सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ Suryakant Tripathi

 सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’ 
Suryakant Tripathi

21 फरवरी 1896 – 15 अक्टूबर 1961

सूर्यकांत त्रिपाठी ’निराला’

हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में 21 फरवरी 1896 (माघ शुक्ल 11 संवत् 1955) को हुआ । वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 में प्रारंभ हुई । इनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे । ये मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे ।

निराला जी की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वाध्याय किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हो गया था । निराला जी का सम्पूर्ण जीवन दुखों व अभावों में ही व्यतीत हुआ । तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा । पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। 

निराला जी ने आरम्भ में कुछ समय महिषादल में नोकरी की , उसके पश्चात 1922-23 में कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया, 1923 के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में नियुक्त हुए जहाँ ये संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से 1935 के मध्य तक जुड़े रहे। 1935 से 1940 तक का कुछ समय इन्होंने लखनऊ में बिताया। इसके बाद 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया । इनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1924 में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ ।

इनके जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता । वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को माँ शारदा का लाडला पुत्र देवलोकगमन कर गया ।

निराला जी के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। इन्होंने अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। ये हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। 1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में ये लिखते हैं -

  • मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।‘

प्रमुख कृतियाँ

निराला ने 1920 ई० के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया। इनकी पहली रचना 'जन्मभूमि' पर लिखा गया एक गीत था। लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध 'जूही की कली' शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला ने स्वयं 1916 ई० बतलाया था, वस्तुतः 1921 ई० के आसपास लिखी गयी थी तथा 1922 ई० में पहली बार प्रकाशित हुई थी। कविता के अतिरिक्त कथासाहित्य तथा गद्य की अन्य विधाओं में भी निराला ने पर्याप्त मात्रा में लिखा है।

काव्यसंग्रह 

अनामिका (1923)

परिमल (1930)

गीतिका (1936)

अनामिका (द्वितीय) (1939) (इसी संग्रह में सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा जैसी प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है।)

तुलसीदास (1939)

कुकुरमुत्ता (1942)

अणिमा (1943)

बेला (1946)

नये पत्ते (1946)

अर्चना(1950)

आराधना 91953)

गीत कुंज (1954)

सांध्य काकली

अपरा (संचयन)

उपन्यास 

अलका (1933)

प्रभावती (1936)

निरुपमा (1936)

कुल्ली भाट (1938-39)

बिल्लेसुर बकरिहा (1942)

चोटी की पकड़ (1946)

काले कारनामे (1950) {अपूर्ण}

चमेली (अपूर्ण)

इन्दुलेखा (अपूर्ण)

कहानी संग्रह 

लिली (1934)

सखी (1935)

सुकुल की बीवी (1941)

चतुरी चमार (1945) 

देवी (1948) 

निबन्ध-आलोचना

रवीन्द्र कविता कानन (1929)

प्रबंध पद्म (1934)

प्रबंध प्रतिमा (1940)

चाबुक (1942)

चयन (1957)

संग्रह (1963)[9]

निराला रचनावली नाम से 8 खण्डों में पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन (प्रथम संस्करण-1983

साहित्यिक परिचय

वर्ण्य-विषय

सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत के दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हो या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगनेवाले तत्त्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सकता है। निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, इनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए इनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो गई है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताऐं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं। इनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए इनके मर्म को पहचानना और उन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है। निराला पर अध्यात्मवाद और रहस्यवाद जैसी जीवन-विमुख प्रवृत्तियों का भी असर है। इस असर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और संघर्षों का अंत करने का सपना देखते हैं। निराला की शक्ति यह है कि ये चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है, इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा देना कठिन काम है। लेकिन सामान्यत: वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों में अलग और विशिष्ट बनाती है।

देशप्रेम

इन्होंने अपने सोये हुए राष्ट्र को जागृति का मंत्र दिया है और जीर्ण - शीर्ण एवं पुरातन के इस पर नव निर्माण का राग मुखरित किया है । डॉ . भागीरथ मिश्र के अनुसार ‘निराला की अधिकांश कविताओं की पष्ठभूमि में राष्ट्रीयता का रंग मिलेगा । किसी दलगत राजनीति , बंधीधाई विचारधारा था वाद राष्ट्र की संस्कृति और भौगोलिक सीमाओं तक ही उनकी राष्ट्रीयता सीमित थी , सो बात नहीं । वह तो देश - देशान्तर की समस्त सीमाओं को लाँघकर उसके व्यापक स्वरूप को स्पर्श करने वाली है । वस्तुतः निराला की राष्ट्रीयता ऊपरी नहीं थी और न आयातित ही थी । वह तो भारत की मिट्टी से ही पनपी और बढ़ी थी । अतीत के वैभव का गान करते हुए निराला ने जिस राष्ट्रीयता को विकसित किया , उसका स्वर दिल्ली , ' यमुना के प्रति ' , ' भारति जय विजय करे ' आदि कविताओं में देखा जा सकता है । बता कहीं वह अब वंशीवट ' , कहीं गये नटनागर श्याम अथवा ' क्या यह वही देश है भीमार्जुन आदि का कीर्ति क्षेत्र जैसी पंक्तियाँ इसी भाव की पोषिका हैं । जागरण का संदेश देकर भी निराला ने अपनी राष्ट्रीयता का अलख जगाया है । ' प्रिय मुद्रित हग खोलो अथवा ' जागो जागो आया प्रभात , बीती बीती वह अंध रात ' आदि में यही जागरण का स्वर निनादित है । महाराज शिवाजी का पत्र और जागो फिर एक बार जैसी रचनाएँ तो राष्ट्रीय भावना के विकास के इतिहास में अपना सानी नहीं रखती हैं । 

आध्यात्मिकता 

निराला के काव्य में आध्यात्मिक विचारों का अखण्ड स्त्रोत प्रवाहित है । इस आध्यात्मिक चेतना को कतिपय समीक्षकों ने अद्वैतवादी भूमिका पर रखकर देखा है और दूसरों ने इसे उपनिषदीय छाया स्वीकार किया है । निराला विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस से भी पर्याप्त प्रभावित थे । वास्तविकता यह है कि निराला किसी एक दर्शन के अनुसार अपने को व्यक्त नहीं कर सके हैं । उनका दर्शन समन्वयवादी है | ये न तो कोरे तर्कवादी थे , न भक्तिवादी और न कर्मवादी । ये तो इन तीनों को मिलाकर ही मानवीय व्यवहार की पूर्णता की कल्पना करते हैं । ' पंचवटी प्रसंग में उन्होंने स्पष्टतः स्वीकार किया है भक्ति,कर्म  व ज्ञानयोग एक ही हैं यद्यपि अधिकारियों के निकट भिन्न दीखते हैं एक ही है , दूसरा नहीं है कुछ दवैतभाव ही है धर्म शुद्ध चित्तात्मा में पैदा होता है प्रेमाकुल चित्त यदि निर्मल नही तो वह प्रेम व्यर्थ है , वह मनुष्य को पशुता की ओर खींचता है। निराला ने उपनिषदों का अध्ययन किया था । वे असीम सत्ता के प्रति अपना जिज्ञासा भाव प्रकट करते हुए बारम्बार यह प्रश्न करते हैं कि इस जगत का नियामक कौन है । ' कौन तम के पार में यही भाव ध्वनित है । कभी तो वे समस्त विश्व को उसी जगत नियंता में देखते हैं और कभी जगत में विश्वपालक के दर्शन करते हैं । ' जिधर देखिए श्याम विराजे में वे उसी एक सत्ता का आभास विश्व में पाते हैं । निराला ने कला के साथ सम्पूर्ण जगत के उत्थान - पतन , आरोह - अवरोह को सदैव एक हतार में आकर देखा है । यही वह भूमिका है जहाँ निर्गुण ब्रहम उनके लिए सगुण और साकार हो जाता है । निराला ने ईश्वर के साथ अपने विविध सम्बन्धों को भी कर किया है । कहीं - कहीं वे सूफी कवियों की चिन्तना से प्रभावित दिखाई देते है और कभी ये परमसत्ता को माँ कहकर सम्बोधित करते हैं । इन्होंने इस सत्ता को बाहर खोजने की अपेक्षा अपने ही भीतर स्वीकार किया है 

  • पास ही रे , हीरे की खान ।
  • खोजता कहाँ और नादान
  • कहीं भी नहीं सत्य का रूप ,
  • अखिल जग एक अंध तुम कूप ।। 

भक्ति भावना

आध्यात्मिक विचारणा जिस प्रकार निराला काव्य की विशेषता है , वैसे ही भक्ति भावना भी । निराला सगुणोपासक भक्त थे । इनके काव्य में भक्ति के विविध रूपों और अंगों को अभिव्यक्त किया गया है । आराधना , बेला और अर्चना के गीतों में निराला की भक्ति भावना को वाणी मिली है । उनकी भक्ति में विनम्रता , दीनता , आर्त पुकार , निर्बलता और भवसागर से उबार लेने की प्रार्थना अभिव्यक्त हुई है ।  ये अपने आराध्य  अशरण शरण राम से अपने उद्धार के लिए याचना करते हैं । ये मानते हैं कि राम को समर्पित हुए बिना उद्धार सम्भव नहीं है । इन्होंने मानवों को यही शिक्षा भी दी भी है कि हरि भजन से ही उद्धार पाओगे , निष्काम होकर निर्भयपूर्वक भगवान के भजन करो , मोह बंधन से वही भगवान छुटकारा दिला सकता है । ' इनकी भक्ति के बौद्धिकता नहीं है , भावात्मक समर्पण है , वाद - विवाद नहीं है , प्रभु की सत्ता का सहज स्वीकार है और भक्तिभावित हृदय का भावमय और निश्छल समर्पण है । निराला की समस्त चिन्तना समाजोन्मुख है । उसमें जनसमाज को स्थान प्राप्त है क्योंकि उन्होंने ' स्व ' की परिधि से निकलकर सदैव ही यह कहा : 

  • ' दलित जन पर करो करुणा
  • दीनता पर उतर आये
  • प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा । 

इस प्रकार निराला की भक्ति भावना में गहनता है , समाज - कल्याण की भावना है और साथ ही भक्ति के भाव - भीने स्वर है । उनकी भक्ति भावना को देखकर यह मानने की इच्छा होती है कि कबीर और तुलसी दोनों की भक्ति का गंगाजमुनी मेल निराला के काव्य में हुआ है ।

सांस्कृतिक चेतना

राष्ट्रीयता का अलख जगाने वाले निराला के काव्य में सांस्कृतिक चेतना का अजस्र प्रवाह दिखाई देता है । भारतीय संस्कृति के पोषक , सांस्कृतिक उत्थान के समर्थक और समर देश में एक मानवीय और समताविधायिनी संस्कृति के पक्षधर निराला की बहुत सी कविताओं में सांस्कृतिक चेतना मुखरित हुई है । उनका तुलसीदास काव्य तो पूरी तरह इसी चेतना से संचलित है । सांस्कृतिक हास का चित्रण करते हुए निराला ने सांस्कृतिक उत्थान का भव्य चित्रण किया है । वस्तुतः अमित और आत्म प्रवंचित होने के कारण पतन की ओर बढ़ते हुए समाज को सूर्याभा की ओर ले जाने का उपक्रम ' तुलसीदास में मिलता है । काव्य के प्रथम छंद में ही भारत के अतीत , वर्तमान और मध्यम तीनों का संदर्भ देखने को मिलता है । 

  • भारत के नभ के प्रभापूर्य
  • शीतलाच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
  • अस्तमित आज रे-तमस्तूर्य दिङ्मण्डल;
  • उर के आसन पर शिरस्त्राण
  • शासन करते हैं मुसलमान;
  • है ऊर्मिल जल, निश्चलत्प्राण पर शतदल। 

प्रकृति सौंदर्य 

कविता के अन्तर्गत प्रकृति के स्वतंत्र महत्व की स्वीकृति भारतेन्दु युग अन्तिम चरण में हो गयी थी । द्विवेदी युग में इसी स्वीकृति का पोषण हुआ और छायावाद में यही प्रवृत्ती काव्यात्मक रूप लेकर सामने आयी । प्रकृति के आकर्षक बिम्ब प्रस्तुत करने में निराला का स्थान किसी से कम नहीं है । निराला की प्रकृति - छटा आलंकारिक , उपदेशात्मक , उद्दीपनात्मक और रहस्यात्मक आदि सभी रूपों में उपलब्ध है , किन्तु प्रकृति का शुद्ध अंकन और उसी में शांति पाने का भाव निराला काव्य की अप्रतिम विशेषता है । इन्होंने अपनी प्रकृति यात्रा का प्रारम्भ ' जुही की कली से किया । ' शेफालिका ' भी इसी श्रेणी की रचना है  निराला की प्रकृति में भोर की उजली किरणें , निज की आभा से चमकती ओस की बूंद धरती के विस्तृत वक्षस्थल पर फैलती जाती हरियाली , धूल - धक्कड़ , हवा , ऑधी , तूफान , इन्द्रधनुष का सौंदर्य , बादलों की श्यामता शिशिर का कम्पन , बसन्त का यौवन , वन का वैभव , पतझड़ की उदासी और इन सबसे ऊपर प्रकृति के कमनीय कुंजों से छन छनकर आती मदहोश पुरवाई व क्षण - प्रतिक्षण बदलते प्रकृति के विविध रूपा का अंकन हुआ है । 

प्रकृति के मानवीकरण की प्रवृत्ति भी निराला में पूरे आकर्षण के साथ मिलती है । सध्या सुन्दरी और दयुति का मानवीकरण कमशः पालन नारी और सद्य स्नाता के रूप में किया गया है । 

  • दिवसावसान का समय 
  • मेघमय आसमान से उतर रही है 
  • वह संध्या सुन्दरी परी - सी 
  • धीरे - धीरे - धीरे ........ । 

प्रेम और श्रृंगार  भावना

निराला काव्य की उल्लेखनीय विशेषता प्रेम और श्रृंगार का अंकन है । ' अणिमा , ' अर्चना ' , ' आराधना ' और गितगुंज में प्रेम और श्रृंगार का स्वर धीमा है , पर गीतिका और परिमल ' में पर्याप्त तेज है । प्रेम को निराला ने एक शाश्वत भाव के रूप में स्वीकार किया है । उसमें उदात्तता है । निराला का प्रेम शरीर से ऊपर उठकर आत्मा तक की यात्रा करता है । लौकिक प्रणयानुभूतियों में प्रेयसी और पत्नी को लक्ष्य करके कविताएँ लिखी हैं । निराला ने प्रेम के लौकिक व अलौकिक स्वरूप के बीच बराबर एक अनिवार्य संतुलन बनाये रखा है ।  तन्वी नारी के शरीर के प्रति प्रेम को सीमित न रखते हुए निराला ने अपने प्रेम भावों को इस प्रकार व्यक्त किया है – 

  • ' प्रेम सदा ही तुम असूत्र हो , 
  • उर उर के हीरों का हार ।
  • गूंथे हुए प्राणियों को भी गूंथे 
  • न कमी सदा ही सारा ' '

कल्पना वैभव 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी निराला के काव्य में कल्पना का अमित वैभव देखने को मिलता है । इनकी कल्पना स्थिर कम , गतिशील अधिक रही है । यही कारण है कि उनके काव्य में निरूपित बिम्बों में ताजगी , सरसता और गतिशीलता है । पृथ्वी आकाश , नक्षत्र , वन , पर्वत और प्रकृति के परिवर्तित रूप , ऋतुओं का अनन्त संसार कवि की कल्पना क्षमता को स्पष्ट करते हैं । ' शक्तिपूजा में विराट कल्पना और सूक्ष्म कल्पना दोनों को देखा जा सकता है । उसमें एक ओर ' मन - निशा गगन घन अंधकार ' उगल रहा है तो दूसरी ओर राम की स्मृति में जगी सोता की अच्युत कुमारिका छवि मूर्तित हो उठी है । दोनों में कवि - कल्पना का वैभव देखा जा सकता है । ' यमुना के प्रति , ' विधवा , " भिक्षुक और ' नीचे उस पार स्यामा जैसी कविताओं में भी कल्पना का यही वैभव देखा जा सकता है । यमुना के प्रति कविता की ये पंक्तियाँ देखिए 

  • कहाँ छलकते अब वैसे ही ,
  • ब्रज नागरियों के गागरी 
  • कहाँ भीगते अब वैसे ही बाहु उरोज ,
  • अधर अम्बरी की बाहुओं में घट – 
  • क्षण - क्षण कहाँ प्रकट करता अपवाद ? 
  • अलकों को किशोर पलकों को कहाँ वायु देती सँवार ।

व्यंग्य और विनोद

इनके व्यंग्य भाव में सामाजिक विषमता के प्रति विद्रोह प्रतिध्वनित है तो मानव जाति के प्रति व्यापक सहानुभूति भी । कुकुरमुत्ता और ' नये पत्ते ' जैसी रचनाएँ व्यंग्य और विनोद की प्रवृत्तियों को उजागर करती हैं । ऐसा नहीं है कि कुकुरमुत्ता से पहले की कविताओं में व्यंग्य नहीं था , इसका आभास हमें ' अनामिका और ' परिमल ' में ही हो जाता है । अनामिका की ' उक्ति ' , ' दान ' और ' वनवेला ' आदि कविताएँ इसका प्रमाण हैं । निराला के परवर्ती काव्य में व्यंग्य की धार पैनी हो गयी है । उनके व्यंग्य का आधार सामाजिक वैषम्य , निर्धनों का शोषण एवं उत्पीड़न है तो साथ ही राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों तक को उन्होंने अपने व्यंग्य का निशाना बनाया है ।

  •  मानव जहाँ बैल घोड़ा है । 
  • कैसा तन - मन का जोड़ा है । 

जैसी पंक्तियों में न केवल वैषम्य पर व्यंग्य है , अपितु भौतिकता से उपजी विकृतियों की ओर भी स्पष्ट संकेत है । अनामिका की ' दान ' शीर्षक कविता ' तेल फुलेल पर पानी सा पैसा बहाने वाले ' ढोंगी और पाखण्डी मनुस्यों की हीनता और दम्भी प्रकृति पर तीखा व्यंग्य करती है । इसी प्रकार ' खण्डहर के प्रति ' , " मित्र के प्रति और ' वनवेला ' आदि कविताओं में भी मानव का उदय विदारक और घृणास्पद रूप उभरकर आया है । ' करुणा के कुन्दन से चमकती हुई ' सरोज - स्मृति में भी कान्यकुब्जों और ढोंगियों पर तीखा व्यंग्य किया गया है । वनवेला में पैसों से राष्ट्रीय गीत बेचने वालों और गर्दभ स्वर में गायन करने वाले व्यक्तियों पर प्रहार किया गया है । इसी क्रम में रानी और कानी ' , ' गर्म पकौड़ी ' , ' मास्को डायलोक्त ' , ' खजुहरा , प्रेम संगीत ' , ' डिप्टी साहब आए ' कुकरमुत्ता आदि कविताओं का व्यंग्य भी नश्तर घुमाने वाला है ।

  • “अब, सुन बे, गुलाब,
  • भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
  • खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
  • डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
  • कितनों को तूने बनाया है गुलाम,

भाषा 

भाव को भाषा से कभी अलग करके नहीं देखते हैं । इनके काव्य में भाव - वैविध्य है जो इनकी भाषा भी एक जैसी नहीं रही है । प्रमुख रूप से इनकी भाषा के चार रूप हमारे सामने आते हैं । पहला रूप वह है जिसमें निराला परिष्कृत भाषा का प्रयोग करते हैं , दूसरा वह है जहाँ इनकी भाषा मधुरता की प्रतिमूर्ति बनी लरजती हुई हमारे सामने आती है , तीसरा रूप सरल और व्यावहारिक भाषा का है और चौथा रूप वह है जहाँ भाषा पूरी तरह चलताऊ है । परिष्कृत और सशक्त भाषा का रूप हमें ' राम की शक्तिपूजा और ' तुलसीदास ' जैसे काव्यों में देखने को मिलता है । इन काव्यों में संस्कृतनिष्ठ भाषा का जो रूप मिलता है , वह न केवल सामासिक शब्दावली से युक्त है , अपितु समासान्त पदावली और ओजस्वी शब्द - विधान से भी संसिक्त है । माधुर्यपूर्ण और सौष्ठवपूर्ण भाषा को ' जुही की कली ' , ' शेफालिका ' , ' यमुना के प्रति ' और ' संध्या सुन्दरी जैसी कविताओं में देखा जा सकता है । निराला ने जहाँ इस भाषा का प्रयोग किया है , वहाँ इनकी पदावली कोमल , कमनीय और सच्चिकण है । शक्तिपूजा में ओजपूर्ण भाषा भी है तो माधुर्यपूर्ण भाषा भी देखने को मिलती है । संगीत के स्वरों में गुनगुनाती गीतिका की भाषा भी ऐसी ही है । सरल , सुबोध और व्यावहारिक भाषा का प्रयोग उन कविताओं में मिलता है , जहाँ निराला ने जीवन और जगत के यथार्थ चित्र प्रस्तुत किए हैं । अभिधाप्रधान यह भाषा विधवा , भिक्षुक और ' वह तोड़ती पत्थर ' जैसी कविताओं में देखने को मिलती है । इसी क्रम में निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य है जिनमें भाषा की परिष्कृति भी है और सुबोधता व सरलता भी 

  • स्नेह-निर्झर बह गया है !
  • रेत ज्यों तन रह गया है ।
  • आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
  • कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
  • नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
  • नहीं जिसका अर्थ-
  • जीवन दह गया है ।"

भाषा का चौथा रूप जिसे बोलचाल की चलताउ भाषा कहा जा सकता है , निराला की परवर्ती रचनाओं में देखने को मिलता है । इस भाषा में उर्दू और अंग्रेजी की मिश्रित शब्दावली प्रयुक्त हुई है । ' कुकुरमुत्ता और ' नये पत्ते व ' बला ' की भाषा इसी प्रकार की है । 

छन्द-अलंकार

निराला की अलंकार योजना विशिष्ट है । उसमें भावों , विचारों और अनुभूतियों के सम्प्रेषित करने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है । उपमा , रूपक , उत्प्रेक्षा आदि के साथ साथ मानवीकरण , ध्वन्यर्यव्यंजक और विशेषण विपर्यय आदि अलंकारों का बहुतायत व अवसरानुकूल प्रयोग किया है ।

निराला ने अनेक प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है । इसी कारण उनका काव्य छन्द - प्रयोग की इष्टि से विशेष महत्व रखता है । इन्होंने छन्द विषयक प्राचीन मान्यताओं में परिवर्तन किया और मुक्त छन्द की ऐसी पद्धति का शुभारम्भ किया जिससे आगे के कवि स्वच्छन्द छन्द की ओर बढ़ सकें । निराला ने जिन छंदों को अपनाया , उनमें कुछ तो ऐसे हैं जो सममात्रिक सान्त्यानुप्रास से परिपूर्ण हैं , कुछ विषममात्रिक सान्त्यानुप्रास से सम्बन्धित हैं और कुछ स्वच्छन्द छन्द के सौंदर्य से युक्त हैं । ' परिमल जैसे काव्य संग्रह में अधिकांश कविताएं ऐसी हैं जिनमें सममात्रिक सान्त्यानुप्रास की योजना हुई है । अन्त्यानुप्रास के साथ - साथ मात्राओं में पर्याप्त समानता भी है । 

बिम्ब-प्रतीक 

निराला के काव्य में पुराने और नवीन दोनों प्रकार के प्रतीक मिलते हैं , किन्तु वे भावपरक अधिक है । इनके काव्य में कहीं तो बादल विद्रोह का प्रतीक है , कहीं क्रांति का और कहीं स्वच्छंद पुरुष का परन्तु ये सभी कवि के मनोगत भावों को सरलता व सटीकता से प्रस्तुत करने में सक्षम हैं ।

निराला के काव्य में पाये जाने वाले बिम्ब प्रमुख रूप से तीन प्रकार के हैं - विराट बिम्ब , अलंकृत बिम्ब और संवेद्य बिम्ब । इनके अतिरिक्त निराला ने भाव - बिम्बों का प्रयोग भी अनेक स्थानों पर किया है । भाव - बिम्ब अपनी मधुरता  और भावाकुलता के कारण पाठक के मन को मोह लेते हैं ।

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