हिन्दी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल:कृष्ण भक्तिधारा या कृष्णाश्रयी शाखा History of Hindi literature Bhaktikal: Krishna Bhaktidhara or Krishnasrayi branch

भक्तिकाल:कृष्ण भक्तिधारा
Bhaktikal: Krishna Bhaktidhara

कृष्ण भक्तिधारा

भक्तिकालीन सगुण भक्तिधारा में कृष्ण भक्ति काव्य में कृष्ण भक्ति को अधिक महत्व दिया गया है। ऋग्वेद में कृष्ण का उल्लेख एक श्रोता ऋषि के रूप में हुआ है। छन्दोग्योपनिषद में कृष्ण का उल्लेख देवकी पुत्र के रूप में हुआ है। महाभारत में कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप में चित्रित हुआ है। डॉ . भण्डारकर ने यह सिद्ध किया है कि वैदिक ऋषि कृष्ण का महाभारत के कृष्ण से कोई संबंध नहीं है। महाभारत में कृष्ण का जो वर्णन किया गया है वह कृष्ण सामान्य मानव का रुप है। बाद में कृष्ण को नारायण , विष्णु , के रूप में प्रतिष्ठित किया गया।  यदि ' गीता ' के आधार पर कृष्ण - चरित्र का आकलन किया जाये , तो उनके दार्शनिक व्यक्तित्व का पूरी तरह उद्घाटन होता है। वेद - वेदांगज्ञाता कृष्ण ने व्यावहारिक स्तर पर दर्शन को ' गीता में पहली बार प्रतिष्ठित किया, जिसके अनुशिलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस रुप में कृष्ण यहाँ वर्णित है वह उनके परमदेवत्व का परिचायक रुप है । " पुराणों में कृष्ण का जो रूप विकसित हुआ है उसके संदर्भ में पाश्चात्य विद्वानों ने कृष्ण की बाल - लीलाओं को क्राइस्ट के बालचरित्र का अनुकरण कहा है। श्रीकृष्ण के पूर्णावतार के संदर्भ में पहली बार पुराणों में ही कहा गया है। भागवत पुराण ' में कृष्ण की महिमा गायी गई है। पुराणों में कृष्ण को योगेश्वर , सचिदानन्द , अच्युत , अविनाशी , आदि कहा गया है। हरिवंश पुराण , विष्णु पुराण , पद्मपुराण , आदि में कृष्ण महिमागान विस्तार से हुआ है। संस्कृत काव्य में कृष्ण - लीलाओं का सबसे पहले उल्लेख अश्वघोष के ' ब्रह्मचरित ' काव्य में मिलता है । ' हाल ' रचित ' गाथा-सतसई में कृष्ण , राधा , गोपी , यशोदा आदि का वर्णन है। नाट्यदर्पन , अलंकार कौस्तुभ , कन्दर्प मंजरी , श्रीकृष्णलीलामृत आदि संस्कृत ग्रंथों में कृष्ण के विविध प्रसंगों का चित्रण हुआ है। ' गीत गोविंद ' में कृष्ण श्रृंगार रस का चित्रण हुआ है। हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्ति के विकास में संस्कृत भाषा के पुराण महाभारत आदि का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

हिन्दी साहित्य में कृष्णकाव्य

हिन्दी साहित्य में कृष्ण काव्य का प्रारम्भ 12वीं से 14वीं शती मध्य में हुआ। हिन्दी मे सर्वप्रथम कृष्ण कथा व रामकथा का वर्णन चन्दबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ के दूसरे समय में देखने को मिलता है। 16 वीं शती में रूप गोस्वामी, जीव स्वामी एवं सनातन गोस्वामी ने कृष्णभक्ति को शास्त्रीय आधार प्रदान किया। आधुनिक भारतीय भाषाओं में सर्वप्रथम विद्यापति ने राधाकृष्ण की प्रेमलीलाओं का वर्णन अपनी पदावली में किया। विद्यापति के बाद अष्टछाप के कवियों ने इसे नयी ऊंचाइयों पर स्थापित किया। इनमे सर्वप्रमुख हैं सूरदास, जिन्होंने भागवत पुराण को आधार बनाकर कृष्ण की बाललीलाओं का गान किया। सूरदास ने कृष्णभक्ति के सवालाख पड़ लिखे परन्तु वर्तमान में उनमें से चार पांच हजार पड़ ही प्राप्त होते हैं। सूरदास के साथ-साथ नन्ददास भी अष्टछाप के महत्वपूर्ण कवि हैं ये शास्त्रज्ञ विद्वान व काव्य मर्मज्ञ थे।इन्होंने विविध विषयों पर काव्यसृजन किया। अष्टछाप के कवियों के अतिरिक्त राधवल्लभी सम्प्रदाय के ‘हित हरिवंश’,गौड़ीय सम्प्रदाय के ‘गदाधर भट्ट’ व हरिदासी सम्प्रदाय के स्वामी हरिदास’ ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इनके अतिरिक्त मीरा,रसखान जैसे कवियों ने अपना पूरा जीवन कृष्णभक्ति में लगा दिया। नामदेव के कुछ पदों में भी कृष्णभक्ति दिखाई देती है।
हिन्दी साहित्य में कृष्णकाव्य का सृजन उन भक्त कवियों द्वारा की गई जो किसी न किसी सम्प्रदाय से जुड़े थे। अतः उनके काव्य अपने अपने सम्प्रदाय का प्रभाव स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। हिन्दी में  कृष्णकाव्य परम्परा का विकास रीतिकाल व आधुनिक काल मे भी निरन्तर हुआ । रीतिकाल के व आधुनिक काल के ब्रजभाषा के कवियों ने कृष्ण को आधार बनाकर अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की।

कृष्ण भक्तिधारा के प्रमुख सम्प्रदाय

 सम्प्रदाय का नाम 

 प्रवर्तक

 कृष्ण का स्वरूप

 दर्शन

 विशेष

वल्लभ सम्प्रदाय  वल्लभाचार्य  पूर्णानन्द परब्रह्म परुषोत्तम  शुद्धाद्वैतवाद इसे पुष्टिमार्ग भी कहा जाता है। पुष्टि का अर्थ है-भगवत्कृपा या अनुग्रह।
 निम्बार्क सम्प्रदाय निबार्काचार्य राधा-कृष्ण का युगल विग्रह द्वैताद्वैतवाद राजस्थान के सलेमाबाद में सबसे बड़ी पीठ स्थित है। निम्बार्काचार्य को सुदर्शन चक्र का अवतार माना जाता है। 
 राधा वल्लभ सम्प्रदाय हितहरिवंश राधा की प्रधानता ।  इस सम्प्रदाय के मंदिरों में राधा के विग्रह के स्थान पर कृष्ण के बाएं एक वस्त्र निर्मित गद्दी पर स्वर्ण पत्र रखा रहता है जिस पर श्री राधा अंकित होता है। इस सम्प्रदाय का प्रमुख मन्दिर वृन्दावन में है।
 हरिदासी सम्प्रदायस्वामी हरिदास निकुंज बिहारी कृष्ण इसे सखी सम्प्रदाय भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय के सिद्धांतों का परिचय निजमत सिद्धांत नामक ग्रन्थ में मिलता है। प्रसिद्ध संगीतज्ञ तानसेन स्वामी हरिदास के ही शिष्य थे।
 चैतन्य सम्प्रदाय महाप्रभु चैतन्य ब्रजेन्द्र कृष्ण अचिन्त्य भेदाभेद इसे गौड़ीय सम्प्रदाय के नाम से भी जानते हैं। गोविंद भाष्य इस सम्प्रदाय का मुख्य ग्रन्थ है।


अष्टछाप के कवि

वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ ने 1565ई. में चार वल्लभाचार्य के शिष्यों व चार अपने शिष्यों पर आशीर्वाद की मोहर लगाई इन्हें ही हम अष्टसखा या अष्टछाप के नाम से जानते हैं। ये आठों भक्त श्रीनाथ जी की नित्यलीला में अंतरंग सखा की तरह सदा उनके साथ रहते थे,इसी मान्यता के कारण इन्हें अष्टसखा कहा जाता है।

वल्लभाचार्य के शिष्य

कुम्भनदास

सुरदास

परमानन्द दास

कृष्णदास

गोस्वामी विट्ठलनाथ के शिष्य

गोविंद स्वामी

नन्ददास

छीतस्वामी

चतुर्भुज दास

हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्तिधारा के प्रमुख कवि


सुरदास(1478-1583ई.)


प्रमुख कृतियां

साहित्य लहरी
सूर सरावली

नन्ददास(1533-1583ई.)


प्रमुख कृतियां

अनेकार्थ मंजरी
रस मंजरी
मान मंजरी
रुप मंजरी
विरह मंजरी
रास पंचाध्यायी
सिद्धांत पंचाध्यायी
भँवरगीत

हितहरिवंश(1502ई.)


प्रमुख कृतियां

हित चौरासी

स्वामी हरिदास


प्रमुख कृतियां

सिद्धान्त के पद
केलिमल

वल्लभाचार्य


प्रमुख कृतियां

पूर्वमीमांसा भाष्य
अणुभाष्य
श्रीमद्भागवत सूक्ष्म टीका
तत्वदीप निबन्ध

निम्बार्काचार्य(1162ई.)


प्रमुख कृतियां

वेदांत पारिजात सौरभ
दशश्लोकि
श्रीकृष्णस्तवराज
मन्त्र रहस्य
प्रपन्न कल्पवल्ली

मीराबाई(1504-1563ई.)


प्रमुख कृतियां

नरसी जी का मायरा
गीत गोविन्द टीका

रसखान(1533-1618ई.)


प्रमुख कृतियां

सुजान रसखान
प्रेम वाटिका
दान लीला
अष्टयाम

अन्य प्रमुख कवियों में अष्टछाप के कवि,श्री भट्ट,हरिव्यास देव,परशुराम देव,चतुर्भुजदास(राधवल्लभी), ध्रुवदास, रामराय, बिहारिन दास, माधवदास माधुरी भगवत मुदित आदि हैं।


भ्रमरगीत परम्परा

भ्रमरगीत का तात्पर्य उस उपालम्भ काव्य से है जिसमें नायक की निष्ठुरता के साथ साथ नायिका की मूक व्यथा, विरहवेदना का मार्मिक चित्रण करते हुए नायिका के उपालम्भ का चित्रण भी किया जाता है। परन्तु अब भ्रमरगीत परम्परा उस काव्य के लिए रूढ़ हो गया है जिसमें उद्धव-गोपी संवाद हो।ब्रजभाषा में भ्रमरगीत परम्परा के कई ग्रन्थ हैं। विद्वान इस परम्परा का प्रारंभ विद्यापति के पदों से मानते हैं किंतु विधिवत इस परम्परा का प्रारंभ सुरदास से ही हुआ। भ्रमरगीत परम्परा के कुछ ग्रन्थ निम्न हैं-

रचना

 रचयिता

 प्रमुख विशेषताएं 

 भ्रमरगीत सुरदास भागवत के दशम स्कन्ध पर आधारित।आचार्य शुक्ल ने इसका संकलन भ्रमरगीतसार नाम से किया है।
 भंवरगीत नन्ददास गोपियां सुर की अपेक्षा ज्यादा तर्कशील हैं। ग्रन्थ का बौद्धिक स्तर उच्चकोटि का है।
 भ्रमरदूत सत्य नारायण कविरत्न माता यशोदा का भारतमाता के रूप में चित्रण। वात्सल्य वियोग का काव्य, स्वदेश प्रेम,राष्ट्रीयता व स्त्री शिक्षा का उल्लेख किया गया है।
 प्रियप्रवास अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' राधा की परोपकारिता,विश्वबन्धुत्व व लोककल्याणकारी वृत्ति को चित्रित किया है।
 उद्धवशतक   जगन्नाथ दास रत्नाकर भक्तिकालीन आख्यान एवं रीतिकालीन कलेवर का समन्वय।


ये भी देखें

कृष्ण भक्तिधारा की मुख्य प्रवृतियां


कृष्ण लीला का वर्णन

कृष्ण भक्त कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में कृष्ण की लीलाओं का गान किया है। भगवान श्रीकृष्ण के तीन रुप प्रचलित है - धर्मोपदेष्टा ऋषि , नीतिविशारद क्षत्रिय नरेश तथा गोपालकृष्ण एवं गोपीवल्लभ रुप ही प्रधान हो गया। कृष्ण भक्त कवियों ने लोकरंजनकारी कृष्ण की लीलाओं का उन्मुक्त गान लीलानन्द के लिए किया है। लीला का मूल उद्देश अखण्ड आनन्द में जीवन की आध्यात्मिक परिपूर्णता की अभिव्यंजना करना है। इन्होंने बालगोपाल की वात्सल्यपूर्ण लीलायें , सख्यरूप में लीलायें तथा माधुर्यभाव पूर्ण लीलीये ही समस्त मध्यकालीन हिन्दी - कृष्ण भक्ति काव्य में व्याप्त हैं। कवियों ने इस अखण्ड आनन्द का चरम रुप स्त्री - पुरूष के रतिभाव में कल्पित किया। निम्बार्क सम्प्रदाय , चैतन्य सम्प्रदाय , हरिवंश सम्प्रदाय और हरिदासी सम्प्रदाय इन सभी कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों में माधुर्यभाय का सर्वाधिक महत्व हैं। राधा-कृष्ण की प्रेमलीलाओं का गायन , श्रवण , स्मरण , एवं चिन्तन ही कविकर्म बन गया। सूरदास ने श्रीकृष्ण लीलाओं का वर्णन अत्यंत सूक्ष्म अध्यात्म भावना , मानसिक विरागत्व एवं अत्यंत संयम से किया है । आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार- "लीलागान में भी सूरदास का प्रिय विषय था प्रेम। माता का प्रेम , पुत्र का प्रेम , गोप - गोपियोंका प्रेम , प्रिय और प्रिया का प्रेम , पति और पत्नी का प्रेम , इन बातोंसे ही सूरसागर भरा है। कृष्णभक्त कवि सगुण लीला भक्ति में विश्वास करते हैं। कृष्ण की प्रेम लीलाएं ही रीतिकालीन साहित्य में लौकिक श्रृंगार की अधिकता का कारण बनी।

भक्ति-भावना

कृष्ण भक्ति काव्य में भक्ति भावना तीनो सख्य,वात्सल्य एवं कांता रुपों में प्राप्त होती है। कृष्ण भक्त कवियों की प्रेमलक्षणा भक्ति लोक और वेद में वर्णित सामाजिक नियमों से परे है। कृष्णभक्त कवियों ने प्रेम भावना के नए आयाम स्थापित कर जन सामान्य को प्रेम रस से सरोबार कर दिया। कृष्ण काव्य में दास्य भाव भक्ति का प्रायः आभाव है। यहाँ तो वात्सल्य, सख्य व माधुर्य भाव भक्ति की ही प्रधानता है। इस काव्य में कांटे भाव भक्ति को विशेष महत्व दिया गया है उसमें भी परकीया भाव को प्रमुखता प्रदान की गई है, क्योंकि इनकी दृष्टि में प्रेम का आदर्श रूप यही है।

ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी ऐसी भक्ति ।
सरवस त्याग मगन होय नाचे जनम करम गुन गावे ॥ 
कथनी कथे निरंतर मेरी चरन कमल चित लावे ॥
मुख मुरली नयन जलधारा करसे ताल बजावे ॥
जहां जहां चरन देत जन मेरो सकल तिरथ चली आवे ।
उनके पदरज अंग लगावे कोटी जनम सुख पावे ॥
उन मुरति मेरे हृदय बसत है मोरी सूरत लगावे ।
बलि बलि जाऊं श्रीमुख बानी सूरदास बलि जावे ॥

वात्सल्य रस का विशद चित्रण

वात्सल्य और श्रृंगार के चित्रण में कृष्ण भक्त कवि अद्वितीय है। आचार्य शुक्ल सुरदास के बारे में लिखत हैं- सूर वात्सल्य और वात्सल्य सूर है। इन्होंने कृष्ण के रूप में बालक की विभिन्न चेष्टाओं व क्रियाओं का चित्रण सहज स्वाभाविक ढंग से किया है। वात्सलय रस वर्णन में सूरदास की कविता का विश्व साहित्य में अन्यतम स्थान है। वात्सल्य रस के अंतर्गत जितनी मनोदशायें , क्रीडा तक के विधान है उन सबका हृदयकारी वर्णन कृष्ण भक्ति कवियों ने किया है। 
मैया, कबहिं बढ़ैगी चोटी
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी ॥
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै है लाँबी-मोटी ।
काढ़त-गुहत-न्हवावत जैहै नागिनि-सी भुइँ लोटी ॥
काँचौ दूध पियावति पचि-पचि, देति न माखन-रोटी ।
सूरज चिरजीवौ दोउ भैया, हरि-हलधर की जोटी ॥

आलोकिक प्रेम

कृष्ण भक्त कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रेम की अलौकिकता पर बल दिया है। इनका श्रृंगार रस चित्रण मधुर रस की कोटि में आता है। मधुर रस की स्थापना कृष्ण और राधा के प्रेम का उन्मुक्त चित्रण करने के लिए ही की गई हैं। कृष्ण भक्त कवियोंने रति जैसे प्रसंगो का भी वर्णन किया है। इस प्रकार के प्रसंगों में अध्यात्मिकता ढूँढना व्यर्थ है। इस भक्ति परम्परा में श्रृंगार वर्णन के कई कारण मौजूद थे - एक तो मन्दिरों का वातावरण विलासप्रधान होता गया। दूसरा अधिकारी वर्ग का दृष्टिकोण भी विलासोन्मुख हो गया था। इस प्रकार कृष्ण भक्ति साहित्यपर चैतन्य , हितहरिवंश , हरिदास तथा राधास्वामी सम्प्रदायों का गहरा प्रभाव रहा है ।

रितितत्व का समावेश

कृष्ण भक्ति काव्य में श्रृंगारिक चित्रणों के साथ रीति - तत्व का भी उल्लेख मिलता है। सूरदास और नन्ददास की कृतियाँ इसका प्रमाण मानी जा सकती है। सूरदास की साहित्य लहरी और नन्ददास की ' रसमंजरी ' तथा ' विरहमंजरी ' में नायिका भेद तथा अलंकारों का विवेचन मिलता है। चैतन्य - सम्प्रदाय में भक्ति को काव्य शास्त्र का सांगोपाग रूप देने के लिए भक्ति रसामृत सिन्धु और उज्ज्वल नीलमणि की रचना हो चूकी थी। नन्द दास की रसमंजरी में नायिका भेद , हाव - भाव , रति आदिका विस्तृत विवेचन है। रुपमंजरी में वयः संधि तथा प्रथम समागम आदि दशाओंका वर्णन है। अष्टछाप के अन्य कवियों में भी नायिका भेद के उदाहरण देखे जा सकते हैं। अतः यह स्पष्ट है कि इन कवियों ने अपने काव्योंमें रीति तत्व का समावेश आवश्यक रुप में किया है।

भाषा-शैली 

कृष्ण भक्त कवियों ने अपनी काव्य रचना के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। भाषा की दृष्टि से कृष्णभक्त कवि अत्यंत समर्थ एवं सशक्त हैं सूरदास की ब्रजभाषा परिनिष्ठित एवं साहित्यिक है। इसमें किसी भी भाव को व्यक्त करना सहज है। ब्रज भाषा समस्त उत्तरी भारत में साहित्य की भाषा के रुप में स्वीकृत हुई। ब्रज भाषा की व्यापक प्रतिष्ठा हो ने पर भी आज तक भी इसका व्याकरण सम्मत रूप स्थिर नही हुआ है। यह आधुनिक काल तक साहित्य की भाषा बनी रही। सूर तथा रीतिकालीन देव , बिहारी आदी कवियों ने इस भाषा को जो सौंदर्य दिया है वह समस्त हिन्दी साहित्य में आज भी अद्वितीय है। 
कृष्ण भक्त कवियों ने गीति शैली का प्रयोग किया है। इनके काव्य में गीती तत्व के सभी तत्व उपलब्ध है। जैसे भावात्मकता , संगीतात्मकता , वैयक्तिकता , संक्षिप्तता तथा भाष्य की कोमलता आदि पूर्ण रुप में मिलते है। इन कवियों को वैयक्तिकता के लिए कोई विशेष क्षेत्र नहीं था फिर भी इन्होंने गोपियों के माध्यम से वैयक्तिकता का कलात्मक रूप में समावेश कर लिया है। इन कवियों में अनेक अभिव्यंजना शैली के प्रयोग होते है। सूर - सागर में अनेक अभिव्यंजना शैलियाँ है। इनका साहित्य शब्दशक्ति , अलंकार , काव्य गुण आदि सभी काव्य गुणोंसे सम्पन्न है।

रस योजना

कृष्ण भक्त कवियों ने भिन्न - भिन्न रसों का जितना सुन्दर समन्वय अपनी रचनाओं में किया है। उतना अन्यत्र दुर्लभ है। रस की दृष्टी से कृष्णकाव्य अत्यंत भव्य बन पड़ा है। इन कवियों ने करुणा , वात्सल्य , भयानक , रौद्र आदि रसों का मार्मिक चित्रण किया है। वात्सल्य रस में सूरदास का कोई सानी नही है।

छन्द-अलंकार

कृष्ण भक्ति साहित्य की रचनाएँ प्रमुखतः पदों में की गई है। विभिन्न छंदो का उत्कृष्ट चित्रण इन कवियों ने किया है। इन में दोहा , रोला , चौपाई आदि छदों का प्रयोग बहुत ही कलात्मक है। सूरदास ने कविता , छप्पय , कुण्डलियाँ , हरिगीतिका आदी छंदों का प्रयोग किया है। नन्ददास ने रुपमंजरी ' तथा ' रसमंजरी ' में दोहा , चौपाई का प्रयोग किया है।  
कृष्ण भक्ति काव्य में अलंकारों का अनुठा परिचय दिया गया है। इस काल के कवियों ने विभिन्न अलंकारों का प्रयोग अपनी काव्य रचनाओं में किया है। रुपक , उपमा , उत्प्रेक्षा , यमक , श्लेष आदि अलंकारों का विविध आयामी प्रयोग इन कवियों ने किया है। अलंकार की दृष्टि से यह साहित्य सम्पन्न है।

संक्षेप में , कृष्णा भक्ति साहित्य आनंद और उल्लास की साहित्य इस में सर्वत्र ब्रजरस की प्रधानता है । जो अद्भुत और विलक्षण हैं । शुध्द कलात्मक दृष्टी से यह साहित्य अद्वितीय  है ।



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