सुमित्रानंदन पंत Sumitranandan Pant

 सुमित्रानंदन पंत 
Sumitranandan Pant 

(20 मई 1900 – 28 दिसम्बर 1977) 

सुमित्रानंदन पंत


हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्म कौसानी बागेश्वर नामक ग्राम में 20 मई 1900 ई॰ को हुआ । जन्म के कुछ समय बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया। इनका लालन-पालन इनकी दादी ने किया । इनका नाम गोसाईं दत्त रखा गया , जिसे बाद में इन्होंने स्वयं ही बदलकर सुमित्रानंदन कर लिया । ये अपने पिता गंगादत्त पंत की आठवीं संतान थे । कौसानी यानी इनका गांव मानो प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त का अद्भुत स्थल था । पंत जी का बाल्यकाल यहीं बिता । इस गांव की प्रकृति को इन्होंने बाकायदा अपनी मां माना और जीवनपर्यंत मानते रहे ।  झरना, बर्फ, पुष्प, लता, भ्रमर-गुंजन, उषा-किरण, शीतल पवन, तारों की चुनरी ओढ़े गगन से उतरती संध्या ये सब  सहज रूप से काव्य का उपादान बने । निसर्ग के उपादानों का प्रतीक  व बिम्ब के रूप में प्रयोग इनके काव्य की विशेषता रही । इनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र था । गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, सुगठित शारीरिक सौष्ठव इन्हें सभी से अलग मुखरित करता था ।

ये 1910 में शिक्षा प्राप्त करने गवर्नमेंट हाईस्कूल अल्मोड़ा गये । यहीं इन्होंने अपना नाम गोसाईं दत्त से बदलकर सुमित्रनंदन पंत रख लिया । 1918 में मँझले भाई के साथ काशी गये और क्वींस कॉलेज में पढ़ने लगे । वहाँ से हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण कर म्योर कालेज में पढ़ने के लिए इलाहाबाद चले गए । 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के भारतीयों से अंग्रेजी विद्यालयों, महाविद्यालयों, न्यायालयों एवं अन्य सरकारी कार्यालयों का बहिष्कार करने के आह्वान पर इन्होंने महाविद्यालय छोड़ दिया और घर पर ही हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी भाषा के साहित्य का अध्ययन करने लगे ।

 इलाहाबाद में इनकी काव्यचेतना का विकास हुआ । कुछ वर्षों के बाद इन्हें घोर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा । कर्ज से जूझते हुए पिता का निधन हो गया । कर्ज चुकाने के लिए जमीन और घर भी बेचना पड़ा । इन्हीं परिस्थितियों में वह मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुये । 1931 में कुँवर सुरेश सिंह के साथ कालाकांकर, प्रतापगढ़ चले गये और अनेक वर्षों तक वहीं रहे । गाँधी के सान्निध्य में इन्हें आत्मा के प्रकाश का अनुभव हुआ । 1938 में प्रगतिशील मासिक पत्रिका 'रूपाभ' का सम्पादन किया । श्री अरविन्द आश्रम की यात्रा से आध्यात्मिक चेतना का विकास हुआ । 1950  से 1957 तक आकाशवाणी में परामर्शदाता रहे। 1958 में 'युगवाणी' से 'वाणी' काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन 'चिदम्बरा' प्रकाशित हुआ, जिसपर 1968 में इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार प्राप्त हुआ । 1960  में 'कला और बूढ़ा चाँद' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' प्राप्त हुआ। 1961 में 'पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित हुये। 1964 में विशाल महाकाव्य 'लोकायतन' का प्रकाशन हुआ। कालान्तर में इनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हुए । ये  जीवन-पर्यन्त रचनारत रहे।

प्रकृति के इस अद्भुत चितेरे की मृत्यु 28 दिसंबर, 1977 को घातक दिल के दौरे से हुई । 

  • इनकी मृत्यु पर डॉ हरिवंश राय बच्चन ने कहा था ‘सुमित्रानंदन पंत की मृत्यु से छायावाद के एक युग का अंत हो गया है।‘

प्रमुख कृतियाँ

प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी के काव्य का विकास चार चरणों में हुआ ।  प्रथम में ये छायावादी हैं, दूसरे में समाजवादी आदर्शों से प्रेरित प्रगतिवादी तथा तीसरे में अरविन्द दर्शन से प्रभावित अध्यात्मवादी , चौथा चरण नव मानवतावाद है । 1907 से 1918 के काल को स्वयं इन्होंने अपने कवि-जीवन का प्रथम चरण माना है । इस काल की कविताएँ वाणी में संकलित  हैं । इनकी प्रमुख रचनाएं निम्न है - 

छायावादी रचनाएं

उच्छ्वास 

पल्लव (1926)

वीणा (1927)

ग्रन्थि (1929)

गुंजन  (1932)

प्रगतिवादी रचनाएं

ग्राम्‍या

युगांत  

युगवाणी

अरविन्द दर्शन से प्रभावित स्वर्णकाव्य

स्वर्णकिरण 

स्वर्णधूलि 

उत्तरा

कला और बूढ़ा चाँद 

वाणी

नवमानवतावादी रचनाएं

लोकायतन 

सत्यकाम 

मुक्ति यज्ञ 

तारापथ 

काव्य नाटक

रजतशिखर 

शिल्पी 

सौवर्ण 

अतिमा

पतझड़ 

अवगुंठित 

ज्योत्सना 

मेघनाद वध 

चुनी हुई रचनाओं के संग्रह

युगपथ (1949)

चिदंबरा 

पल्लविनी 

स्वच्छंद 

अनूदित रचनाओं के संग्रह

मधुज्वाल  (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फ़ारसी से हिन्दी में अनुवाद)

अन्य कवियों के साथ संयुक्त संग्रह

खादी के फूल (हरिवंशराय बच्चन जी के साथ संयुक्त संग्रह)

पुरस्कार व सम्मान

1958 में 'युगवाणी' से 'वाणी' काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन 'चिदम्बरा' प्रकाशित हुआ, जिसपर 1968 में इन्हें 'भारतीय ज्ञानपीठ' पुरस्कार प्राप्त हुआ , 1960  में 'कला और बूढ़ा चाँद' काव्य संग्रह के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' प्राप्त हुआ , 1961 में हिंदी साहित्य सेवा के लिए 'पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित हुये । 

सुमित्रानंदन पंत के नाम पर कौसानी में उनके पुराने घर को, जिसमें वह बचपन में रहा करते थे, 'सुमित्रानंदन पंत वीथिका' के नाम से एक संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। इसमें उनके व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुओं जैसे कपड़ों, कविताओं की मूल पांडुलिपियों, छायाचित्रों, पत्रों और पुरस्कारों को प्रदर्शित किया गया है। इसमें एक पुस्तकालय भी है, जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा उनसे संबंधित पुस्तकों का संग्रह है।

विशेष

सुमित्रानंदन पंत से जुड़े दो तथ्यों से बहुत कम लोग जानते हैं -  एक, भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण दूरदर्शन पंत जी ने किया था । दूसरा, सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नामकरण भी इन्होंने ही किया था । 

साहित्यिक परिचय

वर्ण्य-विषय

पन्त जी की कविता छायावादी थी, लेकिन विचार मार्क्सवादी और प्रगतिशील ।  इनका संपूर्ण साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के आदर्शों से प्रभावित होते हुए भी समय के साथ निरंतर बदलता रहा है। जहां प्रारंभिक कविताओं में प्रकृति और सौंदर्य के रमणीय चित्र मिलते हैं वहीं दूसरे चरण की कविताओं में छायावाद की सूक्ष्म कल्पनाओं व कोमल भावनाओं के और अंतिम चरण की कविताओं में प्रगतिवाद और विचारशीलता के। इनकी सबसे बाद की कविताएं अरविंद दर्शन और मानव कल्याण की भावनाओं से ओतप्रोत हैं।  पंत जी परंपरावादी आलोचकों और प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी आलोचकों के सामने कभी  झुके नही । इन्होंने अपनी कविताओं में पूर्व मान्यताओं को नकारा नहीं । इन्होंने अपने ऊपर लगने वाले आरोपों को 'नम्र अवज्ञा' कविता के माध्यम से खारिज किया। ये कहते थे 

  • 'गा कोकिला संदेश सनातन, 
  • मानव का परिचय मानवपन।'

राष्ट्रीयता

छायावादी कविता तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है , जिसे पंत जी ने स्वीकार किया है , किंतु पंत में राष्ट्रीयता का वह मुखर रूप नहीं मिलता जो प्रसाद तथा निराला में मिलता है । पंत में राष्ट्रीय भावधारा दूसरे रूप में व्यक्त हुई है । ' भारतमाता ' कविता में पंत भारत राष्ट्र की दयनीय स्थिति पर गहरी चिंता व्यक्त करते है , जिसमें उनकी राष्ट्रीय भावना व्यक्त हुई है । ये भारत को विकास की धारा से जोड़कर उसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य देना चाहते हैं , किंतु स्थिति यह है कि उसका सारा गौरवशाली अतीत ध्वस्त हो चुका है , गीता के ज्ञान को फैलाने वाला भारत आज ज्ञान विमूढ है । ये भारत का वर्तमान चित्र इस रूप में प्रस्तुत करते हैं 

  • तीस कोटि संतान नग्न तन 
  • अर्ध क्षुधित , शोषित निरस्त्र जन
  • मूढ असभ्य अशिक्षित निर्धन , 
  • नत मस्तक  तरु तल निवासिनी । 

पंत ने ' भारत गीत ' कविता में भारत के भूगोल का परिचय देते हुए उसकी प्रशस्ति गायी है ।

प्रकृति चित्रण

पंत का प्रकृति के साथ गहरा जुड़ाव रहा है । पल्लव काल में तो वे लिखते हैं 

  • छोड़ दुमों की शीतल छाया 
  • तोड़ प्रकृति से भी माया , 
  • बाले! तेरे नाम जाल में 
  • कैसे उलझा दूँ लोचना ? और 
  • छोड़ अभी से इस जग को ।

पंतजी ने प्रकृति के अत्यंत कोमल और उदार चित्र खींचे हैं इसलिए उन्हें प्रकृति का सुकुमार कवि कहा जाता है । बचपन से ही वे प्रकृति से विशेष प्रभावित रहे । 

उनकी स्वीकारोक्ति है कि- " कविता लिखने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति निरीक्षण से मिली जिसका श्रेय मेरी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश को है । ' 

नारी भावना

पंत ने नारी के बाहरी और आंतरिक सौंदर्य का चित्रण किया है । नारी के साहचर्य को ' संग में पावन गंगा स्नान ' कहकर वे नारी - सौंदर्य के साथ पवित्रता को भी महत्व देते हैं । उन्होंने नारी को वासना से मुकत कर उसे विशिष्ट गरिमा प्रदान की तथा उसे देवि , माँ , सहचीर , प्राण से संबोधित किया 

  • तुम ही हो स्पृहा अश्रु औ हास
  • सृष्टि के उर की सांस
  • तुम्हारी सेवा में अनजान 
  • हृदय है मेरा अंतर्धान
  • देवि! माँ! सहचरी! प्राणा! 

पंतजी को एहसास है कि भारतीय नारी सदियों से दलित पीडित रही है । इसलिए वे नारी मुक्ति के आकांक्षी है , जो नारी सामाजिक - नैतिक बंधनों में जकड़ी हैं । पुरुष प्रधान समाज ने उसे युगों से गुलाम बनाकर रखा , उसके प्रति अपनी क्रांतिकारी भावना व्यक्त करते हुए पंतजी कहते हैं

  • मुक्त करो नारी को , चिर बंदिनी नारी को 
  • युग - युग की बर्बर कारा से , जननी , सती प्यारी को

प्रेम और सौंदर्य 

प्रेम और सौंदर्य साहित्य के शाश्वत विषय रहे हैं । छायावाद में स्थूलता से ऊपर उठकर प्रेम और सौंदर्य का सूक्ष्मीकरण मिलता है । पंत - काव्य का बीज प्रेम और सौंदर्य की जमीन पर अंकुरित हुआ है । आरंभ में ये प्रकृति - सौंदर्य से विशेष प्रभावित थे और प्रकृति सौंदर्य की तुलना में मानव सौंदर्य को हेय मानते थे । अतः पंत की सौंदर्य चेतना प्रकृति सौंदर्य से मानव - सौंदर्य की ओर विकसित हुई है । 

नंददुलारे बाजपेयी के अनुसार " प्रेम और सौंदर्य की सूक्ष्म मानसिक विवृत्ति में पन्त की कल्पना समर्थ हुई है और यंत्र - तत्र यही कल्पना आध्यात्मिक उड़ान भी लेने है । ' 

वेदना और करुणा

छायावादी कविता का उत्स वेदना और करुणा है । छायावाद में वेदना को काव्यात्मक रुप मिला । छायावाद में वेदना की प्रधानता का एक कारण यह है कि सभी छायावादी कवियों का वैयक्तिक जीवन अभावग्रस्त तथा वेदना से पूर्ण रहा । प्रसाद क्षय से पीड़ित और विधुर बने , निराला भी कम उम्र में विधुर बन गये , पंत आजीवन कुंवारे रहे तथा महादेवी का दाम्पत्य जीवन दुःखमय रहा | वेदना के व्यक्तिगत कारणों के अलावा युगीन कारण भी थे । युगीन परिस्थितियों में कवियों की इच्छाओं का पूर्ण न होना तथा राष्ट्रीय आंदोलन की असफलता भी कारणस्वरूप थी । पंत ने वेदना को काव्य का उदगम स्थल मानते हुए कहा है -

  • वियोगी होगा पहला कवि , आह से उपजा होगा गान 
  • उमड़कर आँखों से चुपचाप , बही होगी कविता अनजान । 

पंत की कविता में वेदना और निराशा का चित्रण  मिलता है । उच्छवास , आँसू ग्रंथि तमाम कविताओं में उनकी इसी वेदना को वाणी मिली है , लेकिन वेदना से एक मधुर संगीत भी फूटता है 

  • कल्पना में है कसकती वेदना , 
  • अश्रु में जीता सिसकता गान है ,
  • शून्य आहों में सुरीले छंद है , 
  • मधुर मय का क्या कहीं अवसान है ?

रहस्यात्मकता

छायावाद में रहस्यात्मकता की प्रवृत्ति मिलती है । अंतर्मुखता के कारण छायावादी कवि रहस्यवाद की ओर प्रवृत हुए थे । रहस्यवाद एक ऐसी मानसिक अवस्था है , जिसमें साधक उस असीम सत्ता के साथ भावना के स्तर पर एकात्म अनुभव करता है । शुक्ल जी ने रहस्यवाद की तीन अवस्थाएं मानी है - जिज्ञासा , विरह और मिलन । छायावाद में भी अनेक जगह परोक्ष सत्ता के साथ जिज्ञासा तथा विरह मिलन की अनुभूतियाँ व्यक्त हुई हैं , इसलिए शुक्लजी ने तो छायावाद को रहस्यवाद ही कह डाला । पंत में रहस्यवाद की पहली अवस्था - जिज्ञासा के दर्शन होते है । ' मौन निमंत्रण ' कविता इसका सटीक उदाहरण है जिसमें वे प्रकृति में एक अदृश्य सत्ता का संकेत पाते हैं 

  • स्तब्ध न्योत्सना मैं जब संसार 
  • चकित रहता शिशु सा नादान , 
  • विश्व के पलकों पर सुकुमार 
  • विचरते है जब स्वप्न अजान , 
  • न जाने , नक्षत्रों से कौन 
  • निमंत्रण देता मुझको मौना !

किंतु गौरतलब है कि पंत का रहस्यवाद मध्यकालीन कवियों का रहस्यवाद नहीं है । इसमें रहस्यवाद जिज्ञासा की सीमा तक ही आ पाया है । 

वैयक्तिकता

आधुनिक युग में पूँजीवादी सभ्यता और औद्योगिकीरण ने व्यक्तिवाद को जन्म दिया , जिससे व्यक्ति स्वकेन्द्रित होने लगा | वैयक्तिकता छायावाद की एक बुनियादी विशेषता रही है । द्विवेदी युग की प्रबल सामाजिकता , उपयोगितावादी दृष्टि और रूढ़ नैतिकता के विरोध में छायावादी कवियों ने वैयक्तिक चेतना का उद्घोष किया । प्रबल सामाजिकता के भीतर उसका दबा हुआ ' मैं अपनी अभिव्यक्ति के लिए मचल उठा । प्रसाद , निराला , पंत , महादेवी ने अपने वैयक्तिक सुख - दुःख आदि मनोभावों का मार्मिक चित्रण किया । पंतजी ने ग्रंथि की कविताओं में निजी अनुभूतियों का चित्रण किया है । पंत तथा अन्य छायावादी कवियों ने अपने व्यक्तित्व के प्रति विशेष सजगता दिखाई है । उन्होंने अपनी खोई हुई पहचान को कविता के माध्यम से स्थापित करने का प्रयास किया , इसलिए छायावाद का अस्मिता की खोज का काव्य कहा जाता है । अत : उस वैयक्तिकता को निषेधात्मक तथा त्याज्य इसलिए नही माना जाना चाहिए कि उसमें व्यक्ति की प्रतिष्ठा है और उस व्यक्ति से वे समाज और अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक जाकर विश्व मानवतावाद की प्रतिष्ठा करते हैं । 

कल्पनाधिक्य 

दर्शन में जो दृष्टि है , विज्ञान में जो बुद्धि है , साहित्य में वही कल्पना है । कल्पना को साहित्य का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है । कल्पना के द्वारा ही एक रचनाकार अपनी रचना में नयी - नयी संभावनाओं , नये - नये भावों और विचारों को प्रस्तुत करता है , जिससे रचना में नवीनता आती है । सभी छायावादी कवि कल्पनाजीवी थे । चूंकि वे वर्तमान से असंतुष्ट थे और उनका भविष्य भी अंधकारमय था , जहाँ आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती थी , इसलिए वे कल्पना को सत्य मानते है । 

नन्द दुलारे वाजपेयी का कथन है- " कल्पना ही पंत जी की कविता की विशेषता , उसके आकर्षण का रहस्य है । यही उनकी विविध बहुमुखी रचनाओं का आधार , उनमें रमणीयता का विस्तार करती है । कल्पना केवल शैली में ही नहीं , काव्यविषय में भी है .... कल्पना ही पंत जी की कविता का मेरुदंड है । ”

 पंत स्वीकारते हैं कि " मैं कल्पना के सत्य को सबसे बड़ा सत्य मानता हूँ ( आधुनिक कवि की भूमिका ) ।

पंत की ' अप्सरी ' , ' अनंग ' , ' प्रथम रश्मि ' , ' बादल ' आदि कविताओं में कल्पना की प्रधानता है । ' अप्सरी कविता में पंत की कल्पना का स्वरुप द्रष्टव्य है 

  • तुहिन बिंदु में इन्दु रश्मि सी सोई तुम चुपचाप 
  • मृदुल शयन में स्वप्न देखती निज निरुपम छवि आप । 

पंतकाव्य में अतिशय कल्पना और भावुकता तो है , किंतु उसके बीच में विचार तत्व भी झलक मारता है , जैसे नौका - विहार ' की अंतिम पंक्तियाँ तथा परिवर्तन ' जैसी कविता । पंत की यह विचारात्मकता उनके परवर्ती काव्यों में क्रमश : गहराती जाती है और कविता की कलात्मकता को क्षतिग्रस्त भी करती है । लेकिन आरंभिक कविताओं में विचार तत्व भावना की तरलता में घुलकर आते हैं , जबकि परवर्ती कविताओं में विचार तत्व भावधारा में स्तंभ की तरह टिके होते हैं । 

यथार्थवाद

ये यथार्थवादी कविताओं की रचना करते है । ' ताज ' , ' दो लड़के ' . ' भारतमाता ' आदि उनकी ठोस यथार्थवादी कविताएँ हैं । ' ताज ' कविता में ये मानव जीवन व्याप्त गरीबी , दैन्य के लिए जिम्मेदार तत्वों पर आक्रोश व्यक्त करते तथा ताज को सामंतों की विलासिता का प्रतीक मानते हैं । दो लड़के में वे शोषित पासी के दो नंग - धडंग बच्चों के चित्र खींचते हैं । छायावाद की अतिशय कल्पना से ऊबकर पंतजी यथार्थोन्मुखी बने । इन्होंने महसूस किया कि अतिशय कल्पना मानवजीवन का कल्याणकारी तत्व नहीं है , इसलिए ये मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़कर क्रांति की बात करते हैं ताकि समाज में परिवर्तन आये और शोषितो , दलितों के प्रति न्याय हो सके । युगान्त में ये क्रांति का आह्वान करते है । ये श्रमिको के शोषण से अधिक दुःखी हैं । वे श्रमिक के श्रम को लोकक्रांति का अग्रदूत कहते हैं । 

रूढ़ियों का अंत 

पंत प्रगतिशील दृष्टिसंपन्न रचनाकार है । ये नयी व्यवस्था के पोषक है । रुढ़ियों और जर्जर पंरपराओं को इन्होंने समाज - विकास में बाधक माना है । युगान्त युगवाणी में इनकी यह क्रांति - भावना मुखर रूप में व्यक्त हुई है । युगान्त में ये पुरातनता , राग द्वेष , जातिवर्ण , रुढ़ियों आदि के ध्वंस की कल्पना करते हैं

  • द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र , 
  • हे स्त्रस्त ध्वस्त! हे शुष्क शीर्ण!
  • हिमताप पीत , मधुवात भीत , 
  • तुम वीत रगा , जड़ पुराचीन!

इसी तरह के कोकिल से आग्रह करते है कि वह अपने विद्रोही गान से अग्नि बरसाकर तमाम प्रकार के भेदों को नष्ट कर दे

  • गा कोकिल वरसा पावक कण 
  • नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन । 

दार्शनिकता

पंतजी की दार्शनिक विचारधारा भी निरंतर गतिशील , परिवर्तनशील रही है , जिसके कारण ये आलोचना के पात्र बने हैं । अद्वेतवाद , गांधीदर्शन मार्क्सवाद , अरविन्द दर्शन सबसे इनका जुड़ाव रहा है । ये तय नहीं कर पाये कि कौन - सा एक दर्शन मानवहित के उपयुक्त है । कविता और दर्शन का द्वंद्व इनके साथ लगा रहा । कविता और दर्शन की आपाधापी में इनका सर्जक रुप कहीं निखरा , तो कहीं आलोचित हुआ किंतु यह स्पष्ट है कि कविता और कला से अपनी यात्रा आंरभ करने वाले पंत अंत में दार्शनिकता की शरण में जाते हैं । पंत अद्वैतवादी दर्शन से प्रभावित होकर संपूर्ण दृष्टि से एक ही चेतना को व्याप्त देखते हैं तथा जीव बहमा को एक समान मानते है 

  • एक ही तो असीम उल्लास 
  • विश्व में पाता विविधाभास ।  

पंतजी मार्क्सवाद से प्रभावित होकर भी गांधीवाद से रिश्ता बनाए रखते हैं । ये गांधी की सत्य - अहिंसा को भी आवश्यक मानते हैं । बापू के प्रति कविता गांधीवाट के प्रति उनके झुकाव का द्योतक है ।

मानवतावादी दृष्टि

छायावादी कविता पर भारतीय सर्वात्मवाद और अद्वैत वाद का गहरा प्रभाव पड़ा , इसके अलावा उस पर नवजागरण कालीन चिंतकों - रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेकानंद , गांधी और रवींद्रनाथ की मानवतावादी विचारधारा का विशेष प्रभाव पड़ा । यही कारण है कि छायावाद में जहाँ वैयक्तिक चेतना और व्यक्तिक की अस्मिता का उदघोष है , वहीं उसमें मानवतावादी चेतना का चित्रण भी है । इस मानवतावाद की परिणति विश्वबन्धुत्व में होती है । प्रकृति के पुजारी पंत मानव - सौन्दर्य पर ध्यान केंद्रित करते हैं

  • सुंदर है विहग सुमन , सुंदर 
  • मानव तू सबसे सुन्दरतम 
  • निर्मित सबकी चिर - सुषमा से , 
  • तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम ।

छन्द-अलंकार

पंत ने आरम्भ में कविता के तमाम उपादानों पर विशेष बल दिया था तब ये छायावाद के प्रभाव में थे । इनका कथन है " अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं , वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष दवार है । अतः पंत न सिर्फ शब्द में , बल्कि भाव में भी अलंकार के समर्थक है । किंतु बाद में छायावादी प्रभाव से मुक्त होने के साथ वे कविता में सादगी और सहजता के समर्थक बन गये । वे अपने विचार को पाठक तक पहुंचाने के लिए अंलकार की अनिवार्यता नही मानते । प्रगतिवादी प्रभाव में आकर ये लिखते हैं

  • तुम वहन कर सकी जन मन में मेरे विचार 
  • वाणी मेरी , चाहिए तुम्हें क्या अलंकार ? 

पंत ने उपमा , उत्पेक्षा , रूपक और विशेषण विपर्यय अलंकारों के विशेष प्रयोग किये हैं । 

पंत लय और छंद को कविता का सहज स्वाभाविक लक्षण मानते हैं ।ये कविता को सांगीतिक प्रवृत्ति से जोड़ते हैं । इनके अनुसार " कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है । हमारे जीवन का पूर्ण रुप , हमारे अन्तर्तम प्रदेश का सूक्ष्माकाश ही संगीतमय है , अपने उत्कृष्ट क्षणों में हमारा जीवन छंद ही में बहने लगता है ..... ' पंत ने हिन्दी की प्रकृति के अनुरुप छंद प्रयोग पर बल दिया है । उनके अनुसार हिन्दी का संगीत केवल मात्रिक छंदों में ही अपने स्वाभाविक विकास तथा स्वास्थ्य की संपूर्णता प्राप्त कर सकता है , उन्हीं के द्वारा उसमें सौंदर्य की रक्षा की जा सकती है । " वे पुनः कहते हैं कि हिन्दी के प्रचलित छंदों में पीयूषवर्षण , रुपमाला , सखी और प्लवंगम छंद करुणरस के लिए मुझे विशेष उपयुक्त लगते हैं । " ग्रंथि में राधिका छंद है । ' परिवर्तन में रोला छंद है । ' बादल ' कविता में छंद कहीं लावनी के करीब है , तो कहीं आल्हा के । कुछ परिवर्तन के साथ पंत तथा सभी छायावादी कवियों ने पंरपरागत छंदों पुनर्जीवित किया है ।

भाषा-शैली

पंत की काव्यभाषा छायावाद की भाषा का मानक रूप है । पंत की भाषा काव्यात्मक और चित्रात्मक है । उनका कथन है- कविता के लिए चित्रभाषा की आवश्यकता पड़ती है । उसके स्वर सस्वर होने चाहिए जो बोलते हो , सेब की तरह जिसके रस की मधुर लालिमा भीतर न समा सकने के कारण बाहर झलक पड़े , जो अपने भाव को अपनी ही ध्वनि में आँखों के सामने चित्रित कर सके , जो झंकार में चित्र हो और चित्र में झंकार हो ' ( पल्लव का प्रवेश ) । उनमें चित्रों की इतनी अधिकता का कारण , उनका चित्रमोह है | एक चित्र मानस पटल पर अंकित हो नही पाता कि दूसरा चित्र आ जाता है । ' बादल ' कविता में पंत बादल के सैकड़ों चित्र खींचते है । एक उदाहरण 

  • " हम सागर के धवल हास हैं , 
  • जल के धूम , गगन की धूल , 
  • अनिल फेन , उषा के पल्लव , 
  • वारि वसन , वसुधा के मूल ।

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