भाषा शिक्षण में मूल्यांकन , उपलब्धि परीक्षण , समग्र एवं सतत मूल्यांकन , उपचारात्मक शिक्षण
Assessment, achievement test, overall and continuous assessment, remedial teaching in language teaching
हिंदी शिक्षण में मूल्यांकन
मूल्यांकन का अर्थ है मूल्य का आँकना । मूल्यांकन इस बात की जाँच करता है , कि शिक्षण के परिणामस्वरूप छात्रों के व्यवहार में क्या - क्या परिवर्तन हुए है ।
मूल्यांकन के उद्देश्य
- विशिष्ट व उपचारात्मक शिक्षण देना ।
- छात्रों में योग्यताओं , कुशलताओं , वृत्तियों , रूचियों व समझदारी आदि को ग्रहण करने की क्षमता की जांच करना ।
- विद्यार्थियों को समय - समय पर अधिगम प्रगति की जानकारी देना ।
- शिक्षक तथा शिक्षण की सफलता व असफलता की जांच ( पृष्ठपोषण का कार्य )
- पाठ्यक्रम , शिक्षणाविधि आदि में नवाचार हेतु ।
- शैक्षिक , प्रशासनिक व नीति निर्धारक निर्णय लेना ।
- मूल्यांकन परिणामों के आधार पर छात्र की उपलब्धि जानकर भावी मार्गदर्शन किया जाता है ।
मूल्यांकन का महत्त्व
- शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है ।
- शिक्षण विधियों के उचित चुनाव व प्रयोग में सहायक होता है ।
- छात्रों की शैक्षणिक प्रगति की जानकारी देता है ।
- छात्रों की कमजोरियों को जानकर तथा दूर कर उनकी प्रगति में सहायक होता है ।
- छात्रों को अध्ययन के लिए प्रेरित करता है ।
- व्यक्तिगत , शैक्षिक एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन में सहायक होता है ।
मूल्यांकन प्रक्रिया के सोपान
- उद्देश्यों का चयन व निर्धारण
- उद्देश्यों का विश्लेषण व व्याख्या
- उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अध्ययन अध्यापन क्रियाओं का निर्धारण ।
- मूल्यांकन प्रविधियों का चयन करना ।
- प्रविधियों का प्रयोग व परिणाम निकालना ।
- परिणामों की व्याख्या व सामान्यीकरण करना ।
अच्छे मूल्यांकन के गुण
- व्यापकता
- वैधता
- विश्वसनीयता
- व्यावहारिकता
- वस्तुनिष्ठता
- उपयोगिता
मूल्यांकन की विशेषताएं
- निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है ।
- मूल्यांकन क्षेत्र का व्यापक होना है ।
- छात्र के व्यवहार परिवर्तनों तथा अनुभवों पर ध्यान दे ।
- निर्णयात्मक प्रक्रिया अपनाई जाती है ।
- साक्ष्यों ( छात्रों की उपलब्धियों एवं कमज़ोरियों संबंधी तथ्यों ) का संकलन करता है ।
- सम्पूर्ण व्यक्तित्व की जाँच करता है ।
पाठान्तर्गत व पाठोपरांत मूल्यांकन
पाठांतर्गत मूल्यांकन
इसमें शिक्षण के दौरान छात्रों से पाठ पर आधारित वस्तु बोध एवं भाषा से संबंधित जाँच के प्रश्न पूछे जाते हैं । इसमें बोध प्रश्नों के अन्तर्गत उच्चारण , वाक्य - प्रयोग का पता लगता है । इसमें 3-4 ऐसे प्रश्न किए जाते हैं , जिससे पूर्व सोपानों में पठित भाषिक तत्वों व सामग्री की जाँच कर ली जाती है । महत्त्वपूर्ण विचारों को श्यामपट्ट पर लिख दिया जाता है ।
पाठोपरांत मूल्यांकन
पाठोपरांत की स्थिति में शिक्षक पुनरावृत्ति प्रश्नों द्वारा मूल्यांकन करता है , जिसके अन्तर्गत वस्तुनिष्ठ प्रश्न , लघूत्तर प्रश्न तथा निबन्धात्मक प्रश्न होते हैं । इसमें पाठ संबंधी कार्य , शब्द रचना - प्रयोग आदि से संबंधित प्रश्न घर से पूरा करके लाने के लिए दिए जाते हैं । पूर्व सोपान में जो - कुछ रह गया उसको गृहकार्य के रूप में दे दिया जाता है । यह एक तरह से पाठोपरांत मूल्यांकन है ।
मूल्यांकन की विधियाँ
छात्रों के व्यवहारगत परिवर्तनों , रुचियों , योग्यता की जाँच करने के लिए अध्यापक विभिन्न विधियों की सहायता लेता है । जो निम्न हैं-
परीक्षा
मूल्यांकन की सबसे महत्त्वपूर्ण विधि परीक्षा है । यह तीन प्रकार से हो सकती है -
- लिखित
- मौखिक
- प्रायोगिक
लिखित परीक्षा
इसमें प्रश्नों की रचना के आधार पर लिखित परीक्षा के तीन रूप होते हैं-
- निबन्धात्मक
- लघूत्तरात्मक
- वस्तुनिष्ठ
निबन्धात्मक प्रश्न - उत्तर विस्तृत निबन्ध के रूप में देना ।
गुण
सर्जनात्मक योग्यता का विकास ।
लिखित अभिव्यक्ति की योग्यता की जाँच ।
विचारों का संग्रह व्यवस्थित व उचित भाषा में ।
तीव्र गति से लिखने की योग्यता ।
सीमाएँ
रटने की प्रवृत्ति जाग्रत करना ।
सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के स्थान पर कुछ ही प्रश्न पूछना ।
विषय का आंशिक ज्ञान ।
मूल्यांकन में परीक्षक का दृष्टिकोण प्रभावी ।
लघु उत्तर परीक्षा
प्रश्नों का उत्तर एक , दो , तीन या चार पंक्तियों में देना होता है ये निबन्धात्मक प्रश्नों की अपेक्षा संख्या में अधिक होते हैं ।
बोध - शक्ति व ज्ञान की जाँच ।
वाक्य रचना योग्यता विकसित करना ( कम शब्दों में सुगठित वाक्यों के द्वारा उत्तर देना )
अधिक पाठ्यक्रम का मूल्यांकन ।
उत्तर अधिक निश्चित ।
सीमाएँ
तर्क , विचार संबंधी मानसिक शक्तियों की जाँच नहीं हो पाती ।
भाषा शैली की जाँच नहीं हो पाती ।
वस्तुनिष्ठ परीक्षा
इन प्रश्नों के उत्तर किसी चिह्न विशेष या एक - दो शब्दों द्वारा दिए जाते हैं । कम समय में अधिक प्रश्न और पूरे पाठ्यक्रम में से होते हैं ।
गुण
विश्वसनीय एवं प्रमाणिक ।
सम्पूर्ण विषय वस्तु तैयार करना ।
उत्तर निश्चित होने के कारण अंक निश्चित ।
छात्रों के ज्ञान की सही जानकारी ।
उत्तरों का मूल्यांकन आसान ।
दोष
तर्क , मानसिक शक्ति , विचारों की अभिव्यक्ति , भाषा - शैली का प्रयोग , भाषागत कमजोरियों की जाँच नहीं हो पाती ।
केवल स्मरण शक्ति की जाँच ।
अनुमान कार्य को प्रोत्साहन ।
प्रश्न - पत्र बनाना कठिन व श्रम साध्य ।
उत्तर देने की स्वतंत्रता नहीं ।
वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के प्रकार
पुनः स्मरण परीक्षा - इसमें पूर्व स्मृति वाली बातों को स्मरण करके उत्तर देना होता है ।
रिक्त स्थान पूर्ति परीक्षा - इसमें छूटे स्थान में उचित शब्द लिखना होता है ।
चुनाव वाक्य पूर्ति परीक्षा - कुछ शब्दों में से उचित शब्द का चुनाव करके रिक्त स्थान पूरा करना होता है ।
बहुविकल्प परीक्षा - एक प्रश्न के तीन - चार उत्तरों में से सही उत्तर के आगे निशान लगाना होता है ।
सत्य – असत्य - प्रश्नों में कथनों के सामने सत्य - असत्य दिए जाते हैं । सत्य पर निशान लगाना होता है ।
मौखिक परीक्षा
इसमें मौखिक रूप से प्रश्न पूछकर ही उत्तर प्राप्त किया जाता है । इसका प्रयोग उच्चारण बोलकर विचारों को व्यक्त करने की क्षमता की जाँच के लिए किया जाता है । छात्र के आत्मविश्वास का मापन भी मौखिक परीक्षा द्वारा ही होती है ।
प्रायोगिक परीक्षा
मूलतः प्रायोगिक परीक्षा विज्ञान , भूगोल आदि में प्रयुक्त की जाती है , परन्तु भाषा एक कौशल भी है अतः उसके और विभिन्न कौशलों की जाँच हेतु प्रायोगिक परीक्षा अपेक्षित है । हिंदी भाषा में सस्वर वाचन , कविता - पाठ , भाषण , वाद विवाद आदि की क्षमताओं की प्रायोगिक परीक्षा का आयोजन कर योग्यता मापन किया जा सकता है ।
उपलब्धि परीक्षण का निर्माण
शिक्षक द्वारा विद्यार्थी की उपलब्धियाँ को जाँचने के लिए जो परीक्षण निर्मित किया जाता है वह उपलब्धि परीक्षण कहलाता है । यह परीक्षण नीलपत्र पर आधारित होना चाहिए अर्थात् उपलब्धि परीक्षण में नील - पत्रानुसार निम्न पक्षों का समावेश किया जाना चाहिए -
- उद्देश्यों के अनुसार अंक भार
- विषय - वस्तु अनुसार अंक भार
- प्रश्नों के अनुसार अंक भार
उपलब्धि परीक्षण का उद्देश्य
- बालक की लेखन पठन आदि क्षमताओं का मापन करता है ।
- शिक्षण विधि के सुधार में सहायक है ।
- शिक्षार्थी का मार्गदर्शन है ।
- अधिगम की उत्तम परिस्थितियों का निर्माण है ।
- शिक्षार्थियों का वर्गीकरण करना है ।
- विद्यार्थियों की प्रगति का तुलनात्मक अध्ययन है ।
उपलब्धि परीक्षण के निर्माण के चरण
- उद्देश्य निश्चित करना ।
- अभिकल्प निर्धारण - परीक्षण के नीतिगत निर्णय अर्थात् शिक्षण उद्देश्य , प्रश्न प्रकार , पाठ्यक्रम , ईकाई , उपईकाई , कठिनाई के स्तर के आधार पर भारांक निश्चित करना ।
- रूपरेखा तैयार करना
- प्रश्न लेखन करना ।
- समकंन ( जांच कार्य करना ।)
उपलब्धि परीक्षण के प्रकार
प्रमापीकृत परीक्षण / मानक परीक्षण
इस प्रमापीकृत परीक्षाओं की सामग्री व्यवस्था , अंकन , व्याख्या आदि विशिष्ट रूप स्वीकृत होती है । ये परीक्षण एक व्यापक स्तर पर निश्चित मानकों पर होते है । जैसे बोर्ड द्वारा पूरे राज्य में होने वाले परीक्षण प्रमापीकृत होते है ।
अनौपचारिक या अध्यापक कृत परीक्षाएं / अप्रमापीकृत परीक्षण
ये अध्यापक द्वारा विद्यार्थियों के परीक्षण के लिए समय - समय पर बनाई जाती है । अध्यापककृत परीक्षाओं से अध्यापक प्रत्यक्षतः सम्बन्धित होता है तथा इसके द्वारा कक्षा के विशिष्ट लक्ष्यों तथा कक्षा की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार विद्यार्थियों का परीक्षण किया जाता है । ये लिखित , मौखिक व प्रायोगिक हो सकती है ।
समग्र एवं सतत् मूल्यांकन
इसे सतत् और व्यापक मूल्यांकन भी कहते है । इस मूल्यांकन का अर्थ है कि विद्यार्थियों के विद्यालय - आधारित मूल्यांकन की उस प्रणाली से है , जिसमें विद्यार्थियों के सभी पहलुओं की ओर ध्यान दिया जाता है । सतत् शब्द का अर्थ निर्धारण की नियमितता , यूनिट परीक्षण की आकृति , शिक्षा प्राप्ति की कमियाँ का निदान , सुधारात्मक उपायों का उपयोग , पुनः परीक्षण और अध्यापकों और छात्रों के स्वमूल्यांकन के लिए उन्हें घटनाओं के प्रमाण को प्रति पुष्टि प्रदान करना है । व्यापक का अर्थ है कि यह योजना विद्यार्थियों के संवृद्धि और विकास के लिए शैक्षिक और सह शैक्षिक दोनों को समाहित करने का प्रयास करती है । सतत एवं समग्र मूल्यांकन विद्यार्थी के लिए उपयोगी है ; परन्तु शिक्षक के लिए भार नहीं बल्कि चुनौती है ।
समग्र और सतत् मूल्यांकन का महत्त्व या कार्य
- तत्काल फीडबैक ।
- नीति नियोजन में सहायक ।
- छात्र की प्रगति का नियमित अंक ।
- छात्र की कमियों का निदान ।
- उपचारी शिक्षण में उपयोगी ।
- छात्रों में अच्छी आदतों का विकास ।
- भविष्य के फैसले लेने में सहायक ।
- छात्र की अभिरुचियों का अभिज्ञान ।
- शैक्षिक एवं सहशैक्षिक क्षेत्रों की उपलब्धियाँ का ज्ञान ।
- भावी सफलताओं का पूर्वानुमान ।
उपचारात्मक शिक्षण
निदानात्मक परीक्षण
बालक को जो - कुछ सिखाया जाता है , उसमें से कुछ पाठ्यांश को तो बालक ठीक तरह से सीख लेता है ; किंतु कुछ भाग ऐसा भी हो सकता है , जिसे वह बिल्कुल नहीं समझ पाता है । किस बालक में शिक्षण संबंधी कौनसी कमियाँ रह गई है , इसका पता लगाने के लिए शिक्षक जिस वैज्ञानिक प्रक्रिया को अपनाता है । वह नैदानिक परीक्षण कहलाता है ।
निदानात्मक परीक्षण का उद्देश्य
- कमियों एवं उनके कारणों का पता लगाना ।
- शिक्षण संबंधी कमी का पता लगाना ।
- अतिरिक्त ज्ञान देकर कमज़ोर बालकों को अन्य बालकों के साथ लाना ।
कमियों के कारण
- मन्द बुद्धि
- भावात्मक दोष
- शारीरिक दोष
- प्रारंभिक ( कक्षा के स्तर की ) योग्यता का अभाव ।
- शिक्षण विधि का दोष
- विषय की कठिनाई
उपचारात्मक शिक्षण
निदानात्मक परीक्षण से बालकों की त्रुटियों का पता लग जाने पर सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से शिक्षण द्वारा उन कमियों को दूर करना ही उपचारात्मक शिक्षण कहलाता है ।
उपचारात्मक शिक्षण के समय ध्यान देनेवाले बिंदु
- जहाँ कमी रही वहीं से उपचारात्मक शिक्षण प्रारंभ करना ।
- निरन्तर प्रगति की जानकारी बच्चों को देते रहना ।
- छात्रों को हीन , पिछड़ा या कमजोर बताकर व्यवहार नहीं ।
- अभिभावकों से सम्पर्क मानसिक , घरेलू व शारीरिक समस्या ।
- उपचारात्मक शिक्षण हो जाने पर पुनः मूल्यांकन करना ।
- निदानात्मक परीक्षण व उपचारात्मक शिक्षण का महत्त्व व उपयोगिता
- सीखने संबंधी कठिनाइयों का ज्ञान ।
- कठिनाइयों एवं कारणों को दूर करने हुए समुचित शिक्षण अपनाना ।
- शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली होती है ।
- शक्ति व योग्यानुसार प्रगति ।
- हीन भावना दूर होकर व्यक्तित्व विकास होता है ।
विशेषः- उपचारात्मक शिक्षण में शिक्षण विधि को स्थायी नहीं रखना चाहिए । उपचारात्मक शिक्षण से पूर्व निदानात्मक शिक्षण होना चाहिए । विद्यार्थी में शारीरिक दोष होने पर उनकी तत्काल डॉक्टरी सहायता की जानी चाहिए ।
1 comments:
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उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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