पद्मावती समय
Padmavati Samaya
भाग – 3 (पद 16-30 व्याख्या सहित)
- संभरि नरेस पहुंआन यानं , प्रथिराज तहां राजंत भानं ।
- सह बरीस पोडस नरिवं , आजानु बाहु भुअलोक चंद ।।
- संभरि नरेस सोमेस पूत , देवंत रूप अवतार धूत ।
- तासु मंसूर सर्व अपार , भूजान भीम जिम सार भार ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दवरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि वह दिल्ली का किला चौहान वंशी ' शाकम्बरी ' राजाओं की राजधानी है । वहां दिल्ली में पृथ्वीराज सूर्य के समान सुशोभित है । उस राजा की आयु केवल सोलह वर्ष है । वह मनुष्यों में इंद्र के समान प्रतापी है । घुटनों तक लम्बी - लम्बी उसकी भुजाएं हैं और वह इस पृथ्वी लोक पर इन्द्र के समान बलशाली राजा है । कहने का तात्पर्य यह है कि सोलह वर्ष की अल्प आयु में पृथ्वीराज ने इन्द्र के समान अपनी वीरता और प्रताप का परिचय दे दिया था । इसलिए कवि ने उसे पृथ्वी पर इन्द के समान शक्तिशाली माना है । पृथ्वीराज सांभर के राजा सोमेश्वर का बेटा है । देवताओं के समान सुन्दर रूप धारण करके उसने पृथ्वी पर अवतार लिया है । वह बड़ा ही अद्भुत वीर और बलवान है । उसके सभी सामंत भी वीर आर बलवान हैं । वीर सामंतों की भुजाएं भीम की भुजाओं के समान सुदृढ तथा लोहे के समान कठोर हैं ।
विशेष : पद्धरी छन्द का सुन्दर प्रयोग है ।
[ 17 ]
- जिहि पकटि साह साहाब लीन , सिंह बेर कटिल पानीप हीन ।
- सिंगिनि सुसह गुन चढ़ि जंजीर , चुक्के न संबद धंत तीर ।।
- बल बैन करन जिमि दांन पान सत्त सहस सील हरिचंद सयान ।
- साहस सुक्रम विक्रम जु बीर , दानव सुगंत अवतार धीर ।।
- विस - ध्यारि जानि सब कला भूप , कूबप्प जान अवतार रूप ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि ये वही वीर एवं प्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान हैं जिसने गजनी के राजा शहाबुद्दीन को तीन बार पकड़ा और उसकी प्रतिष्ठा को धूल में मिलाकर छोड़ दिया । ऐसे उस वीर पृथ्वीराज के धनुष पर लोहे के जंजीर की डोरी चढ़ती है । ( यदि यहां सिंगिनी का अर्थ सिगिनि न किया जाये तो अर्थ होगा - संगी का बना धनुष । इसी प्रकार से सामान्य धनुष में प्रायः रेशम , धागे या चमड़े की तांत की दोरी ( प्रत्यंचा ) चढ़ाई जाती है । परन्तु पृथ्वीराज के धनुष की डोरी लोहे की जंजीर की बनी थी । पृथ्वीराज के धनुष की प्रत्यंचा की तन्कार से भयंकर ध्वनि उत्पन्न होती थी । पृथ्वीराज अचूक शब्दवेधी बाण चलाने वाले योद्धा थे । पृथ्वीराज की वीरता और दानवीरता का वर्णन करते हुए तोता कहता है कि ये वचन का पालन करने में राजा बलि के समान थे तथा दान देने में राजा कर्ण के समान और वह शील ( सुन्दर आचरण ) में सैकड़ों हरिश्चन्द्र राजाओं के समान हैं । ( यदि यहां सत् का अर्थ सत्य माना जाए तो अर्थ होगा - वह सत्य और शील का पालन करने में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के समान है ) । साहस तथा सद्कर्म करने में वह राजा विक्रमादित्य के समान वीर तथा साहसी है । उन्होंने उन्मत दानवों का संहार करने के लिए अवतार लिया है और वे बड़े ही धैर्यवान हैं । चारों दिशाओं में सभी लोग उस प पृथ्वीराज की कला अर्थात् तेजस्वी रूप को अच्छी प्रकार से जानते है । वह शरीर रूप से इतना सुन्दर है कि मानो साक्षात् कामदेव का अवतार है । इस प्रकार पृथ्वीराज शूरवीर , दानवीर और धैर्यशाली हैं ।
[ 18 ]
- कामदेव अवतार हुआ , सुभ सोमेसर नन्द ।
- सहस - किरन मलहल कमल , रति समीप बर बिन्द ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि राजा सोमेश्वर के हृदय में आनन्द प्रदान करने वाला उनका यह राजकुमार ऐसा लग रहा था , मानो कामदेव ने उसके रूप में स्वयं अवतार लिया है । पृथ्वीराज कमलों को प्रफुल्लित करने वाले सहस्रों किरणों से सुशोभित चमकते हुए सूर्य के समान तेजस्वी है तथा वह रति के पास स्थित उसके पति कामदेव के समान सुन्दर हैं । इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान का रूप सौन्दर्य अनुपम है ।
[ 19 ]
- सुनत स्त्रबन पधिराज जस , उमग बाल विधि अंग ।
- तन मन पित्त पहुआन पर , बस्यौ सु - स्त्रह रंग ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि अपने कानों से पृथ्वीराज चौहान के यश को सुनकर पद्मावती के शरीर के सभी अंग - प्रत्यंग पूर्णतः उमंगित हो उठे । अर्थात् पद्मावती के शरीर के सभी अंगों में रोमांच उत्पन्न हो गया । उसके शरीर , मन और हृदय पर चौहान राजा पृथ्वीराज का रंग चढ़ गया । भाव यह है कि तोते के मुख से पृथ्वीराज के यश और वीरता का वर्णन सुनकर पद्मावती शरीर , मन और ह्रदय से पृथ्वीराज से प्रेम करने लगी । यह पृथ्वीराज के प्रेम में रंग गई तथा उस पर अनुरक्त हो गई । इस प्रकार पद्मावती के हृदय में पृथ्वीराज के प्रति असीम प्रेम जाग्रत हो गया ।
- बैंस बिती ससिता गई . आगम कियो बसन्त ।
- मात - पिता चिन्ता भई , सोधि जुगति की कन्त ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि अब पद्मावती की बाल्यावस्था व्यतीत हो गई थी । अर्थात् उसकी शिशुता अर्थात् बचपन समाप्त हो गया । उसके शरीर में बसन्त का आगमन होने लगा अर्थात् उसके शरीर में यौवन के चिन्ह दिखाई देने लगे । यह देखकर उसके माता पिता को चिन्ता सताने लगी कि उसके लिए ( पद्मावती ) उचित वर की खोज करनी चाहिये । इस प्रकार पुत्री के यौवनावस्था में पहुंचने पर उसके लिए वर की खोज की चिन्ता माता - पिता के लिए सहज एवं स्वाभाविक है ।
[ 21 ]
- सोधि जुगति की कन्त , कियो तब पित्त यहाँ विस ।
- लयो विन गस बोल , कही समुझाय बात तस ।।
- नर नरिन्द नरपति गढ़ दुग्ण असेसह ।
- सीलवन्त सुद्ध . देहु कन्या सुनरेसह ।।
- तब चलन बेहु दुज्जह लगन , सगुन बन्द हिय अप्प तन ।
- आनन्द उच्छाह समुबह सिधर , बजत नह नीसांन धन ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि राजा विजय अपनी बेटी पद्मावती के लिए योग्य वर खोजने के लिए अपने मन को चारों दिशाओं में दौड़ाया । बाद में उसने अपने कुल पुरोहित को बुलाया और उसे सारी बात समझाकर कही । उसने कहा कि इस संसार में अनेक मानव और मानवों में इन्द्र के समान बड़े - बड़े प्रतापी राजा और नरेश हैं । उनके पास अनेक बड़े - बड़े किले और दुर्ग हैं । तुम उनमें से जिसको शीलवान और श्रेष्ठ ( युद्ध ) कुल का समझते हो , उस सुन्दर राजा को यह कन्या दे दो , अर्थात् तुम किसी कुलीन शीलवान और प्रतापी राजा को देखकर मेरी बेटी पद्मावती की सगाई पक्की कर दो । यह सब समझाने के बाद राजा विजय ने अपने कुल पुरोहित को लग्न तथा टीके की रोली आदि सारी सामग्री अपने हार्थों से देकर उसे यात्रा के लिए विदा कर दिया । यही नहीं , राजा ने अपने मन में शुभ शकुनों का विचार किया और ईश्वर से प्रार्थना की कि वह अपने इस कार्य में सफलता प्राप्त करे । राजकुमारी का टीका भिजवाने की खुशी में समुद्र शिखर राज्य में चारों ओर आनन्द और उत्साह की लहरें दौड़ गई और बादलों की गम्भीर गर्जना के समान गदगढ़ाहट में भयंकर नगाड़े बजने लगे । इस प्रकार राजकुमारी का टीका भिजवाने का शुभ समाचार सुन कर समुद्र शिखर राज्य का प्रत्येक जन आनन्द और उत्साह में परिपूर्ण होकर झूम उठा ।
[ 22 ]
- सवालण उत्तर , सयल , कमऊं गढ़ दूरंग ।
- राजत राज कुमोदमनि , हय गय निबं अमंग ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि उत्तर दिशा में शिवालिक नामक पर्यंत की श्रेणियों में कुमायूं नाम का एक अत्यन्त दुर्गम किला विद्यमान है । वहां पर कुमोदमणि नाम का राजा राज्य करता हुआ सुशोभित हो रहा है । उस राजा कुमोदमणि के पास असंख्य घोड़े , हाथी तथा अपार धन - सम्पत्ति है ।
[ 23 ]
- नारिकेल फल परठि दुज , चौक पूरि मनि - मुत्ति ।
- दई जु कन्या बचन बर , अति अनन्द करि जुति ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि कुमायूं के दुर्ग में पहुंच कर राजा विजय के कुल - पुरोहित ने मणियों और मोतियों से चौक पूर कर उसके बीच नारियल के फल स्थापित कर दिया और फिर आनन्दपूर्वक विधि से पद्मावती का राजा कुमोदमणि के साथ वाग - दान कर दिया । अर्थात् कुल - पुरोहित ने राजा कुमोदमणि के साथ पद्मावती की सगाई पक्की कर दी ।
[ 24 ]
- भुजंगी - विहहसित व लगन लिन्नो नरिन्दं ।
- बजी द्वार द्वारं सु आनन्द दुन्दु ।
- गठनं गई पति सब बोल नुत्ते ।
- आइयं भूष सब कटुम्म सुजते ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि वर अर्थात् राजा कुमोदमणि ने प्रसन्नतापूर्वक ( मधुर हास्य के साथ ) राजा विजय के कुल - पुरोहित द्वारा दी गई लग्न को ले लिया । यह समाचार सुनकर कुमायूं नगर के प्रत्येक द्वार पर घर - घर में आनन्द के नगाड़े बजने लगे । राजा कुमोदमणि ने अपने सभी गढ़ पतियों को अर्थात् राजाओं और सामन्तों को निमन्त्रण देकर अपने यहां बुलावा भेजा और सभी राजा लोग सपरिवार वहां पहुंच गये । इस प्रकार राजा कुमोदमणि की सगाई का समाचार सुनकर सभी राजा गढ़ - पति , सामंत और प्रजा आनंद और प्रसन्नता से भाव विभोर हो उठे ।
विशेष : भुजंगी छन्द का सुन्दर प्रयोग है ।
[ 25 ]
- भुजंगी - पले बस सहस्सु असबार जानं ।
- परिय पैवल तेलीस थान ।
- मत मद गलित सौ पंच बन्ती ।
- मनो सीय पाहारगति पंती ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि राजा कुमोदमणि अपनी बारात को सजाकर कुमायूं से चल पड़ा । उसके साथ दस हजार घुड़सवार और हाथी तथा भारी संख्या में पैदल सैनिक थे । उनसे तीस पड़ाव पूरी तरह से भर गए थे । कहने का भाव यह है कि सेना के तीस स्थानों को पूरी तरह भर देने वाले पैदल सैनिक थे अथवा यह अर्थ भी किया जा सकता है कि राजा की बरात में तेंतीस स्थानों से आए असंख्य पैदल सैनिक थे । कवि पुनः कहता है कि बारात के साथ पांच सौ मदोन्मस्त हाथी थे जिनके मस्तकों से मद टपक रहा था । उन हाथियों के सफेद लम्बे दांत ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो काले पर्वतों पर सफेद बगुले पंक्तियां बांध कर बैठे हों । इस प्रकार राजा कुमोदमणि की बारात का वैभवशाली दर्शन देखकर मानव - मात्र का हृदय प्रसन्न हो जाता है ।
[ 26 ]
- भुजंगी चले अग्गि तेजी जु तत्ते तुषारं ।
- चौवरं चौरासी जु सकत्ति भाएं ।
- कंठ नगं नूपं अनोपं सुलालं ।
- रंग पंच डलकन्त बाल ।।
व्याख्या :
महाकवि चन्दबरदाई मनभावन चित्रण करता हुआ कहता है कि राजा कुमोदमणि की बारात में तुषार देश के अत्यधिक तेज दौड़ने वाले घोड़े बड़ी तेजी के साथ सबसे आगे चलने लगे । इन घोड़ों के मस्तकों पर कलंगियां लगी थी और उनके गले में घुंघुरुओं की माला अर्थात् चौरासियां सुशोभित हो रही थीं । ये घोड़े अपनी ही शक्ति के बोझ से लदे हुए थे । उनके गले में अत्यधिक सुन्दर और अनुपम रत्नों के लालों से जड़ी काठियां सुशोभित हो रही थीं । उन घोड़ों की पीठ पर लटकती हुई पांच रंगों वाली ढाले घोड़ों के तेज चलने से हिल रही थीं । इस प्रकार घोड़े साज - सज्जा के सुसज्जित आकर्षक लग रहे थे ।
[ 27 ]
- भुजंगी - पंच गुट सुर सबाद बाजिन्न बाज ।
- सहस समनाय मिग मोहि राज ।
- समुद्र सिर सिषर उच्छाह मह ।
- रचित मुण्ड तोरन श्रीयगा ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनमोहक चित्रण करता हुआ कहता है कि समुद्र शिखर में पांच प्रकार के वाद्य - यन्त्रों ( ताल , संत्री , नगाड़ा , झांज , तुरी ) अपने भिन्न - भिन्न प्रकार के पांच स्वरों के साथ बजाए जा रहे थे ।मृगों को भी मोहित करने वाला हजारों शहनाईयों का संगीत चारों ओर गूंज रहा था । समूचे समुद्र शिखर प्रदेश में उत्साह और आनन्द का वातावरण छाया हुआ था । नगरों के चारों तरफ अपार शोभाशाली सुन्दर मण्डप तथा बन्दनवारें सजाए गए थे । इस प्रकार सम्पूर्ण प्रजा में प्रसन्नता और उल्लास का वातावरण छा गया ।
विशेष भुजंगी छन्द का सुन्दर एवं आकर्षक प्रयोग है ।
[ 28 ]
- पदमावती बिलख कर बालबेली ।
- कही कीर सायात तब हो अकेली ।
- झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं ।
- वर पहुंवान जुआनी नरेस ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनमोहक चित्रण करता हुआ कहता है कि अपनी बारात के आने का समाचार सुनकर श्रेष्ठ तथा सुन्दर कोमल लता के समान कांपती हुई पद्मावती अत्यन्त व्याकुल होकर रोने लगी । बिलखते हुए उसने एकान्त में तोते से ये बात कही - हे तोते ! तुम जल्दी से अर्थात् शीघ्रता से सुन्दर देश दिल्ली चले जाओ । यदि तुम वहां के राजा पृथ्वीराज चौहान को यहां ले आओ तो मैं उनका वरण करुंगी । इस प्रकार पद्मावती पृथ्वीराज चौहान से मिलने के लिए अत्यन्त व्याकुल है ।
[ 29 ]
- औनी तुम पहुंबान वर , अरू कहि वह संदेस ।
- साँस ससिरहि जी . प्रिय प्रधिराज नरेस ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनमोहक चित्रण करता हुआ कहता है कि तुम मेरे ( मन चाहे ) वर अर्थात् पति पृथ्वीराज चौहान को यहां ले आओ । साथ ही उन्हें मेरा यह संदेश कहना कि मेरे शरीर में जब तक सांसे रहेंगी , तब तक राजा पृथ्वीराज चौहान ही मेरे प्रियतम रहेंगे । कहने का भाव यह है कि जब तक मैं जीवित रहूँगी , तब तक पृथ्वीराज के अतिरिक्त किसी अन्य राजा को अपना पति स्वीकार नहीं करूंगी । मेरा एकनिष्ठ प्रेम उसी दिल्ली नरेश से है ।
[ 30 ]
- प्रिय प्रथिराज नरेस , जोग तिथि कगार दिन्नौ ।
- लगुन बरग रधि सरब , दिन बावस ससि लिन्नी ।।
- से अरु ग्यारह तीस साथ संपत परमानह ।
- जीवित्री कुल सुद्ध वरनि वर बहु प्रानहं ।।
- दिगंत दिष्ट चच्चरिथ बर , इक पलक बिल्लब न करिव ।
- अलगाट रयन दिन पंच महि , ज्यों रुकमिनि कन्हर करिय ।।
व्याख्या
महाकवि चन्दबरदाई मनमोहक चित्रण करता हुआ कहता है कि पद्मावती ने अपने प्रियतम राजा पृथ्वीराज चौहान के लिए यथायोग्य लिखकर एक पत्र तोते को दे दिया । उसने इस पत्र में यह लिखा कि उसका विवाह किस तिथि को तथा किस लग्न में होने जा रहा है । उसने लिखा था कि शक सम्वत् 1130 के वैशाख महीने की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को उसका विवाह होना निश्चित हुआ है । पद्मावती ने अपने विवाह की तिथि , समय , स्थान आदि का पूरा विवरण पत्र में लिख दिया । आगे पत्र में उसने लिखा - अगर तुम मुझे शुद्ध कुल की स्त्री समझते हो अर्थात् तुम यदि समझते हो कि मेरा कुल तुम्हारे साथ सम्बन्ध रखने योग्य है तो तुम मेरा वरण करके मेरे प्राणों की रक्षा करो । हे प्रियतम तुम इस पत्र को अपनी दृष्टि से देखते ही तत्काल उठकर चल देना ओर एक पल की भी देरी न करना । अर्थात् यदि तुम समय पर न पहुंचे तो मेरा विवाह तुमसे नहीं हो सकेगा । जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने रुकमिणी का वरण किया था उसी प्रकार तुम पांच दिन - रात में अर्थात् गुप्त रूप से आकर मेरा वरण कर लो । इस प्रकार पद्मावती पृथ्वीराज को पत्र भेजकर प्रेम पूर्वक आने का निवेदन करती है
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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