीं हैं । ऐसा माना जाता है कि उनके पदों को लिपिबद्ध करने का कार्य उनकी सखी ललिता ने किया था । आज उनकी रचनाओं का संकलन मीरां पदावली के नाम से मिलता है । मीरा के कुछ पद गुरु ग्रंथ साहब में भी मिलते हैं । मीरा की मुख्य भाषा राजस्थानी है जिसमें ब्रज , गुजराती , खड़ी बोली , अवधी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है ।मीराबाई के रचनाओं के संबंध में कई विद्वानों ने विभिन्न पुस्तकों की चर्चा की है । मुंशी देवीप्रसाद ने जब राजस्थान में हिंदी की पुस्तकों की खोज की तब ' गीतगोविंद की टीका ' , ' नरसी जी का मायरा ' , ' रागसोरठ के पद - संग्रह एवं फुटकर पद को ही मीराबाई की रचनाओं के रूप में पाए जाने का उल्लेख किया जबकि रामचंद्र शुक्ल अपने साहित्येतिहास में राग गोविंद ' का उल्लेख करते हैं । दूसरी ओर गौरीशकर हीराचंद ओझा ' मीराबाई का मलार की प्रसिद्धि के विषय में चर्चा करते हैं । साहित्यिक दृष्टि से यदि देखें तो मीराबाई के फुटकर पदों का ही सबसे अधिक महत्व  हैं । ये संभवतः जनसामान्य में प्रचलित उनके गीतों का ही संग्रह है ।

हिंदी में केवल मीराबाई के पदों का सबसे पहला संग्रह लखनऊ के नवलकिशोर प्रेस से 1898 ई . में मीराबाई के भजन नाम से प्रकाशित हुआ था । आगे चलकर बेलतेडियर प्रेस , प्रयाग से 1910 ई . में ' मीराबाई की शब्दावली ' नाम से एक प्रामाणिक संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें उनके 137 पद संगृहित हैं । इन आरंभिक प्रयासों के बाद मीराबाई के पदों के संकलन के अनेक प्रयास हुए , जिनमें मीरां मंदाकिनी ' , ' मीरां स्मृति ग्रंथ मीरां सुधा सिंधु ' , ' मीरां वृहद पद ' संग्रह आदि के साथ 1932 ई . में परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित ' मीराबाई की पदावली ' 1950 ई . ( हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग ) है । वस्तुतः इसे ही मीरांबाई के अब तक प्राप्त पदों का सबसे प्रामाणिक संग्रह माना जाता है । इस संग्रह में मीरांबाई के कुल 202 पद शामिल किए गए हैं ।

भाव सौंदर्य

भक्ति 

मीरांबाई मूलतः भक्त हैं , कवयित्री नहीं चैष्णव परंपरा के बाल्यकालीन संस्कार , युगीन परिस्थितियों व विचारधारा एवं वैयक्तिक जीवनानुभवों ने क्रमशः मीरां को भक्ति के मार्ग पर प्रशस्त किया है । यों मीराबाई की दीक्षा किसी संप्रदाय विशेष में नहीं है किंतु कृष्ण के प्रति उनके हृदय में गहन अनुराग का उनका भाव है जो धीरे - धीरे परिपक्व होकर एकनिष्ठ भक्ति का रूप धारण करता है   अज्ञात सत्ता या परमात्मा के प्रति जीवात्मा की सहज रागात्मक वृत्ति या भाव का ही दूसरा नाम है । इस अलौकिक रागात्मकता को रामचंद्र शुक्ल हृदय का धर्म कहते हैं । इस रागात्मक भाव या संबंध की कल्पना भक्तों ने कई प्रकार से की है । वस्तुतः मनुष्य के संसार में जितने भी प्रकार के संबंध संभव हैं उनकी संभावना भक्त और ईश्वर के बीच भी की गई है । स्त्री - पुरुष का परस्पर राग भाव या दांपत्य भाव भी इन्हीं में से एक है और यह भक्ति भावना के लिए सहज स्वीकार्य रहा है । मीरांबाई ने अपने आराध्य कृष्ण की भक्ति इसी भाव से भर कर की है । शास्त्रीय अर्थों में भक्ति के इस स्वरूप को प्रेमाभक्ति , मधुरा भक्ति आदि नामों से जाना जाता है । किंतु मीराबाई की भक्ति को केवल शास्त्रीय विधान में आँकने का प्रयास नहीं किया जा सकता । दरअसल मीराबाई का भक्त रूप और उनकी श्री कृष्ण से अनन्यता अनुभूति की चरम सीमा को छूती है । इनमें रागात्मकता का ऐसा गहरा संस्पर्श है कि उसे किसी भी बने बनाए सैद्धांतिक साँचे में फिट नहीं किया जा सकता । उसके विश्लेषण का आधार सैद्धांतिक न होकर अनुभूतिपरक ही अधिक होना चाहिए । ऐसा किए जाने का एक अन्य कारण यह भी है कि मीराबाई भक्ति के किसी भी संप्रदाय या पंथ में औपचारिक रूप से दीक्षित नहीं हैं । ये भक्ति के सैद्धांतिक व्यवहारों से मुक्त हैं और भावना में बह कर भक्ति के अथाह सागर में स्वच्छंद गोते लगाती हैं । यों मीराबाई के पाठकों व आलोचकों ने उनकी भक्ति को प्रेमाभाव की ही भक्ति माना है । स्वयं मीराबाई के पदों से इसकी पुष्टि की जा सकती है । वे प्रेम स्वरूप भक्ति को ही एकमात्र पंथ मानती हैं 

प्रेम भगति रो पैडो म्हारो और न जाणों रीत । 

मीराबाई की भक्ति भावना वस्तुतः कृष्ण के प्रति उनके अगाध प्रेम का ही उदात्त रूप है । उसमें किसी भी प्रकार के दार्शनिक आग्रह से अधिक अनुराग के भाव को तन्मयता से व्यक्त किया गया है । इस तन्मयता में आत्मसमर्पण और एकात्म होने की स्थिति है तुम बिच हम बिच अंतर नाही , जैसे सूरज घामा मैं साँवरे के रंग रांची । ऐसा नहीं है कि मीराबाई का काव्य संसार शास्त्रीय विधानों से एकदम अछूता है परंतु उसका एकमात्र कारण उनके अपने अनुभव जगत का विस्तार है जो उन्होंने साधु - संन्यासियों की संगत से अर्जित किया है । जाहिर है वह भी जिस अंतरंगता के साथ आता है कि उसमें शास्त्र का बोझिल व्यवहार शामिल हो जाता है गगन मण्डल में सेज पिया की केहि विधि मिलणा होइ । 

इस भक्ति के तीन बड़े आकर्षण हैं पहला , भक्त और भगवान के बीच दांपत्य का राग या रति भाव , दूसरा , कृष्ण का मनमोहक रूप तथा तीसरा , लीला के दर्शन इस तरह कृष्ण प्रेम , कृष्ण सौंदर्य और कृष्ण लीला- ये मीराबाई की भक्ति के मुख्य आयाम हैं । इन्हीं के आधार पर मीरांबाई भक्ति मधुर रस में डूबे ऐसे गीतों का सृजन करती हैं जो आज तक भक्त हृदयों में समाए हुए हैं । दांपत्य राग में यह गीत तो सर्वप्रसिद्ध है । 

  • मेरे तो गिरधर गोपाल , दूसरो न कोई । 
  • जाके सिर मोर मुकुट , मेरी पति सोई ॥ 

यह रति भाव संयोग से ज्यादा विरह - व्यथा के रूप में अभिव्यक्त हुआ है । परमात्मा से मिलने की आस में पड़ी जीवात्मा के विरह की विदग्धता की अनन्य छवियाँ मीराबाई गढ़ती हैं ज्ञान न भावे नींद न आवे विरह सतावे मोहि घायल सी घूमत फिरुँ रे , मेरो दरद न जाणे कोय । 

दूसरी ओर कृष्ण के मनमोहक रूप - सौंदर्य की व्यंजना के भी अनेक पद हैं जो भक्त जनों को ( विशेष रूप से उन भक्तों को जो दार्शनिकता से ग्रस्त भक्ति की जकड़ में न होकर भावनावश आकर्षित हैं ) कृष्ण प्रेम के मोहक पाश में बाँध लेते हैं । जीव जगत के दैनंदिन कष्टों से मुक्त करते हैं : 

  • मेरो मन बसि गो गिरिधर लाल सों ।
  • मोर मुकुट पीताम्बरो गल बैजन्ती माल ।। 

अथवा

  • निपट बैंकट छवि अटके , मेरे नैना निपट बँकट छवि अटके ।।
  •  देखत रूप मदन मोहन के पियत पियूख न मटके । 
  • कालिन्दी के तीर ही कान्हा गउवाँ चराय । 
  • सीतल कदम की छहियाँ हो मुरली बजाय ।।

यहाँ एक अन्य तथ्य ध्यान देने योग्य है । जब हम कह रहे हैं कि मीराबाई की भक्ति शास्त्रीय विधान को तोड़ती हैं तो वह हर स्तर पर तोड़ती हैं । कृष्ण के मनमोहक स्वरूप और लीला की अनेकशः भावमय अभिव्यक्तियों के बावजूद मीराबाई की भक्ति भावना जड़ अर्थों में सगुणोपासना नहीं है । वे पूर्णतया स्वच्छंदता की अपनी वैयक्तिक वृत्ति से परिचालित हैं और परंपरागत सगुण - निर्गुण में भेद को अनदेखा करती हैं । मीराबाई के कृष्ण हमें सगुण - निर्गुण दोनों रूपों में दिखाई देते हैं । यों उन्हें अपने कृष्ण का सगुण साकार रूप ही अधिक प्रिय हैं और वे उसकी मोहिनी मूरत , सांवरी सूरत पर न्योछावर होती हैं , बार - बार बलिहारी जाती हैं । किंतु कई पदों में उनके आराध्य निर्गुण रूप में विद्यमान है जिसका निवास स्थान गगन मंडल में है , जो अगम्य है और उससे मिलने का मार्ग दुर्गम है । मीरांबाई निर्गुण भक्ति शब्दावलियों का बखूबी प्रयोग करती हैं : 

  • पिया ऊँचा - नीचा महल पिया का ता मैं चढ्या न जाई । 
  • रहीं से झांकी लगाई से त्रिकुटी महल में बना है झरोखा तहाँ से झाँकी लगाऊँ री ।

  • सुन्न महल में सुरत जमाऊँ , सुख की सेज बिछाऊँ री ।।

वैसे देखा जाए तो ऐसे पदों की संख्या सीमित ही है और ये पद साधु संगति के प्रभाववश प्रसंगतः ही रचे गए हैं । मीरांबाई के लिए महत्वपूर्ण ईश्वर का रूप - स्वरूप नहीं भक्ति की अनन्यता है । उन्हें तो अपने आराध्य कृष्ण को राम नाम से भी पुकारने में कोई हिचक नहीं मेरा मन राम हि राम रटै रे । उसकी अभिव्यक्ति जैसे बन पड़ी हो , बिना किसी लागलपेट या मतवाद के फेर में पड़े की है । इस दृष्टि से उनमें नवधा भक्ति के पद भी देखें जाने चाहिए । श्रवण , कीर्तन , स्मरण आदि सभी नौ सोपानों के अंकन मीराबाई में मिल जाएँगे । उदाहरणस्वरूप : 

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो । अब तो हरिनाम लौ लागी । 

इस तरह मीराबाई की भक्ति भावना और शास्त्रीयता दोनों का समन्वित आधार प्राप्त कर भक्त हृदय के सहज उद्गार के रूप में व्यक्त है । 

स्त्री चेतना

सामंती व्यवस्था की जकड़न एवं उसके बहुसंख्य निषेधों के मध्य मीराबाई की कविता स्त्री बोध और चेतना की अद्भुत मिसाल है । मीरांबाई एक ओर पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था के  विरुद्ध विद्रोह का बिगुल फूंकती हैं तो दूसरी ओर स्त्री जीवन के तमाम नियमन व शोषण दमन के विरुद्ध तनकर खड़ी होती हैं । विरोध की यह ध्वनि ही मीराबाई को स्त्री चेतना का प्रतिनिधि स्वर बनाती है  । मीराबाई का व्यक्तिगत जीवन हो या उसके सामाजिक संदर्भ प्रत्येक स्तर पर इनका जीवन विरोध और संघर्ष का इतिहास है । प्रत्येक मोर्चे पर वे तनकर खड़ी दीखती हैं । राजपरिवार में जन्मी और पली - बढ़ी मीराबाई राजमहल की सुख - सुविधा को तिलांजलि देती हैं । सामाजिक प्रतिष्ठा को खोने के तथाकथित भय को एक किनारे छोड़ भक्ति के दुर्गम मार्ग को अपनाती हैं । यह भक्ति ही इनके लिए जीवन के तमाम संघर्षो का सामना करने की प्रेरक शक्ति का कार्य करती है । निरंकुश सामाजिक नियंत्रण के विरुद्ध यह भक्ति का अधिकार स्त्री के आत्मनिर्णय का अधिकार है । अपने जीवन के लिए स्वयं निर्णय लेने के इस अधिकार का ही प्रतिफल है कि घोर सामंती राजपूत राजघराने की एक विधवा स्त्री ईश्वर को अपने पति के रूप में न केवल चुनती है बल्कि उसकी घोषणा भी करती है , मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई । जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।। " यह मीराबाई की खुली चुनौती है । परिवार , समाज , धर्म के ठेकेदार सभी के विरुद्ध विरोध में ये एक स्तर और चढ़ जाती है- स्त्री जीवन के परंपरागत दायरों को तोड़ कर ! घर के घेरे को तोड़कर अपना मार्ग स्वयं प्रशस्त करती हैं । साधु संगति , कीर्तन , भजन और ईश वंदना में निमग्न मीराबाई स्त्री जीवन के बने नियमों के विरुद्ध कार्य करती है । संगीन , भजन आदि बनाए दायरों को तोड़ती हैं । माँ , बहन , बेटी की स्त्री की परंपरागत भूमिका से पूरी तरह बाहर आकर एकमात्र कृष्ण प्रेमिका की भूमिका में खुद को स्थापित करती हैं । इनकी कविता में लोक लाज , कुल की मर्यादा तोड़ने और लाँघने के संदर्भ बार - बार यों ही नहीं आए हैं । ये तमाम संदर्भ पितृसत्ता को मीरांबाई का दिया गया करारा उत्तर है । 

  • लोकलाज , कुल माण जगत की दई बहाय जस पाणी ।
  • अपने घर का परदा करले में अबला बौराणी 

वे अपनी आस्था के संकल्प में भरी अपने विरोधियों को चुनौती देते हुए उन्हें सचेत करती हैं । इस तरह वे लोक - लाज , मर्यादा के नाम पर होते आ रहे शोषण के तमाम तरीकों को चुनौती दे रही हैं और यह चुनौती मात्र वैयक्तिक स्वतंत्रता की पुकार नहीं रह जाती । यह स्त्री प्रतिपक्ष तैयार करती है । व्यवस्था के प्रति गहरे असंतोष का भाव और विद्रोह का यह स्वर ही इन्हें अन्य समकालीन सन्त कवियों से अलग करता है । मीराबाई की स्त्री चेतना को उनके संवेदनात्मक विवेक के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए । इस दृष्टि से वैयक्तिकता इनका विशिष्ट गुण है जहाँ अन्य संत कवि अपने व्यक्तिगत जीवन और सांसारिक संबंधों के विषय में मौन हैं , वहीं मीराबाई की काव्य रचना में वह आग्रहपूर्वक आया है । मीराबाई के काव्य में वैयक्तिक पहचान , सांसारिक संबंध और संदर्भ , सुख - दुख सभी कुछ मुखर रूप से मौजूद है । यह तथ्य इनके गहरे आत्मबोध और स्वतंत्र व्यक्तित्व की ओर संकेत करता है । मीराबाई भले कुल की मर्यादा छोड़ती हैं परंतु उसे छिपाती नहीं । अपनी पहचान नहीं छिपाती बल्कि उसे लेकर वे बेहद मुखर हैं पीहर म्यारो देश मेड़तो छांडी कुल की कांणी । 

मीराबाई सामान्य स्त्री की तरह जीवन के तमाम दुख - तकलीफों को बार - बार याद करती हैं ।

  • सासरियो दुख घणा रे सासू ननद सतावै । 
  • साँप पिटारो राणा भैज्यो , मीरां हाथ दियो जाय ।

स्त्री जीवन समस्त राग - रंगों का खुलकर वे प्रयोग करती हैं । कोई निषेध या हिचक नहीं । अपने समकालीन पुरुष भक्त कवियों के समक्ष यह प्रयास बिल्कुल अलग है और ध्यान आकर्षित करने वाला है । यहाँ एक अन्य तथ्य की चर्चा अनिवार्य है । पुरुष भक्तों द्वारा जहाँ भी स्त्री का चित्रण है , वह प्रथमतः तो सांसारिक मोह - माया के जाल के रूप में अभिव्यक्त है । दूसरे जहाँ वह माधुर्य भाव की भक्ति के वशीभूत होकर भी स्त्री को अपने काव्य का विषय बनाता है , वहाँ भी विषय के रूप में उसका व्यवहार स्त्री के साथ पुरुषवादी ही है । सूरदास तक सभी बड़े नाम यहाँ गिने जा सकते हैं । स्त्री जीवन के प्रति संवेदनशीलता की दृष्टि इन कवियों के पास नहीं है और न ही स्त्री हृदय को समझ सकने के विद्यापति से प्रयास किए हैं । मीराबाई इस परंपरा की अवहेलना कर स्त्री जीवन के जो सघन और विश्वसनीय चित्र अंकित करती हैं , वे समूचे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि है वे स्त्री प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण करती हैं । स्त्री के अनुभूत संसार को सजीव बना देती हैं बिना किसी पर्दे या दुराव - छिपाव के मीरा के व्यक्तित्व की स्वच्छंदता इस चित्रण को और अधिक मर्मस्पर्शी एवं ग्राहय बनाती है । इस तरह मीराबाई का स्त्री व्यक्तित्व उनके कवित्व को विशिष्ट और साहित्य की चरम उपलब्धि बनाता है । 

शिल्प सौंदर्य 

काव्य भाषा 

मीराबाई की रचनाओं की भाषा को लेकर भी पर्याप्त मतभेद रहे हैं । इस मतभेद का मुख्य कारण इन पदों के प्रामाणिक रूप की अनुपलब्धता है । अन्य मध्यकालीन संत कवियों की ही भाँति मीराबाई के पद भी हमें या तो मौखिक परंपरा से प्राप्त हुए हैं अथवा हस्तलिखित प्रतियों ( सामान्यतः गुटकों ) से इन प्रतियों की शुद्धता सदैव संदिग्ध मानी गई है । गेय परंपरा से चले आ रहे इन पदों के जो रूप इन हस्तलिखित प्रतियों में मिलते हैं , उनमें पर्याप्त भाषिक वैविध्य दृष्टिगत होता है । काल के लंबे अंतराल में संग्रहित इन पदों पर संकलनकर्ताओं की निश्चित ही छाप पड़ी है । अतः उनमें अनेक प्रकार के परिवर्तन भी हुए हैं । एक दूसरा बड़ा कारण संभवतः स्वयं मीराबाई का भिन्न - भिन्न क्षेत्रों में भ्रमण और उन स्थानों की बोलियों का उनकी रचनात्मकता पर आए प्रभाव के रूप में भी देखा जा सकता है । इसी मतभेद का परिणाम है कि भिन्न - भिन्न संकलनकर्ता संपादक आदि मीराबाई के प्रचलित पदों के आधार पर उन्हें अनेक भाषाओं की कवयित्री घोषित कर बैठते हैं । मीराबाई के कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है तो कुछ की शुद्ध ब्रजभाषा कहीं - कहीं पंजाबी का प्रयोग भी दिखाई देता है । शेष पद मुख्य रूप से राजस्थानी में ही पाए जाते हैं , इनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ है । मीरांबाई के मूल पद स्पष्ट है कि मुख्य रूप से राजस्थानी में ही रहे होंगे किंतु आज उनमें इन भाषाओं के प्रभाव हम साफ देख सकते हैं । इसी आधार पर परशुराम चतुर्वेदी जब मीरांबाई की पदावली का संपादन करते हैं तो मुख्यतः चार बोलियों में उनके पदों के होने की ओर संकेत करते हैं । ये चार बोलियाँ हैं- राजस्थानी , गुजराती , ब्रजभाषा और पंजाबी । इन बोलियों में मीराबाई के पदों के उदाहरण भी देखिए 

राजस्थानी

थारी हूँ रमैया मोसू नेह निभावो । थारो कारण सब सुख छोड़या , हमकूँ क्यूँ तरसावौ ।। 

गुजराती 

मुखड़ानी माया लागी रे मोहन प्यारा । मुखड़ें में जोयुँ तारू सर्व जग थायुँ खारू ।।

पंजाबी 

आवदा जावदा नजर न आवै । अजब तमाशा इस दा नी ।। 

ब्रजभाषा

  • सखी मेरी नींद नसानी हो , पिय को पंथ निहारत , सिगरी रैन बिहानी हो ।
  • सब सखियन मिलि सीख दई मन एक न मानी हो । 

दरअसल मीरांबाई के पद अपनी संपूर्णता में इन अलग - अलग बोलियों में नहीं रचे गए , अपितु मुख्य रूप से उनके पद ब्रजभाषा तथा राजस्थानी में ही है , अन्य भाषाओं का केवल मिश्रण यहाँ दृष्टिगत होता है । इस रूप के साथ कहीं - कहीं अवधी आदि का मिश्रण भी प्राप्त हो जाता है , जैसे हमरे शेरे लागिल कैसे छूटे । 

काव्य सौंदर्य

मीरांबाई का काव्य एकनिष्ठ भक्त हृदय का प्रेमपूर्ण उद्गार है । ये पहले कवि नहीं , पहले भक्त हैं । ये पांडित्य के आधार पर रचना प्रवृत्त नहीं होती , न ही सूर , तुलसी , जायसी की तरह ये काव्य - कर्म के लिए शिक्षित दीक्षित हैं । इस अर्थ में मीराबाई कबीर के अधिक निकट हैं । इनके यहाँ परंपरा प्राप्त कला का अवगाहन नहीं है , एक नैसर्गिक प्रतिभा है जो इनके पदों में विशेष नूतन सौंदर्य बोध भरती है । ये पद जीवन की आँच से तपे हुए और अनुभूति के आवेग से जनित हैं । इनकी मर्मभेदकता वैयक्तिपरकता , अनुभूति की गहराई सरल अभिव्यंजना शैली इसे अन्य भक्त कवियों से पूरी तरह पृथक करती है । मीराबाई की अनुभूति उनके अभिव्यंजना तत्वों से ऐसी घुल - मिल कर सामने आती है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता । इसका मुख्य कारण यह है कि शिल्प यहाँ साधन अधिक है । इनके पद भावावेग और वह भी उद्दाम भावावेग को व्यक्त करते हैं प्रेमाभक्ति और उसमें मग्न साधिका के आकुल कठ की पुकार हैं ये पद अतः भाव पक्ष ही इनके पदों का साध्य है । इस साध्य की पूर्ति का सहज साधन मात्र बनकर शिल्प पक्ष सामने आता है । यह सहजता मीराबाई के काव्य का आकर्षण बन जाती है । मीराबाई का भक्त रूप उनके कवि रूप पर सदैव भारी रहा है । भाषा हो या शिल्प के अन्य रूप सभी अपनी स्वाभाविकता में बिना किसी प्रदर्शन भावों के सहज अनुगामी होकर प्रयुक्त हुए हैं । काव्य के मूल्यांकन के परंपरागत मानदंडों से पृथक मीराबाई अपने काव्य के मूल्यांकन के भिन्न मानक रखती हैं । इस दृष्टि से स्वच्छंदता की वृत्ति और आडंबरहीनता ये दो गुण इनके काव्य के लिए मुख्य सौंदर्य विधायी तत्व माने जा सकते हैं । कलाविहीनता को ही मीराबाई की सबसे बड़ी कला कहा जाना चाहिए । मीरा कृष्ण प्रेम में मग्न काव्य के परंपरागत मानदंडों का उपहास सा करती हैं । शायद प्रेम यदि सामान्य होता तो कलात्मक चमत्कार की आवश्यकता होती , किंतु यहाँ तो प्रेम का अपार सागर है , और सरलतम स्पष्टतम शब्दों में भी उसकी अभिव्यक्ति अवश्य प्रभावी होती है । उसके लिए किसी अलंकरण या प्रसाधन की आवश्यकता नहीं । मीरांबाई का काव्य अपने लिए यही मार्ग चुनता है बिल्कुल स्पष्ट और सीधी अभिव्यक्ति : मेरे तो गिरिधन गोपाल , दूसरो न कोई । मीराबाई के पद साहित्यिक परंपराओं से ही मुक्त नहीं हैं , वे ध्वनि , व्यंजना , रीति , गुण , अलंकार , छंद आदि किसी भी परंपरा का निर्वाह नहीं करते । संभव है कुछ पदों में उपमा , अनुप्रास उत्प्रेक्षा , रूपक आदि के संकेत मिलें । उदाहरणस्वरूप :

अनुप्रास

जोगी मत जा मत जा मत जा .... या साजि सिंगार बांध पग घुँघरू , लोकलाज तजि  नाची है 

रूपक का यह प्रसिद्ध उदाहरण 

अंसुवाजन सींच सींच प्रेम बेल बोई । 

अनुप्रास कुछ अधिक संख्या में हैं किंतु उसका कारण गीतिकाव्य का कलेवर है । परंतु ये भी अनायास ही आए हैं । वे मीराबाई के लिए सायास कलात्मक प्रयास नहीं हैं । वैसे भी इनकी संख्या नगण्य है । मीराबाई इनकी योजना समय क्यों लगाती वे तो हृदय की गूढ़तम अभिव्यक्तियों और मर्म वेदनाओं को प्रकट करने के प्रयास में लगी हुई थीं और उसका प्रकटीकरण आडंबरहीनता से ही संभव था । प्रतीकों का प्रयोग मीरांबाई परंपरागत स्वरूप में ही करती दीखती हैं । अपने स्वच्छंद काव्य व्यवहार के विपरीत इनके काव्य में प्रतीकों का भरपूर प्रयोग हुआ है और वह भी परंपरागत अर्थ में ही । परंतु इसका कारण संचेत काव्य व्यवहार नहीं है बल्कि साधु संगति है । वैरागियों और साधुओं की लंबी संगत में मीराबाई स्वाभाविक रूप से उन धार्मिक प्रतीकों का ज्ञान प्राप्त करती हैं जो भक्ति प्रतीकों का ज्ञान प्राप्त करती है बिना किसी हिचक के ये उनका प्रयोग भी करती हैं । जैसे- जल और मीन का प्रतीक परमात्मा एवं जीवात्मा के लिए प्रसिद्ध है । मीराबाई इसका सहज प्रयोग करती हैं । पानी में भी मीन प्यासी , मोह सुन सुन आवत हांसी । मीराबाई के काव्य सौंदर्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ उनके काव्य का गेय स्वरूप है हिंदी साहित्य के महत्वपूर्ण गीतिकाव्यों में मीरां के पद सम्मिलित हैं । सूरदास या विद्यापति के समान या शायद कहीं उनसे अधिक ही मीरां के पद जन सामान्य की कंठ ध्वनि बने हुए हैं । सूरदास के पदों में गीतिपरकता के समानांतर कृष्ण कथा की एक अंतर्वर्ती धारा प्रवाहित होती जान पड़ती है । दूसरी ओर विद्यापति के मुक्तक पद नायिका भेद की परंपरा में बँध जाते हैं । ये दोनों कवि कहीं न कहीं इन माध्यमों को कविता में सामान्य आकर्षण का हथियार बना कर काव्य प्रतिनिधि का मार्ग सरल कर देते हैं । इसके विपरीत मीरांबाई के पद ऐसा कोई आश्रय नहीं ढूँढ़ते । वे सीधे उनके हृदयोदगार हैं । इन पदों की मार्मिकता , मुक्त व्यवहार , संक्षिप्तता और सरसता इनमें विशेष गेयता भरती है । 

मीरां भक्ति परंपरा में स्थापित राग रागिनियों से भी परिचित थीं और उनका भी कुशल व्यवहार करती हैं । हाँ , ये अवश्य है कि वहाँ भी शास्त्रीयता का आग्रह नहीं है । यही स्थिति छंद प्रयोगों को लेकर भी है । वे लोक जीवन में प्रसिद्ध छंदों को चुनती हैं परंतु उसके प्रति कोई शास्त्रीय व्यवहार नहीं रखती । छंद प्रयोग यहाँ प्रायः त्रुटिपूर्ण ही हैं । मसला यहाँ त्रुटि का नहीं काव्य के प्रभाव का ही अधिक है और मीराबाई उसमें पूर्णतः सफल है मीरां के पद सीधे उनके हृदय के उदगार  है। ये पद युगों से स्थापित काव्य परंपरा से स्वच्छंद हैं । भाषा व भाव प्रत्येक दृष्टि से स्वच्छंदता का रागात्मक आवेग है जो सभी बंधनों को तोड़ता है । पर इस तोड़ने में ही कहीं भी असंयम या संकुचन का भाव नहीं हैं । मीराबाई की भक्ति की इसी स्वच्छंदता में जिसमें लोक - लाज की परवाह न थी , समाज का कोई भय न था । अपना मार्ग स्वयं तलाशने की शक्ति थी ।

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