परचा कौ अंग

साखियां
परचा कौ अंग
Paracha Kau Ang
परचा कौ अंग

कबीर तेज अनंत का मानौ ऊगी सूरज सेणि । पति संगि जागी सुन्दरी , कोतिग दीठा तेणि ।।1।।
भावार्थ : कबीर कहते हैं कि आत्मा को परमात्मा का परिचय इस प्रकार हुआ मानो उसे किसी सूर्य की कतार का आभास हो गया हो । आज आत्मा रूपी बहुरिया परमात्मा रूपी पति के साथ जागी तो उसे इस अनुपम आश्चर्यपूर्ण एकाकार का अभास हुआ । 

कौतिग दीठा देह बिन , रवि ससि बिना उजास । साहिब सेवा माँहिं , बेपरवाहीं दास ।।2।।

भावार्थ : आत्मा को जब परम ब्रह्म का परिचय हुआ तो उसने उस निराकार अद्भुत सौंदर्य को ऐसे देखा जैसे बिना सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश का दर्शन किया हो । जब आत्म परमात्मा में एकाकार होती है तो भक्त बेपरवाह होकर भी मुक्ति प्राप्त करता है।

पारब्रहा के तेज का कैसा है उनमान | कहिबे कूँ सोभा नहीं , देख्यहिं परवान ।।3।।

भावार्थ : परम ब्रह्म से परिचय होने पर आत्मा को जिस सौंदर्य की अनुभूति हुई है , उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता । क्योंकि उस अनंत प्रकाश का तो प्रत्यक्ष दर्शन ही सबसे बड़ा प्रमाण है ।

अगम अगोचर गमि नहीं , तहां जगमगै जोति । जहाँ कबीरा बंदिगी , ( तहा ) पाप पुन्य नहीं छोति ।।4।।

भावार्थ : अनंत परमात्मा की ज्योति संसार से परे है । उसे देखा नहीं जा सकता । जिसकी उसके प्रति श्रद्धा है , वह ब्रह्म शक्ति है तथा वहाँ किसी प्रकार की छुआछूत नहीं है । 

हदे छाडि बेहदि गया , हुवा निरंतर बास । कवल ज फूल्या फूल बिन , को निरवै निज दास ।।5।।

भावार्थ : सांसारिक हद को त्यागकर जब आत्मा परम ब्रह्म की हद में प्रवेश कर गई तो वहाँ अद्भुत नज़ारा था । वहाँ बिना मृणाल के कमल विकसित हुआ और जीवात्मा को आत्मा का परिचय होते ही संसार में उसे कोई देख भी नहीं सकता था । 

कबीर मन मधुकर भया , रह्या निरंतर बास । कवल ज फूल्या जलह बिन , को देखें निज दास ।।6।।

भावार्थ : आत्मा को परम ब्रह्म का परिचय होते ही साधक को यह अनुभूति हुई कि यहाँ परमात्मा रूपी कमल माया जल के बिना विकसित हो रहा है और इस प्रकार साधक का मन रूपी भ्रमर उस कमल रूपी ब्रह्म में लीन हो गया । 

अंतरि कवल प्रकासिया , ब्रह्म वास तहाँ होइ । मन भवरा तहां लुवधिया , जांगैंगा जन कोइ ।।7।।

भावार्थ : परम ब्रह्म के परिचय से आत्मा के ज्ञान चक्षु खुल गये और उसके हृदय में कमल विकसित हो गया । आत्मा रूपी भ्रमर उस परम ब्रह्म रूपी कमल का पान करने के लिये इतना लालायित है कि उसे विरले ही जान सकते हैं । 

सायर नाहीं सीप बिन , स्वांति बूँद भी नाहिं । कबीर मोती नीप , सुन्नि सिषर गढ़ मांहि ।।8।।

भावार्थ : मोती के लिये सागर , सीप और स्वाति नक्षत्र की बंद की आवश्यकता होती है लेकिन यहाँ बिना इन उपादानों के शून्य शिखिर पर परम ब्रह्म रूपी प्रभु के दर्शनांनंद रूपी मोती उत्पन्न हो रहे हैं । 

विशेष : विभावना अलंकार है । 

कहि कबीर परचा भया , गुरु दिखाई बाट । घट माँहि औघट लया , ओघट माँहि घाट ।।9।।

भावार्थ : आत्मा के परमब्रह्म से परिचय होने पर साधक को अपने हृदय में बड़ी विचित्र अनुभूति हुई और उसने निषिद्ध पंथ में गुरु के निर्देशन से घाट या किनारे को प्राप्त कर लिया । 

सूर समांणाँ चंद में दुहु किया घर एक । मनका च्यंता तब भया , कछु पूरबला लेख ।।10।।

भावार्थः सूर्य रूपी पिंगला नाड़ी और चंद रूपी इंगला नाड़ी दोनों सुष्मिना रूपी घर में एक हो गई । इस प्रकार वे परम तत्व रूपी ब्रह्माण्ड में अमृत पान करने लगी । यह मेरा पूर्व के सुकृत्यों का ही फल है ।

हद छाड़ि बेहद गया , किया सुन्नि असनान । मुनि जन महल न पावई , तहाँ किया विश्राम ।।11।।

भावार्थ : इस परम ब्रह्म रूपी सहस्र कमल में अमृत प्राप्ति जो मुनियों को भी दुर्लभ है । वह सांसारिक सीमा को छोड़कर निस्सीम ब्रह्म में प्रवृत होने से सहज ही प्राप्त हो जाता है । 

देखौ कर्म कबीर का , कछु पूरब जनम का लेख । जाका महल न मुनि लहै , सो दोसत किया अलेख ।।12।।

भावार्थ : कबीर ने पूर्व जन्म के संचित कर्मों और पुण्यों का फल बताते हुये कहा है कि शून्य महल का स्थान बड़े बड़े त्यागी मुनि प्राप्त नहीं कर पाते , वह निराकार ब्रह्म से दोस्ती करके मैंने प्राप्त कर लिया है । 

पिंजर प्रेम प्रकासिया , जाग्या जौग अनंत संसा खूटा सुख भया , मिल्या पियारा कंत ।।13।।

भावार्थ : हृदय में परम ब्रह्म के परिचय से जो अनंत प्रेम प्रकाशित हुआ उससे सांसारिक शंकायें समाप्त हो गई और आत्मा को परमात्मा रूपी परम ब्रह्म की प्राप्ति हो गई ।

विशेष : रूपक अलंकार । 

प्यंजर प्रेम प्रकासिया अंतर भया उजास । मुख कसतूरी महमहीं , वाणी फूटी बास ।।14।।

भावार्थ : अंतर हृदय में प्रेम के उदय होने से ज्ञान का उजाला हो गया , जिससे साधक का मुख महक से भर उठा । अर्थात् उसकी वाणी में सुगंध फूट पड़ी । 

मन लागा उनमन सौ , गगन पहुँचा जाइ । देख्या चन्द बिहूणा चाँदिणाँ , तह्याँ अलख निरंजन राइ ।।15।।

भावार्थ : साधक का मन जब विरक्ति से लग गया तो वो अनंत गगन में जा पहुँचा , जहाँ उसने निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार किया । उस निराकार की दिव्य ज्योति ऐसी लग रही थी कि मानो बिना चंद्रमा के ही अनंत ज्योति चाँदी छिटक रही हो । 

विशेष : विभावना अलंकार है । 

मन लागा उन मन सौं , उनमन मनहिं बिलग । लूंग बिलगा पाणियां , पांणी लूंण बिलग ।।16।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि जब चित्त सांसारिकता से विरक्त होकर उनमना अवस्था को प्राप्त कर ले तो यह अवस्था मन की अवस्था से बिलकुल भिन्न है । मन की स्वाभाविक अवस्था संसार में रमने की है जबकि उनमना होने का अर्थ संसार से वैराग्य होना है । जिस प्रकार नमक पानी में मिलकर एकाकार हो जाता है । उसी प्रकार उन्मना अवस्था में मन ब्रह्म में एकाकार हो जाता है । 

विशेष : सभंग यमक अलंकार ।

पाँणी ही तै हिम भया , हिम है गया बिलाइ । जो कुछ था सोइ भया , अब कछू कह्या न जाइ ।।17।।

भावार्थ : कबीर ने आत्मा और परमात्मा के अद्वैत को स्पष्ट करते हुये कहा है कि बर्फ पानी से बनती है और पुनः पानी में ही विलीन हो जाती है । उसी प्रकार जीवात्मा परमात्मा का ही अंश है और उसी के नष्ट होते ही वह परमात्मा में विलीन हो जाती है ।

भली भई जु भै पड्या , गई दसा सब भूलि । पाला गति पांणी भया , ढुलि मिलिया उस कूलि ।।18।।

भावार्थ : साधक मृत्यु भय से सांसरिक सुखों को भूलता है । जिस प्रकार बर्फ गलकर अपने यथार्थ अर्थात् पानी में आ जाती है । उसी प्रकार संसार त्यागकर आत्मा परम ब्रह्म में एकाकार हो जाती है । 

चौहटे च्यंतामणि चढ़ी , हाडी मारत हाथि मीराँ मुझसूँ मिहर करि , इब मिलौं न काहू साथि ।।19।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि संसार रूपी बाजार के चौराहे पर जीवात्मा रूपी चिंतामणि विक्रय के लिये रखी गई है , जहाँ माया रूपी दलाल उस पर हाथ मारना चाहते हैं लेकिन मेरे गुरु ने मेरे ऊपर कृपा करी और मुझे इन माया रूपी दलालों से बचा लिया । भाव यह है कि आत्मा माया रूपी सांसारिकता में अब भ्रमित होने वाली नहीं है ।

पंषि उडणीं गगन कूँ , प्यंड रह्या परदेस । पाँणी पीया चंच बिन , भूलि गया यहु देस ।।20।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि पक्षी रूपी आत्मा सांसारिक वासनाओं को छोड़कर शून्य प्रदेश में पहुँच गई , जहाँ उसने बिना चोंच अर्थात् इन्द्रियों के बिना सहस्र दल कमल से अमृत पान किया तो फिर इस संसार को भूल गई । विशेष : पक्षी , गगन और पानी तीनों प्रतीक हैं , जो सिद्धों नाथों से लिये गए हैं ।

पंषि उडानीं गगन कूं , उड़ी चढ़ी असमान । जिहिं सर मंडल भेदिया , सो सर लागा कान ।।21।।

भावार्थ : कबीर कह रहे हैं कि पक्षी रूपी आत्मा शून्य में पहुँच गई एवं उसने ब्रह्माण्ड में षट चक्रों को भेदकर गुरु द्वारा दिये गये मंत्र से मुक्ति को प्राप्त कर लिया । 

विशेषः नाथ साहित्य में पक्षी को कुण्डलिनी , मन तथा साधक के रूप में माना गया है । कुण्डलिनी जाग्रत होने पर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा षटचक्रों को भेदते हुए जीवात्मा सहस्रार में प्रवेश करती है । 

सुरति समाँणी निरति मैं , निरति रही निरधार । सुरति निरति परचा भया , तब खुले स्यंभ दुवार ।।22।।

भावार्थ : कबीर ने कहा है कि जब स्मृतिज्ञान / साधना भक्ति का बाह्य पक्ष और अवधि ज्ञान / साधना का आंतरिक पक्ष एकाकार हो जाते हैं तो इनके परिचय से साक्षात् ब्रह्म का द्वार खुल जाता है ।

सुरति समणी निरति मैं , अजपा महि जाप ,लेख समाँणा अलेख मैं , यूँ आपा महि आप ।।23।।

भावार्थ : जब सुरति और निरति एकाकार हो जाती हैं तो जाप और मौन भी एकाकार हो जाते हैं । इस अवस्था में साकार ब्रह्म और निराकार ब्रह्म का भेद समाप्त हो जाता है । और आत्मा तथा परमात्मा का मिलन हो जाता है । 

आया था संसार में देषण कौं बहु रूप । कहै कबीरा संत ही , पड़ि गया नजरि अनूप  ।।24।।

भावार्थ : मैं इस संसार रूपी सागर में अनेक रूपों को देखने के लिए आया था लेकिन परम ब्रह्म से परिचय होते ही उस अनुपम दृष्टि से मैं स्वयं परम ब्रह्ममय हो गया ।

अंक भरे भरि भेटिया , मन मैं नाँही धीर । कहै कबीर ते क्यूँ मिलैं , जब लग दोइ सरीर ।।25।।

भावार्थ : परमात्मा रूपी प्रिय मिल गया और उससे गले लगकर भी मन को संतोष नहीं हो रहा है । कबीर कहते हैं कि जब तक मन में द्वैतभाव रखेगा तब तक उसे ब्रह्म की अनुभूति नहीं हो सकती अर्थात् आत्मा और परमात्मा का द्वैत मुक्ति में बाधक है । 

सचु पाया सुख ऊपनाँ , अरु दिल दरिया पूरि । सकल पाप सहजै गये , जब साँई मिल्या हजूरि ।।26।।

भावार्थ : ब्रह्म रूपी सत्य प्राप्त करने से हृदय में सुख उत्पन्न हुआ और हृदय प्रेम से भर गया । सारे पाप दूर हो गए और सच्चे सुख की प्राप्ति हुई । 

धरती गगन पवन नहीं होता , नहीं तोया नहीं तारा । तब हरि हरि के जन होते , कहै कबीर बिचारा ।।27।।

भावार्थ : कबीर संसार को नश्वर कहते हैं और संसार के पाँचों तत्व विनिष्ट हो जाएँ तो परमात्मा और आत्मा ही रहते हैं ।

जा दिन कृतमनां हुता , होता हट न पट । हुता कबीरा राम जन , जिनि देखै औघट घट ।।28।।

भावार्थ : जिस दिन मेरा मन ससार के कृत्रिम या मिथ्या क्रियाओं से रहित होगा उस दिन मुझे अपने घट में ही परमात्मा के दर्शन होंगे । 

थिति पाई मन थिर भया , सतगुर करी सहाइ । अनिन कथा तनि आचरी , हिरदै त्रिभुवन राई ।।29।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि सदगुरु की सहायता से मन ने स्थिरता पाई , जिससे हृदय में अनन्य कथा का आचरण हुआ और त्रिभुवन पति ब्रह्म के दर्शन हुये ।

हरि संगति सीतल , भया , मिटा मोह की ताप निस बासुार सुख निध्य लया , जब अंतरि प्रकट्या आप ।।30।।

भावार्थः परमात्मा के परिचय से आत्मा को सांसारिक विषय वासनाओं के तप से मुक्ति मिली और उस ब्रह्म के हृदय में प्रगट होने से रात - दिन परमानंद की प्राप्ति हुई । 

तन भीतरि मन मानियाँ , बाहरि कहा न जाइ । ज्वाला तै फिरि जल भया , बुझी बलंती लाइ ।।31।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि परम ब्रह्म के परिचय से मन में स्थिरता प्राप्त हुई और इससे वह अब सांसारिक मिथ्याचार की ओर नहीं दौड़ता । विषय - वासनाओं से विरक्त होने पर सहस्त्राधार शून्य में स्नान कर सांसारिक तपन दूर हो गई । 

तत पाया तन बीसरया , जब मुनि धरिया ध्यान | तपनि गई सीतल भया , जब सुनि किया असनान ।।32।।

भावार्थ : परम तत्व की प्राप्ति से शरीर की सुध जाती रही । परम ब्रह्म का अंतरमय ध्यान करने से सांसारिक ताप मिटे और परम शीतलता प्राप्त हुई । 

जिनि पाया तिनि सू गह्या , रसनाँ लागी स्वादि । रतन निराला पाईया , जगत ढंढाल्या बादि ।।33।।

भावार्थ : जिन्होंने परमात्मा रूपी राम रतन को अच्छी तरह प्राप्त कर लिया , उन्होंने अपनी जीभ से अमृत का स्वाद चख लिया । उस परम रतन को प्राप्त करने के आनंद को संसार व्यर्थ ही ढिंढोरा पीटता है । वास्तव में उसके आनंद को जिह्वा से बखान नहीं किया जा सकता । 

कबीर दिल स्याबति भया , पाया फल संभ्रथ्थ | सायर माँहि ढंढोलताँ , हीरै पड़ि गया हथ्था ।।34।।

भावार्थ : परम ब्रह्म रूपी फल को पाकर हृदय आनंद से परिपूर्ण हो गया है । इस भवसागर में भटकते - भटकते इस अद्भुत रत्न की प्राप्ति हुई है । 

जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि है मैं नाँहि । सब अँधियारा मिटि गया , जब दीपक देख्या माँहि ।।35।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि जहाँ अहंकार होगा , वहाँ परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती और जब परमात्मा से परिचय हो जायेगा तो वहाँ अहंकार नहीं रह सकता । जिस प्रकार दीपक के आने पर सारा अँधियारा दूर हो जाता है , उसी प्रकार आत्मा - परमात्मा से परिचय करते ही अहंकार से मुक्त हो जाती है ।

जा कारणि मैं ढूँढ़ता , सनमुख मिलिया आइ । धन मैली पिव ऊजला , लागिन सकौं पाइ ।।36।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि जिस ब्रह्म रूपी प्रिय को खोजने आत्मा रूपी स्त्री निकली उसे सम्मुख पाकर भी एकाकार न हो सकी , क्योंकि परमात्मा रूपी प्रिय अत्यन्त उज्वल थे और आत्मा रूपी स्त्री अत्यन्त मलिन । इसी संकोच के कारण आत्मा परमात्मा रूपी पति के पैर नहीं छू पाई । 

जा कारण मैं जाइ था , सोई पाई ठौर । सोई फिर आपण भया , जासूँ कहता और ।।37।।

भावार्थ : जिस ब्रह्म की खोज मैं अन्यत्र कर रहा था , वह मुझे अपने ही हृदय में मिल गया और जब आत्मा का परमात्मा से परिचय अपने हृदय में हुआ तो जिसे वह और समझने लगी वह खुद में ही अनुभूत हो गया । 

कबीर देख्या एक अंग , महिमा कही न जाइ । तेज पुंज पारस घणी , नैनूँ रहा समाइ ।।38।।

भावार्थ : परम ब्रह्म के परिचय का साधक वर्णन नहीं कर पा रहा है । वह अमित प्रकाशवान पुंज पारस से भी महान है , जो साधक की आँखों में समाया हुआ है । 

मानसरोवर सुभर जल , हंसा केलि कराहिं । मुकताफल मुकता चुगैं , अब उड़ि अनत न जाहिं ।।39।।

भावार्थ : मन रूपी सरोवर भक्ति रूपी जल से भरा हुआ है , जिसमें जीवात्मा रूपी हंस क्रीड़ायें कर रहे हैं । इस अलौकिक आनंद में हंस मुक्ति रूपी मोती चुगते हैं , इसलिये वे कहीं अन्यत्र नहीं जाते । 

गगन गरिजि अमृत चवै , कदली कंवल प्रकास । तहाँ कबीरा बंदिगी , कै कोई निज दास ।।40।।

भावार्थः परमात्मा से परिचय करने पर नैरात्म्य रूप शून्य गगन में अनहद नाद की गर्जन सुनाई पड़ रही है । सहस्रार से अमृत की वर्षा हो रही है और मेरूदण्ड रूपी कदली हरया गयी है जिससे सहस्रदल कमल विकसित हो रहा है । प्रभु कृपा से इस अद्भुत दशा को कोई विरला आत्मसेवक हो प्राप्त कर सकता है । 

नींव बिहूणां देहुरा , देह बिहूँणाँ देव । कबीर तहाँ बिलंबिया करे अलष की सेव ।।41।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि परम ब्रह्म के परिचय से बिना आधार के ब्रह्म मंदिर और बिना देह के निराकार ब्रह्म का ज्ञान हुआ है । वहाँ अलख रूपी ब्रह्म की निंरतर सेवा हो रही है ।

देवल माँहों देहुरी , तिल जेहैं बिसतार । माँहैं पाती माँहिं जल , माँहे पुजणहार ।।42।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि परम ब्रह्म के मंदिर में जो देहरीहै , उसका विस्तार एक तिल के बराबर है । भाव यह है कि इस शरीर के बड़े देवालय में नैरात्म्य दशा रूप एक छोटा - सा अर्चनालय है , जिसका विस्तार बहुत कम है , किन्तु ब्रह्म की उपासना उसी में हो जाती है । उसी में पूजा का जल है और वहीं पूजा का पत्र और वहीं तिल भर स्थान में पूजण हार भी है । 

कबीर कवल प्रकासया , ऊग्या निर्मल सूर निस अंधियारी मिटि गई , बाजै अनहद तूर ।।43।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि ज्ञान रूपी निर्मल सूर्य के उदय से सहस्र दल रूपी कमल विकसित हो गये हैं । इस प्रकार अज्ञान की रात्रि समाप्त हो गई है और प्रकाश रूपी अनहद नाद ध्वनित हो रहा है । 

अनहद बाजै नीझर झरै , उपजै ब्रह्म गियान | अविगति अंतरि प्रगटै , लागै प्रेम धियान ।।44।।

भावार्थ : परम ब्रह्म के परिचय से अनहद नाद रूपी बाजा बज रहा है और सहस्रार से अमृत का झरना झर रहा है । ब्रह्म ज्ञान हृदय में प्रकट हो रहा है और प्रेम की चरमानुभूति हो रही है ।

आकासै मुखि औंधा कुवाँ,पाताले पनिहारि । ताका पाँणीं को हंसा पीवै , बिरला आदि बिचारि ।।45।।

भावार्थः नैरात्म्य रूप प्रकाश में सहस्रार रूप अमृत जल से कूप उल्टे मुख हैं । उसके अमृत को ग्रहण करने वाली कुण्डलिनी रूपी पनिहारी मूलाधार चक्र रूपी पाताल में पड़ी हुई है । कोई विरला व्यक्ति है जो इस तत्व पर विचार करने वाला परम अंश है जो अपनी कुण्डलिनी सहस्रार में पहुँचाकर इस अमृत का जलपान करता है ।

विशेष : विरोधाभास अलंकार । 

सिव सकती दिसि कौंण जु जोवै , पछिम दिसा उठै धूरि । जल मैं स्यंघ जु घर करै , मछली चढ़ खजूरि ।।46।।

भावार्थ : शिव शक्ति के निवास की दिशा के कोने में साधक का ध्यान लगते ही सुषुम्ना रूपी पश्चिमी दिशा में विक्षोभ रूपी धूल उठने लगती है । जब इड़ा पिंगला के प्रभाव रूपी जल में अनहद नाद रूपी सिंह घर कर लेता है । तब कुण्डलिनी रूपी मछली मेरूदंड रूपी खजूर पर चढ़ जाती है । 

अमृत बरसै हीरा निपजै , घंटा पड़ै टकसाल । कबीर जुलाहा भया पारषू , अनभै उतरया पार ।।47।।

भावार्थ : कबीर कहते हैं कि सहस्रार से अमृत की वर्षा होती है तो मुक्त चित्त रूपी हीरा उत्पन्न होता है । इस टकसाल में अनहद नाद रूपी घण्टा बजता है । जुलाहा कबीर इस चित्त रूपी हीरे का सच्चा पारखी हो गया है अतः वह निर्भीक होकर संसार से पार उतर गया है । 

ममिता मेरा क्या करै , पेम उघाड़ी पौलि ।  सोडी भया दयाल का , सूल भई सुख ।।48।।

भावार्थ : कबीर दास कहते हैं कि संसार की ममता मेरा क्या बिगाड़ सकती है , क्योंकि प्रेम ने मेरे लिये हरि का द्वार खोल दिया है । मैं उस दयालु का दर्शन कर रहा हूँ । इस आनंद की स्थिति में मेरे सारे कष्ट सुखद लिहाफ बन गये हैं ।

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