काव्य – हेतु

 काव्य – हेतु 
Kavya Hetu

काव्य हेतु

' हेतु ' का शाब्दिक अर्थ है कारण , अतः ' काव्य हेतु ' का हुआ काव्य की उत्पत्ति का कारण । काव्य ' कार्य ' है और ' हेतु ' कारण है । काव्य के निमित्त कारण को काव्य हेतु कहा जाता है । काव्य रचना कर सकने की सामर्थ्य हर व्यक्ति में नहीं होती । कवि में काव्य - प्रणयन का सामर्थ्य उत्पन्न करनेवाले साधनों को काव्य हेतु या काव्य के कारण कहा जाता है । ये साधन ही कवि को काव्य - प्रणयन में सक्षम बनाते है । प्रयोजन से तात्पर्य रचना से प्राप्त होनेवाले लाभों से है । यदि ये लाभ काव्य निर्माण पूर्व ही दृष्टिगोचर होते हैं तो प्रेरणा कहलाते हैं और यदि बाद में प्राप्त होते हैं तो प्रयोजन कहे जाते हैं । इस प्रकार प्रेरणा और प्रयोजन में पूर्वापर सम्बन्ध है । वस्तुतः दोनों प्रयोजन ही है । लेकिन हेतु और प्रयोजन में अन्तर है । हेतु का सम्बन्ध कवि सामर्थ्य से हैं , जबकि प्रयोजन का सम्बन्ध कृति से प्राप्त होनेवाले लाभों से है ।

संस्कृत काव्य शास्त्र में काव्य हेतुओं का निरूपण करनेवाले आचार्यों भामह , दण्डी , वामन , रुद्रट , कुन्तक और मम्मट का नाम उल्लेखनीय है । हिन्दी के रीतिकालीन कवियों में सूरति मिति , श्रीपति तथा आधुनिक युग के जगन्नाथ प्रसाद भानु आदि ने मम्मट के आधार पर ही हेतु - निरूपण किया है । इसके विवेचन में मालिकता एवं नवीनता नहीं , पिष्टपेषण मात्र है । भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य हेतुओं पर पर्याप्त विचार किया गया है और तीन काव्य हेतु माने गए हैं

  1. प्रतिभा 
  2. व्युत्पत्ति 
  3. अभ्यास 

इनमें से प्रतिभा सर्वप्रमुख काव्य हेतु है जिसे काव्यत्व का बीज माना गया है । ' प्रतिभा ' के अभाव में कोई व्यक्ति काव्य रचना नहीं कर सकता । 

यहां हम प्रमुख संस्कृत आचार्यों के ' काव्य हेतु ' से सम्बन्धित मत कालक्रमानुसार प्रस्तुत कर रहे हैं । 

आचार्य भामह

आचार्य भामह ने अपने ग्रन्थ ' काव्यालंकार ' में स्वीकार किया है कि काव्य तो किसी ' प्रतिभाशाली ' द्वारा ही रचा जा सकता है । भामह प्रतिभा ' के साथ - साथ व्युत्पत्ति ' ( शास्त्र ज्ञान ) एवं ' अभ्यास ' को भी काव्य हेतुओं में स्थान देने के पक्षधर हैं ।

आचार्य दण्डी 

आचार्य दण्डी ने अपने ग्रन्थ ' काव्यादर्श ' में प्रतिभा , आनन्द अभियोग ( अभ्यास ) और लोकव्यवहार एवं शास्त्रज्ञान को काव्य हेतुओं के रूप में मान्यता दी है । उनके अनुसार

  • नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहु निर्मलम् । 
  • आनन्दाश्चयाभियोगो अस्याः कारणं काव्य सम्पदा ।। 

आचार्य वामन

आचार्य वामन ने अपने ग्रन्थ ' काव्यालंकार सूत्रवृत्ति ' में प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है 

  • " कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम् " 

लोक व्यवहार , शास्त्रज्ञान , शब्दकोश आदि की जानकारी को भी काव्य हेतुओं में स्थान देते हैं ।

आचार्य रुद्रट

आचार्य ' रुद्रट ' ने अपने ग्रन्थ ' काव्यालंकार ' में प्रतिभा , व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य हेतु स्वीकार किया है । प्रतिभा के वे दो भेद मानते हैं — सहजा और उत्पाद्या । सहजा प्रतिभा कवि में जन्मजात होती है और यही काव्य निर्माण का मूल हेतु है , जबकि उत्पाद्या प्रतिभा लोकशास्त्र एवं अभ्यास से व्युत्पन्न होती है । यह सहजा प्रतिभा को संस्कारित एवं परिष्कृत करती है ।

आचार्य मम्मट

आचार्य ' मम्मट ' ने अपने ग्रन्थ ' काव्यप्रकाश ' में काव्य हेतुओं पर विचार करते हुए लिखा है 

  • शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्यायवेक्षणात् ।
  • काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥ 

अर्थात् काव्य के तीन हेतु हैं — शक्ति , ( प्रतिभा ) , लोकशास्त्र का अवेक्षण तथा अभ्यास । वे एक अन्य स्थान पर " यह भी कहते हैं- " शक्तिः कवित्व बीजरूपः " अर्थात् ' शक्ति ' काव्य का बीज संस्कार है , जिसके अभाव में काव्य रचना सम्भव ही नहीं है । जिसे अन्य आचार्य ' प्रतिभा ' कहते हैं , उसी को मम्मट ने ' शक्ति ' कहा है । 

राजशेखर

“ प्रतिभा व्युत्पत्ति मिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति " 

अर्थात् प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों समवेत रूप में काव्य के श्रेयस्कर हेतु हैं । वे प्रतिभा के दो भेद स्वीकारते हैं

  • कारयित्री कारयित्री प्रतिभा जन्मजात होती है तथा इसका सम्बन्ध कवि से है । 
  • भावयित्री भावयित्री प्रतिभा का सम्बन्ध सहृदय पाठक या आलोचक से है । 

पण्डितराज जगन्नाथ

इन्होंने अपने ग्रन्थ ' रस गंगाधर ' में ' प्रतिभा ' को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है 

" तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा " 

उक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि काव्य के तीन प्रमुख हेतु हैं 

  • प्रतिभा
  • व्युत्पत्ति
  • अभ्यास । 

इन सभी विभिन्न हेतुओं के स्वरूप को समझने से पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि संस्कृत काव्यशास्त्र में काव्य - हेतुओं पर अधिक विवाद नहीं है , विवाद है उनके तारतम्य , महत्व और प्रभाव के विषय में । इस विषय में आचार्यों के तीन वर्ग है 

प्रथम वर्ग में वे आचार्य आते हैं , जो मात्र प्रतिभा को ही हेतु मानते हैं , शेष अभ्यास और व्युत्पत्ति को प्रतिभा का ही संस्कारक स्वीकारते हैं । इन्हें प्रतिभावादी आचार्य कहा जा सकता है । इस वर्ग में राजशेखर , वाग्भट्ट , हेमचन्द्र तथा जगन्नाथ का नाम उल्लेखनीय है । ये सभी आचार्य प्रतिभा को काव्य - हेतु तथा व्युत्पत्ति एवं अभ्यास को प्रतिभा का उपकारक , संस्कारक , विभूषक या उन्मीलक मानते हैं । वाग्भट का कथन है 

  • " प्रतिभेव च कवीनां काव्य - कारणकारणम् । 
  • व्युत्पत्यम्याची तस्या एवं संस्कार कारकी । 

इसी प्रकार हेमचन्द का मत है 

  • " प्रतिभास्य हेतुः । 
  • व्युत्पत्यभ्यासाभ्यां संस्कार्या । ' 

द्वितीय वर्ग में वे आचार्य आते हैं , जो प्रतिभा , व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को सम्मिलित कारण मानते हैं । इन्हें समन्वयवादी आचार्य कहा जा सकता है । रुद्रट और मम्मट इसी वर्ग के आचार्य है । मम्मट का मत है कि शक्ति , व्युत्पत्ति और अभ्यास । ये तीनों समष्टि रूप से , काव्य के उद्भव निर्माण और विकास में कारण है , अलग अलग तीन हेतु नहीं हैं । 

तृतीय वर्ग में वे आचार्य आते हैं , जो काव्य हेतु में महत्त्वपूर्ण स्थान तो प्रतिभा को देते है । किन्तु उसके अभाव में भी काव्य प्रणयन की बात कहते हैं । जबकि प्रथम दोनों आचार्य इसे असम्भव मानते हैं । इस वर्ग में दण्डी का नाम आता है । उनका मत है कि यदि प्राक्तन संस्कारों से उत्पन्न प्रतिभा न भी हो तो भी अध्ययन और अभ्यास के द्वारा सरस्वती की कृपा सेवकों पर अवश्य होती है । तात्पर्य यह है कि वे प्रतिभा की अपरिहार्यता को स्वीकार नहीं करते । उसके अभाव में उत्कृष्ट न बन सके , किन्तु मध्यम श्रेणी का काव्य अवश्य बन जाएगा- ऐसी दण्डी धारणा है । 

काव्य हेतुओं का स्वरूप

प्रतिभा

काव्य हेतुओं में प्रतिभा का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । इस विषय में प्रायः सभी आचार्य एकमत हैं कि प्रतिभा ही कवित्व का बीज है । जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की कल्पना नहीं की जा सकती , उसी प्रकार प्रतिभा रहित व्यक्ति काव्य - प्रणयन नहीं कर सकता । यदि वह काव्य - प्रणयन में प्रवृत होता है , तो उसकी कृति उपहास योग्य ही होती है । प्रतिभा वह शक्ति है जो किसी व्यक्ति को काव्य रचना में समर्थ बनाती हैं । राजशेखर ने प्रतिभा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है — सा शक्तिः केवल काव्य हेतुः । आचार्य भट्टतीति के अनुसार प्रतिभा उस प्रज्ञा का नाम है जो नित नवीन रसानुकूल विचार उत्पन्न करती है : ' प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मताः ' वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक ने प्रतिभा उस शक्ति को माना है जो शब्द और अर्थ में अपूर्व सौन्दर्य की सृष्टि करती है , नाना प्रकार के अलंकारों , उक्ति वैचित्र्य ' शक्ति ' कहते हैं और काव्य का बीज स्वीकार करते हैं । 

आचार्य मम्मट ने प्रतिभा को एक नया नाम दिया । वे इसे शक्ति कहते हैं और काव्य का बीज स्वीकार करते हैं जिसके बिना काव्य की रचना असम्भव है । 

' शक्तिः कवित्व बीज रूपः संस्कार विशेषः '

अर्थात् शक्ति ( प्रतिभा ) कवित्व का बीजरूप संस्कार विशेष है । जिसके बिना काव्य सृजन नहीं हो सकता । आचार्य रूदट ने शक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जिस व्यक्ति में शक्ति होती है उसके समाहित चित्त में अर्थ का सदैव अनेक प्रकार से भान होता रहता है तथा क्लिष्टत्त्व आदि दोषों से शून्य पद उसे सदैव सूझते रहते है । इससे स्पष्ट है कि प्रतिभा और शक्ति एक दूसरे के भिन्न नहीं हैं । रुद्रट ने स्वयं भी स्पष्ट कर दिया है कि इस शक्ति को ही अन्य अलंकारिकों ने प्रतिभा नाम दिया है । 

राजशेखर ने दोनों में अन्तर माना है । उनका मत है कि शक्ति कर्त रूप है और प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति कर्मरूप । शक्ति सम्पन्न में ही प्रतिभा उत्पन्न होती है और वह ही व्युत्पन्न होता है । तात्पर्य यह है कि दोनों में बहुत अन्तर नहीं है । उक्त अन्तर अत्यन्त सूक्ष्म तथा सैद्धान्तिक है , व्यावहारिक धरातल पर शक्ति और प्रतिभा दोनों एक ही है ।

प्रतिभा तीन प्रकार की होती है 

  1. सहजा - पूर्व जन्म के संस्कारों से प्राप्त प्रतिभा ।
  2. आहार्या - शास्त्राध्ययन और काव्याभ्यास से प्रतिभा का विकास ।
  3. औपदेशिकी - तन्त्र , मन्त्र , देवता , गुरु आदि के आशीर्वाद से प्राप्त प्रतिभा ।

सहजा प्राक्तन संस्कारों से सम्बद्ध होने से , अल्प संस्कार से ही उबुद्ध हो जाती है । जबकि शेष दोनो के लिए अथक परिश्रम करना पड़ता है । 

राजशेखर ने कवि और सहृदय के आधार पर प्रतिभा के दो भेद किए हैं

  1. कारयित्री - कारयित्री प्रतिभा कवि की उपकारक होती है । वह कवि के हृदय में नूतन शब्दार्थ समूह , मनोहर कल्पना , उक्ति वैचित्र्य आदि को प्रतिभासित करती है । 
  2. भावयित्री - भावयित्री प्रतिभा सहृदय का उपकार करती है । यह प्रतिभा कवि के श्रम तथा अभिप्राय को स्पष्ट करती है । यही प्रतिभा कवि की कवितारूपी लता को सफल बनाती है इसके अभाव में कविता का वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो पाता । यही उसकी उपादेयता को सिद्ध करती है । 

व्युत्पत्ति

व्युत्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है निपुणता , पांडित्य या विद्वत्ता । ज्ञान की उपलब्धि को भी व्युत्पत्ति कहा गया है । यह ज्ञानोपलब्धि शास्त्रों के अध्ययन और लोक व्यवहार के अवेक्षण से होती है । विद्वानों का मत है कि साहित्य के गहन चिन्तन - मनन से कवि की उक्ति में सौन्दर्य का समावेश हो जाता है और उसकी रचना सुव्यवस्थित हो जाती है । रुद्रट ने यह बताया है कि छन्द , व्याकरण , कला , पद और पदार्थ के उचित - अनुचित का सम्यक् ज्ञान ही व्युत्पत्ति कहा जाता है । आचार्य मम्मट ने व्युत्पत्ति को एक नया नाम दिया है - निपुणता । यह निपुणता चराचर जगत के निरीक्षण और काव्य आदि के अध्ययन से प्राप्त होती है । राजशेखर के अनुसार 

उचितानुचित विवेकौ व्युत्पत्तिः । 

अर्थात् उचित - अनुचित व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है 

  • शास्त्रीय - व्युत्पत्ति शास्त्रों के अध्ययन से ।
  • लौकिक - व्युत्पत्ति लोक के निरीक्षण से उत्पन्न होती है । 

लोक तथा शास्त्र का अध्ययन कवि को त्रुटियों से बचाता है । वर्ण्य विषय का ज्ञान , ऋतु ज्ञान , देश ज्ञान , भौगोलिक जानकारी आदि से कविता में त्रुटि आने की सम्भावना नहीं रहती ।

अभ्यास

काव्य निर्माण का तीसरा हेतु अभ्यास है । आचार्य वामन ने अभ्यास को महत्व देते हुए लिखा है— ' अभ्यासोहि कर्मसु कौशलं भावहिति । ' अर्थात् अभ्यास के द्वारा ही कवि कर्म में कुशलता प्राप्त की जा सकती है । आचार्य दण्डी ने तो अभ्यास को ही काव्य का प्रमुख हेतु माना है । वे तो यहां तक कहते हैं कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति के अभाव में केवल अभ्यास से ही काव्य रचना में कोई कुशल हो सकता है । निरन्तर अभ्यास से ही कविता निखरती है , जो कवि कीर्ति चाहते हैं उन्हें आलस्य को त्यागकर सरस्वती की उपासना करनी चाहिए और निरन्तर कवि कर्म का अभ्यास करते रहना चाहिए । अभ्यास के महत्व को निम्न शब्दों में स्वीकार किया गया है 

  • करत - करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । 
  • रसरी आवत जात तें सिल पर परत निसान । 

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि प्रतिभा व्युत्पत्ति और अभ्यास ही प्रमुख काव्य हेतु हैं , किन्तु प्रतिभा सर्वप्रमुख है जिसे व्युत्पत्ति और अभ्यास से निरन्तर निखारा जा सकता है । वस्तुतः ये तीनों समन्वित रूप में ही काव्य के हेतु हैं जिन्हें अलग - अलग नहीं किया जा सकता । जिस प्रकार पानी को बार - बार छानने से वह निर्दोष हो जाता है और बर्तन को बार - बार मांजने से वह चमक उठता है उसी प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास से प्रतिभा को निर्दोष और आकर्षक बनाया जा सकता है ।

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