जयशंकर प्रसाद Jaishankar Prasad

 जयशंकर प्रसाद 
Jaishankar Prasad

(30 जनवरी 1889 – 15 नवंबर 1937)

जयशंकर प्रसाद Jaishankar Prasad
छायावाद के संस्थापक जयशंकर प्रसाद जी का जन्म 30 जनवरी 1889ई० को काशी के सरायगोवर्धन में हुआ। इनके
दादा बाबू शिवरतन साहू दान , पिता बाबू देवीप्रसाद जी व माता का नाम मुन्नी देवी था । इनका परिवार के एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण 'सुँघनी साहु' के नाम से विख्यात थे। इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद का ही स्वागत करती थी। किशोरावस्था के पूर्व ही पहले पिता व बाद में माता और बड़े भाई का देहावसान हो जाने के कारण 17 वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ ही टूट पड़ा। कच्ची गृहस्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का षड्यंत्र, इन सबका सामना इन्होंने धैर्य के साथ किया। इनका विवाह भी बाल्यावस्था में ही हो  गया । प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी में क्वींस कॉलेज में हुई, किंतु बाद में घर पर ही इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान्‌ इनके संस्कृत के अध्यापक थे।

घर के वातावरण के कारण साहित्य और कला के प्रति इनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और नौ वर्ष की उम्र में ही इन्होंने 'कलाधर' के नाम से ब्रजभाषा में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था। 

प्रसाद जी हिन्दी के कवि, नाटककार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। ये हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में न केवल कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सूक्ष्म एवं व्यापक आयामों के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह काव्य प्रेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के प्रगतिशील एवं नई कविता दोनों धाराओं के प्रमुख आलोचकों ने उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह भी हुआ कि खड़ीबोली हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन गयी।

हिंदी के इस वरद पुत्र का क्षय रोग से 15 नवंबर 1937  को मात्र 47 वर्ष की अल्पायु में काशी में ही देहावसान हो गया ।

इनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई। ये छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं।इन्होंने हिंदी में 'करुणालय' द्वारा गीत नाट्य का भी आरंभ किया। इन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और अनेक छंदों का संभवत: इन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। प्रसाद जी ने नाटकीय ढंग पर काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई टेकनीक का संयोग काव्यकथा से कराया। प्रगीतों की ओर विशेष रूप से उन्होंने गद्य साहित्य को संपुष्ट किया और नीरस इतिवृत्तात्मक काव्यपद्धति को भावपद्धति के सिंहासन पर स्थापित किया।

सम्मान

जयशंकर प्रसाद को 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था

प्रमुख कृतियाँ

आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। ये एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरवान्वित होने योग्य कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में प्रतिष्ठित हुए हैं; नाटक लेखन में भारतेन्दु के बाद ये एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे । इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करुणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। 48 वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएँ की । प्रसादजी की काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है - काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं -

काव्य संग्रह

कानन कुसुम

महाराणा का महत्व

झरना(1918)

आंसू

लहर

कामायनी1935

प्रेम पथिक

कहानी संग्रह

छाया

प्रतिध्वनि

आकाशदीप

आंधी

इन्द्रजाल

उपन्यास 

प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे हैं

 कंकाल

तितली

इरावती(अपूर्ण)

नाटक 

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 

स्कंदगुप्त

चंद्रगुप्त

ध्रुवस्वामिनी

जन्मेजय का नाग यज्ञ

राज्यश्री

कामना

एक घूंट


साहित्यिक प्रवृतियां व विशेषताएं

वर्ण्य विषय

प्रसाद जी की सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई। काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है।  शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है। प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त कामायनी को हिंदी का ताजमहल मानते हैं

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ 1912 ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। उन्होंने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं। इनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। इनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ अत्यंत सफल हुई हैं। इन्होंने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक कहानियाँ लिखी हैं।  भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ इन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा कवित्व से पूर्ण हैं।

इनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण आदि प्रमुख हैं । अपनी कहानियों में जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है उनमें प्रमुख हैं - चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़ जाते हैं।

प्रसाद जी ने अपने उपन्यासों के द्वारा हिंदी में यथार्थवादी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में गरिमा स्थापित की । इन्होंने तीन उपन्यास लिखे हैं। 'कंकाल', में नागरिक सभ्यता का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। प्रथम यथार्थवादी उन्यास हैं ; दूसरे में आदर्शोन्मुख यथार्थ है। । 'इरावती' ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है। इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है।

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर इनके सभी नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। ये हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। इनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है।

जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के पारसी रंगमंच की परंपरा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों को सामने लाते हुए अविस्मरणीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि में स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही थी। उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यन्त दर्शनीय है और इन नाटकों में कई अत्यन्त सुन्दर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं। 'हिमाद्रि तुंग शृंग से', 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' जैसे उनके नाटकों के गीत सुप्रसिद्ध रहे हैं।

इनके नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप है। आक्षेप लगता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं लिखे गए है जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमें काव्यतत्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु इनके अनेक नाटक सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। इनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक है। 

प्रसादजी ने प्रारंभ में समय समय पर 'इंदु' में विविध विषयों पर सामान्य निबंध लिखे। बाद में इन्होंने शोधपरक ऐतिहासिक निबंध, जैसे सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य, प्राचीन आर्यवर्त और उसका प्रथम सम्राट् आदि लिखे हैं। ये इनकी साहित्यिक मान्यताओं की विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक भूमिका प्रस्तुत करते हैं। विचारों की गहराई, भावों की प्रबलता तथा चिंतन और मनन की गंभीरता के ये जाज्वल्य प्रमाण हैं।

भाव पक्ष

देशभक्ति

भारत की स्वतंत्रता भारत माता की स्वतन्त्रता है और भारतीय आत्मा के प्रबल पारखी प्रसाद भी स्वयं है। भारत माता का चित्र उपस्थित करते हुए प्रसाद ने अपनी देशभक्ति का परिचय दिया है -

  • हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती।  
  • स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥ 
  • अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो।  
  • प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो बढ़े चलो॥

प्रकृति का चित्रण

छायावादी कवियों ने कल्पना के आधार पर ही प्रकृति को ग्रहण किया है। प्रकृति दो तरह की होती है। एक सरस कोमल प्रकृति दूसरी उग्र कराल भयंकर प्रकृति। सच्चे कलाकार की प्रवृति दोनों प्रकार की प्रकृतियों में लगती है। जो सरस, कोमल प्रकृति को रूप को ही ग्रहण करता है वह भोग लिप्सा कहलाता है। प्रसाद ने दोनों प्रकार के प्रकृतियों को अपनाया है। इन्होंने अपनी ‘बीती विभावरी जाग री’ कविता में प्रातः कालीन सौंदर्य का चित्र मानवीकरण अलंकार का उपयोग कर बड़े उत्तम तरह से किया है।

  • बीती विभावरी जाग री
  • अंबर पनघट में डुबो रही
  • तारा घट उषा नागरी

सौंदर्य वर्णन

प्रसाद के काव्यों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सौंदर्य के चित्रण है । प्रसाद का सौंदर्य परवर्ती उपभोक्ता का सौंदर्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसाद जी ने सौंदर्य के अंग-प्रत्यंगों का अत्यंत ही सूक्षम परिचय प्राप्त किया है। जितना सुंदर सूक्ष्म विश्लेषण प्रसाद के सौंदर्य वर्णन में मिलता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

  • अरुण यह मधुमय देश हमारा
  • जहां पहुँचे अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’

नारी सौंदर्य

जयशंकर प्रसाद ने अपनी छायावादी कविताओं छायावादी युग की कविताओं में नारी सौंदर्य का शालीनता से चित्रण किया है । प्रसाद की नारी सामाजिक जीवन की स्थूल, मांसल नारी नहीं है वह तो सूक्ष्म भावनाओं का सूक्ष्म आलेखन है। प्रसाद जी की नारी स्वयं कहती है-

  • तुमुल कोलाहल कलह में मैं हृदय की वात रे मन।

और इसलिए छायावादी कवियों ने रीतिकालीन वासना से ग्रस्त नारियों के रूप का परिष्कार कर उन्हें माता, देवी, माँ, सहचरी, व सीता के स्थान पर आधिष्ठित किया है। प्रसाद को शब्दों में-

  • नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
  • विश्वास रजत नग पग तल में,
  • पीयूष स्रोत सी बहा करो,
  • जीवन के सुंदर समतल में।

प्रसाद ने सौंदर्य को परखा है उसका उपभोग किया है, उसकी स्वाभाविक अभिलक्षित भी की है। प्रसाद ने अपने ‘आँसू’ काव्य में नारी का नख-शिख वर्णन किया है -

  • “बाँधा था विधु को किसने इन काली जंजीरों से 
  • मणि वाले फणियों का मुख क्यों भरा हुआ हीरों से?
  • काली आँखों में कितनी यौवन के मद की लाली 
  • मानिक मदिरा से भर दी किसने नीलम की प्याली?”

प्रसाद का यही वर्णन ‘ कामायनी’ में अत्यंत ही प्रौढ़ रूप में उपस्थित हुआ है-

  • नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
  • खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ-वन बीच गुलाबी रंग।।

रहस्यवाद 

प्रसाद के काव्य में रहस्यात्मकता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। रहस्य में ईश्वर तथा ईश्वरीय शक्ति की चर्चा उपस्थित की जाती है। रहस्यवाद में जीवन दर्शन , जीवन तथा ईश्वर से सम्बंधित सूक्ष्म तत्व आदि का वर्णन उपस्थित किया जाता है। प्रसाद ने अपनी कविताओं में रहस्यवाद को महत्व दिया है। और परम सत्ता को संसार में अपने कवित्व दृष्टि से खोजने की कोशिश की है ।

  • नित्य यौवन कवि से ही दीप्त।
  • विश्व की करुणा का कामना मूर्ति।।
  • स्पर्श के आकर्षण से पूर्ण।
  • प्रगट करती ज्यों जड़ में स्फूर्ति।।
  • मधुराका मुस्काती सी पहले देखा जब तुमको
  • परिचित से जाने कब के तुम लगे उसे उसी क्षण

पलायन

छायावादी कवियों की तरह प्रसाद ने भी पलायन की प्रवृति को ग्रहण किया है किंतु समाज के प्रति उनके ह्रदय में वैसा विद्रोह भाव नहीं है जैसा निराला में है। फलस्वरूप शांतिपूर्ण ढंग से प्रसाद इस दुनिया से अलग हो जाना चाहते हैं। समाज से पलायन के पश्चात कवि प्रसाद जिन क्षेत्रों को ग्रहण करना चाहते है वे क्षेत्र है अतीत, कल्पना, प्रकृति, और रहस्य इन सभी में प्रसाद की प्रकृति अतीत ही अधिक लगी है, अपनी इसी प्रकृति के कारण उन्होंने ‘कामायनी महाकाव्य’ का सृजन किया है। ऐतिहासिक नाटकों का सृजन भी प्रसाद की इसी प्रकृति की देन है। 

  • ले चल वहाँ भुलावा देकर
  • मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
  • जिस निर्जन में सागर लहरी,
  • अम्बर के कानों में गहरी,
  • निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
  • तज कोलाहल की अवनी रे ।
  • जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
  • ढीली अपनी कोमल काया,
  • नील नयन से ढुलकाती हो-
  • ताराओं की पाँति घनी रे ।

अनुभूति की गहनता 

प्रसाद जी के काव्य में अनुभूति की गहनता विद्यमान है । आंसू का यह प्रसंग दृष्टव्य है -

  • रो -रो कर सिसक-सिसक कर ,
  • कहता मैं करुण कहानी ,
  • तुम सुमन नोचते सुनते,
  • करते जाते अनजानी । 

कला पक्ष

'प्रसाद' के काव्य का कलापक्ष भी पूर्ण सशक्त और संतुलित है। उनकी भाषा, शैली, अलंकार , छन्द-योजना, सभी कुछ एक महाकवि के स्तरानुकूल हैं।

भाषा

प्रसाद जी की भाषा के कई रूप उनके काव्य की विकास यात्रा में दिखाई पड़ते हैं। आपने आरम्भ ब्रजभाषा से किया और फिर खड़ीबोली को अपनाकर उसे परिष्कृत, प्रवाहमयी, संस्कृतनिष्ठ भाषा के रूप में अपनी काव्य भाषा बना लिया। प्रसाद जी का शब्द चयन ध्वन्यात्मक सौन्दर्य से भी समन्वित है ।

  • खग कुल कुल कुल-सा बोल रहा,
  • किसलय का अंचल डोल रहा।

प्रसाद जी ने लाक्षणिक शब्दावली के प्रयोग द्वारा अपनी रचनाओं में मार्मिक सौन्दर्य की सृष्टि की है।

शैली

प्रसाद जी की काव्य शैली में परम्परागत तथा नव्य अभिव्यक्ति कौशल का सुन्दर समन्वय है। उसमें ओज, माधुर्य और प्रसाद-तीनों गुणों की सुसंगति है। विषय और भाव के अनुकूल विविध शैलियों का प्रौढ़ प्रयोग उनके काव्य में प्राप्त होता है। वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक आदि शैली-रूप उनकी अभिव्यक्ति को पूर्णता प्रदान करते हैं। वर्णनात्मक शैली में शब्द चित्रांकन की कुशलता दर्शनीय होती है।

छन्द-अलंकार

प्रसाद जी ने काव्य रचना का प्रारंभ सवैया एवं कवित्त छंदों से किया किन्तु बाद में आपने गीत- शैली एवं अतुकांत छंद में काव्य रचना की । आपने नवीन छंदों का निर्माण भी किया । प्रसाद जी ने विविध छन्दों के माध्यम से काव्य को सफल अभिव्यक्ति प्रदान की है। भावानुसार छन्द-परिवर्तन 'कामायनी' में दर्शनीय है। 'आँसू' के छन्द उसके विषय में सर्वधा अनुकूल हैं। गीतों का भी सफल प्रयोग प्रसादजी ने किया है। भाषा की तत्समता, छन्द की गेयता और लय को प्रभावित नहीं करती है। 

प्रसाद जी की दृष्टि साम्यमूलक अलंकारों पर ही रही है। शब्दालंकार अनायास ही आए हैं। रूपक, रूपकातिशयोक्ति, उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीक आदि आपके प्रिय अलंकार हैं।

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