काव्य रस Rasa
आचार्य विश्वनाथ ने अपने साहित्य दर्पण नामक ग्रन्थ के प्रथम परिच्छेद में काव्य की परिभाषा ' वाक्य रसात्मक काव्यम ' की है । रस को काव्य की आत्मा माना गया है । काव्य को पढ़ने , सुनने , देखने और सर्जन से पाठक श्रोता दर्शक और सर्जक ऐसी भाव भूमि पर पहुंच जाता है , जहाँ पर केवल निर्विकल्प , निर्लेप शुद्ध आनन्दमयी चेतना का ही साम्राज्य रहता है । उस भाव भूमि को प्राप्त कर लेने की स्थिति का नाम ही रस है । फलतः रस एक अलौकिक स्थिति है । विद्वानों ने रस का सामान्य अर्थ आनन्द माना है । काव्य का लक्ष्य भी आनन्द की प्राप्ति माना गया है ।
रस शब्द की व्युत्पत्ति
“रस्यते आस्वाद्यत इति रसः”
जिन पदार्थों का आस्वादन किया जाता है वे रस हैं । इस प्रकार परमात्मरूप रस , मधुर पदार्थ , सोम , गन्ध , मधु आदि पदार्थों को रस कहा जा सकता है
“रस्यते अनेन इति रसः”
जिन पदार्थों के द्वारा आस्वादन किया जाता है । उनको भी रस कहते हैं । इस आधार पर शब्द , राग , वीर्य , शरीर आदि को रस कह सकते हैं ।
“रसति रसयति वा रसः”
जो व्याप्त हो जाता है या व्याप्त कर लेता है उसको रस कहते हैं । इस प्रकार पारद , जल , शरीर की रस धातु या अन्य द्रव पदार्थों को रस कहते हैं ।
“रसनं रसः आस्वादः”
जो आस्वाद है उसको रस कहते हैं । इस आधार पर शृंगार आदि को रस कहते हैं क्योंकि वे आस्वादरूप हैं ।
रस की परिभाषा
रस सिद्धान्त का प्रतिपादक प्राचीनतम उपलब्ध ग्रंथ भरतमुनि का नादयशास्त्र है । नाट्यशास्त्र में नाटक के संदर्भ में रस का विस्तार से विवेचन मिलता है । भरतमुनि ने नाटक को साहित्य का सर्वश्रेष्ठ रूप माना और नाटक का प्राण रस को । रस की व्याख्या करने वाला भरतमुनि का प्रसिद्ध सूत्र है
“ विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद् रसनिष्पतिः”
अर्थात् विभाव , अनुभाव , व्यभिचारी ( संचारीभाव ) के साथ जब स्थायीभाव का संयोग होता है तब रस की निष्पत्ति होती है ।
स्थायी भाव , विभाव , अनुभाव , संचारीभाव ये चारों रस के अङ्ग कहलाते हैं । भरतमुनि ने रस सम्बन्धी मन्तव्य को इस प्रकार स्पष्ट किया है
यथा बहुद्रव्ययुतैर्व्यञ्जनैर्बहुभिर्युतम् ।
आस्वादयन्ति भुञ्जाना भक्तं भक्तविदो जनाः ।।
भावाभिनयसंबद्धान् स्थायिभावांस्तथा बुधाः ।
आस्वादयन्ति मनसा तस्मन्नाट्यरसाः स्मृताः ।।
अर्थात जिस प्रकार नाना व्यञ्जनों , औषधियों तथा द्रव्यों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है । जिस प्रकार गुङादि द्रव्यों व्यञ्जनों और औषधियों से षाडवादि रस बनते हैं , उसी प्रकार विविध भावों से संयुक्त होकर स्थायी भाव भी रसरूप को प्राप्त होते हैं ।
भरतमुनि के कथन के महत्त्वपूर्ण बिन्दु –
- रस अनुभूति का विषय है ।
- विभाव , अनुभाव तथा संचारी भाव से संयुक्त एवं विविध अभिनयों द्वारा व्यञ्जित स्थायीभाव ही रस या नाट्यरस में परिणत हो जाता है ।
- स्थायीभाव रस नहीं है किन्तु रस का आधार है ।
- स्थायीभाव से अभिप्राय कवि या सहृदय के स्थायीभाव से न होकर नायक के स्थायीभाव से है ।
- रस कला का आस्वाद नहीं है कलात्मक स्थिति है ।
- सहृदय रस का आस्वादन करता है और इसका आस्वाद हर्षादि रूप में ही होता है ।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार “रस अखण्ड , स्वयं प्रकाश , आनंदमय , चिन्मय , वेद्यान्तरस्पर्शशून्य , ब्रह्मानंद सहोदर और लोकोत्तर चमत्कार प्राण होता है ।“
डॉ . भगीरथ मिश्र के अनुसार " रस एक प्रकार का विशेष आनंद है जो काव्य के पठन , श्रवण अथवा नाटक के अभिनय को देखने से सामाजिकों को प्राप्त होता है । "
डॉ . दशरथ ओझा के अनुसार " काव्य को पढ़ने या नाटक के देखने से हमारे हृदय में जो क्रोध , करुणा , घृणा और प्रेमादि भाव जगते हैं उसे ही रस कहते हैं । "
रस का स्वरूप
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार
सत्वोदेकादखण्डस्वप्रकाशानन्द चिन्मयः ।
वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वाद सहोदरः ।
लोकोत्तरचमत्कार प्राण : कैश्चित्प्रमातृभिः ।
स्वकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ।।
रस के अंग
भरतमुनि के अनुसार – “ विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रस निष्पत्ति ”
विभाव , अनुभाव , संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है ।
आचार्य मम्मट के अनुसार “आलम्बन विभाव से उदयुद्ध , उद्दीपन विभाव से उद्दीप्त , व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभावों द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव ही रसदशा को प्राप्त होता है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि रस के कुल चार अंग है –
विभाव , अनुभाव , संचारी भाव और स्थायी भाव ।
विभाव
विभाव का अर्थ है कारण । अर्थात् जो रसनिष्पत्ति में कारण है , उसे ही विभाव कहते हैं । लोक में रति आदि स्थायी भावों की उत्पत्ति के जो कारण अथवा हेतु होते हैं , उन्हें विभाव कहते हैं ।
विभाव दो प्रकार के होते हैं
आलम्बन विभाव और उद्दीपन विभाव
आलम्बन विभाव
जिन पर आलम्बित होकर स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं , उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं । अर्थात् जिसे देखकर अथवा सुनकर रस का गुण या मनोविकार जागृत हो वही आलम्बन है ।
आलम्बन विभाव दो प्रकार का होता है
विषयालम्बन तथा आश्रयालम्बन
विषयालम्बन
जिसके उद्देश्य से रति आदि स्थायी भाव जागृत होते हैं वह रति आदि स्थायी भावों का विषय या आलम्बन है । अर्थात् जिस व्यक्ति या वस्तु के प्रति किसी पात्र के भाव जागृत होते हैं वह ( व्यक्ति या वस्तु ) विषय आलम्बन है ।
जैसे
सीता को देखकर राम के हृदय में प्रेम उत्पन्न होने की दशा में सीता विषय आलम्बन है ।
आश्रय आलम्बन
रति आदि भाव जिस व्यक्ति अथवा पात्र में उत्पन्न होते हैं वह आश्रय आलम्बन कहलाता है ।
जैसे
सीता को देखकर राम के हृदय में प्रेम उत्पन्न होने की दशा में राम आश्रय आलम्बन है ।
उद्दीपन विभाव
उद्दीपन का शाब्दिक अर्थ है - जागृत करना । स्थायी भावों को ओर अधिक उद्दीप्त अथवा उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है –
आलम्बन की चेष्टाओं द्वारा और देशकाल तथा वातावरण ।
जैसे
प्राकृतिक वातावरण , एकान्त स्थान , मधुर संगीत आदि ।
अनुभाव
अनुभाव " अनु + भाव । ' अनु ' उपसर्ग है जिसका अर्थ है ' पीछे ' । अर्थात् वह भाव जो पीछे ( बाद ) उत्पन्न हो । विभावों ( स्थायी भाव ) के पश्चात् प्रकट होने वाले भाव ही अनुभाव कहलाते हैं । अनुभावों का सम्बन्ध आश्रय से है । आश्रय में रस के उत्पन्न होने पर उसे बाह्य चेष्टाओं द्वारा प्रकट किया जाता है । ये चेष्टाएँ अनुभाव के अन्तर्गत ही आती हैं ।
जैसे
प्रिय मिलन में रोमांच , अनुराग , अश्रु आदि अनुभाव हैं ।
अनुभाव चार प्रकार के होते हैं
- कायिक अनुभाव - ये अनुभाव शरीर सम्बन्धी होते हैं । आश्रय की शरीर सम्बन्धी चेष्टाएँ कायिक अनुभाव कहलाती है ।
- वाचिक अनुभाव - आश्रय के वाग्व्यापार को वाचिक अनुभाव कहते हैं । अर्थात् वाणी की लोच और उसकी उग्रता ही वाचिक अनुभाव है ।
- आहार्य अनुभाव - कृत्रिम वेशभूषा धारण करना आहार्य अनुभाव कहलाता है । जैसे प्रिय से मिलन की उमंग में प्रेमिका द्वारा धारण की गई आकर्षक वेशभूषा आहार्य अनुभाव है ।
- सात्विक अनुभाव - आश्रय की वे चेष्टाएँ जो बिना किसी बाह्य प्रयत्न के उत्पन्न होती है सात्विक अनुभाव होती है । जैसे शरीर में कम्पन्न होना , आँख अश्रुपूरित होना आदि । सात्विक अनुभाव आठ प्रकार के होते हैं
स्तंभ - अंगों का जड़वत् हो जाना ।
स्वेद- पसीना आ जाना ।
रोमाञ्च- शरीर का पुलकित हो जाना ।
स्वरभंग- आवाज नहीं निकलना या कुछ का कुछ बोल जाना ।
वेपुथ- कांपना ।
वैवर्ण्य- मुँह पीला पड़ जाना , चेहरे का रंग उड़ जाना ।
अश्रु- आँखों में आँसू आ जाना ।
प्रलय- अचेत हो जाना , मूर्छित हो जाना ।
संचारी भाव / व्यभिचारी भाव
व्यभिचारी का शाब्दिक अर्थ है वे भाव जो स्थायी भाव की ओर चलते हैं अर्थात् जो भाव रस के उपकारक होकर पानी के बुलबुलों और तरंगों की भांति उठते और विलीन होते रहते हैं उन्हें व्यभिचारी भाव कहते हैं । इन भावों की प्रकृति संचरण की होती है इसलिए इन्हें संचारी भाव भी कहा जाता है । एक संचारी भाव का सम्बन्ध अनेक स्थायीभाव से भी हो सकता है जैसे गर्व संचारी भाव का सम्बन्ध वीर और रौद्र रस से है । ये स्थायी भाव सहायक मात्र होते हैं ।
संचारी भाव के भेद
भरतमुनि ने संचारी भावों की संख्या तैतीस मानी है । महाकवि देव ने चौतीसवां संचारी भाव ' छल ' माना है । परन्तु वह विद्वानों को मान्य नहीं हो सका ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार संचारी भावों का वर्गीकरण -
- सुखात्मक संचारी भाव ( सुख प्रदाता ) – गर्व , औत्सुक्य , आशा , हर्ष , मद , सन्तोष , चपलता , मृदुलता , धैर्य ।
- दुःखात्मक संचारी भाव ( दुःख जागृत करने वाले ) – लज्जा , असूया , त्रास , अमर्ष , अवहित्था , विषाद , शंका , चिंता , नैराश्य , उग्रता , मोह , आलस्य , उन्माद , असन्तोष , ग्लानि , अपस्मार , व्याधि , मरण ।
- उभयात्मक संचारी भाव ( सुख - दुःख दोनों जागृत वाले ) - आवेग , स्मृति , विस्मृति , दैन्य , जड़ता , स्वप्न , चिंता , चंचलता ।
- उदासीन संचारी ( प्रकृति उदासीन ) – वितर्क , मति , श्रम , निद्रा , विबोध ।
संचारी भाव विवेचन
गर्व- ऐश्वर्य , कुल , रूप , यौवन , विद्या , बल , धन आदि के कारण गर्व की उत्पत्ति होती है । जिसका परिणाम असूया , गुरुजनों का तिरस्कार , कटु वचनों का प्रयोग आदि होता है ।
निर्वेद- दरिद्रता , अपमान , व्याधि , इष्ट वस्तु के वियोग आदि के कारण अपने आपको धिक्कारने को निर्वेद कहते हैं । विषय विरक्ति ही निर्वेद है । उत्तम प्रकृति के पुरुषों में तत्व ज्ञान , चिन्तन से विषय विरक्ति होती है । साधारण पुरुषों में दारिद्रय , पीड़ा रोग , शोषण , अभीष्ट की अप्राप्ति के कारण विरक्ति उत्पन्न होती है ।
ग्लानि- चिन्ता , लज्जा जनक कार्यों आदि से उत्पन्न मन की शिथिलता या असमर्थता को ग्लानि कहते हैं । इसमें सारा उत्साह नष्ट हो जाता है ।
शंका- भावी अनष्टि की आशंका को शंका कहते हैं । इसमें मुख वैवर्ण्य , स्वरभंग , कम्प आदि अनुभाव होते हैं ।
असूया- दूसरे का ऐश्वर्य , सौभाग्य , विद्या आदि का उत्कर्ष देखने या सुनने से उत्पन्ना जलन ही असूया है ।
मद- भरत के अनुसार मद की उत्पत्ति मद्य आदि के सेवन से होती है । उन्होंने इसके तीन प्रकार तरुण , मध्य तथा अवकृष्ट बताए हैं ।
श्रम- मार्ग चलने , व्यायाम करने , जागरण आदि से उत्पन्ना खेद का नाम श्रम है । यह शारीरिक व मानसिक दो प्रकार का होता है ।
आलस्य- भरत के अनुसार इसकी उत्पत्ति खेद , व्याधि , गर्भ , स्वभाव , श्रम , तृप्ति आदि भावों से होती है । इनसे उत्पन्न उत्साहहीनता के कारण कार्य करने से विमुख होना ही आलस्य है ।
दैन्य- दरिद्रता और तिरस्कार आदि से होने वाली चित्त की उदासीनता को ही दैन्य कहते हैं ।
चिन्ता- इष्ट वस्तु की अप्राप्ति से उत्पन्न ध्यान ही चिंता है । सम्पत्तिनाश , द्रव्यहानि , दारिद्रय आदि विभावों से चिन्ता नामक व्यभिचारी भाव की उत्पत्ति होती है ।
मोह- कार्य - अकार्य में विवेक न रहना ही मोह है । आकस्मिक दुर्घटना , आपत्ति , रोग , भय , आवेग , पूर्वशत्रुता के स्मरण आदि विभावों से मोह उत्पन्न होता है ।
स्मृति- सादृश्य वस्तु के दर्शन तथा चिन्तन आदि से पहले के अनुभूत सुख - दुःख आदि विषयों का स्मरण ही स्मृति है ।
धृति- धृति उस बुद्धि को कहते हैं जो दुःख की अवस्था में भी दु : ख का अनुभव नहीं करती । अर्थात् लोभ , मोह , भय , चिन्ता आदि से उत्पन्न होने वाले उपद्रवों को दूर करने वाली चित्तवृत्ति धृति है ।
ब्रीड़ा- गुरुजनों की आज्ञा का अतिक्रमण , प्रतिज्ञा के निर्वाह न करने एवं पश्चाताप आदि विभावों से उत्पन्न होने वाला भाव व्रीड़ा है जिसे भरत ने अकार्य के करने से उत्पन्न होने वाला कहा है ।
चपलता - चपलता राग द्वेष , अमर्ष , मात्सर्य , ईर्ष्या आदि विभावों से उत्पन्न होती है । इसके कारण व्यक्ति अनवस्थित हो जाता है और भर्त्सना , कठोर वचन , स्वच्छन्द आचरण आदि में प्रवृत्त हो जाता है ।
हर्ष- इष्ट पदार्थ की प्राप्ति , अभीष्ट जन के समागम आदि से उत्पन्न आनन्द ही हर्ष है ।
आवेग- भयंकर उत्पात , किसी सुखकर या दुःखद घटना के कारण प्रिय और अप्रिय बात को सुनने से हृदय जब शांत स्थिति को छोड़कर उत्तेजित हो उठता है , तब उसे आवेग कहते हैं ।
जड़ता- ऐसी स्थिति जिसमें कुछ क्षणों के लिए मानो कार्य करने की योग्यता खो सी जाती है । इस भाव की अभिव्यक्ति मौन रहने , शून्य में एकटक देखने आदि अनुभावों से की जाती है।
विषाद- प्रयास करने पर भी कार्य का निष्पन्न न हो पाना , दैवी विपत्ति आदि से प्रारम्भ किये गये कार्य में विधात उत्पन्न हो जाना । ऐसी स्थिति उत्पन्न होने पर व्यक्ति का धैर्य टूट जाता है । यही विषाद है ।
औत्सुक्य- किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति में विलम्ब सहन न करना , इस कार्य की तात्कालिक सिद्धि की इच्छा होना औत्सुक्य है ।
निदा- मद्यपान , परिश्रम आदि के कारण बाह्य इन्द्रियाँ जब विषयों से निवृत्त हो जाती हैं तब जो परिश्रम करने की मनः स्थिति होती है उसे निद्रा कहते हैं ।
अपस्मार- इस व्यभिचारी भाव की उत्पत्ति दैव , पक्ष , नाग , ब्रह्मराक्षस , भूत - प्रेत , पिशाचादि के पकड़ लेने या उनके स्मरण करने , शून्य स्थान पर अथवा अपवित्र रहने से उत्पन्न होता है ।
सुप्ति / स्वप्न- निद्रा निमग्न व्यक्ति के विषयानुभव का नाम स्वप्न है ।
विबोध - निद्रा के त्याग अथवा अज्ञान के विनाश से प्राप्त चेतना को विबोध कहते हैं ।
अमर्ष- अमर्ष क्रोध का ही नाम है । इसका उदय उन व्यक्तियों में होता है जो विद्या , ऐश्वर्य , शौर्य आदि में अपने से उत्कृष्ट व्यक्ति के द्वारा अपने आपको तिरस्कृत अनुभव करते हैं ।
अवहित्था- भय , लज्जा आदि के कारण हर्षादि भावों को छिपाना ।
उग्रता- अपमान , दूषित व्यवहार , वीरता आदि के कारण उत्पन्न व्यग्रता ही उग्रता है । .
मति- शास्त्रों के निरन्तर चिन्तन तथा शिष्यों के साथ उन शास्त्रीय समस्याओं के ऊहापोह से जो यथार्थ ज्ञान होता है , वही मति है ।
व्याधि- रोगादि को व्याधि कहते हैं । आयुर्वेद के अनुसार वह वात , पित्त और कफ के सन्निपात से होता है । ज्वरादि उसी के विशेष प्रकार हैं ।
उन्माद- उन्माद नामक भाव चित्त विश्रान्ति रूप है जो भरत के अनुसार इष्टजन के वियोग , वैभवनाश , चोट लगने . सन्निपात आदि शारीरिक रोगों से उत्पन्न होता है । ऐसी स्थिति होने पर सोच - विचार का काम करने की समझ नहीं रहती , अत : व्यक्ति अनुचित कार्यों तथा अनिमित्त ह्रास , अकारण रुदन , चिल्लाने आदि में प्रवृत्त हो जाता है ।
मरण- मरण चित्तवृत्ति की ऐसी दशा है जिसमें मृत्यु के समान कष्ट की अनुभूति हो अथवा वह दशा भावान्तर से इस प्रकार अभिभूत हो गयी हो कि मृत्यु कष्ट नगण्य जान पड़े ।
त्रास- मन के आकस्मिक क्षोभ की अवस्था वास है । प्रबल विरोध , उल्कापात , भयानक वस्तु का दर्शन आदि प्राकृतिक उत्पातों से और अपने से प्रबल का अपराध करने पर उत्पन्न चित्त की व्याग्रता त्रास है ।
वितर्क - सन्देह के कारण मन में उत्पन्ना ऊहापोह या तर्क की वितर्क है ।
स्थायीभाव
स्थायी शब्द का अर्थ है ' स्थिर रहने वाला । ' जिस भाव को विरोधी अथवा अविरोधी भाव अपने में न तो छिपा सकते हैं और न दबा सकते हैं तथा जो रस में बराबर स्थित रहता है , उस आस्वाद के मूल भाव को स्थायी भाव कहते हैं । अर्थात् प्रत्येक स्थायी भाव सहृदय सामाजिक के हृदय में वासना रूप में जन्मजात स्थित वे अनुभूतियाँ है जो स्थायी रूप से विद्यमान रहती हैं । ये अनुभूतियाँ सभी सहृदय जनों में पायी जाती हैं जो यथा स्थिति एवं यथास्थान जाग्रत एवं सुषुप्त होती रहती हैं । स्थायी भाव ही रस के रूप में परिणत होते हैं । प्रत्येक स्थायी भाव का सम्बन्ध एक रस से होता है ।
भरतमुनि ने आठ प्रकार के स्थायी भावों के अनुसार रसों की संख्या भी आठ मानी है ।
मम्मट ने ' काव्यप्रकाश ' में आठ स्थायी भाव माने हैं-
रति , हास , शोक , क्रोध , उत्साह , भय , जुगुप्सा और विस्मय ।
' रतिहासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा ।
जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ।। '
उत्तरवर्ती काल में जैसे - जैसे रसों की संख्या में वृद्धि हुई , वैसे ही स्थायी भावों की संख्या बढ़ती गई । मम्मट ने निर्वेद को स्थायी भाव मानकर शान्त रस को नवम रस कहा था ।
' निर्वेदः स्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रस : '
विश्वनाथ ने शान्त रस का स्थायी भाव शम बताया ।
विश्वनाथ ने वत्सलता को स्थायी भाव मानकर वत्सल नामक दशम रंस का प्रतिपादन किया ।
' स्फुटं चमत्कारितया वत्सलं च रसं विदुः ।
स्थायी पुत्रलतास्नेहः पुत्राद्यालम्बनं मतम् ।। '
रूपगोस्वामी ने ' भक्तिरसामृत सिन्धु ' और ' उज्ज्वलनीलमणि ' में भगवद्विषयक प्रेम को स्थायी भाव मानकर भक्ति को रस के रूप में प्रतिपादित किया । इस प्रकार वर्तमान में रसों की संख्या ग्यारह हैं , लेकिन स्थायी भावों की संख्या 9 ही मानी जायेंगी । भक्ति रस एवं वात्सल्य रस के स्थायी भाव को ' रति ' में ही शामिल कर लिया है ।
स्थायीभाव और उनसे सम्बन्धित रस
स्थायिभाव रस
रति श्रृंगार
हास हास्य
शोक करुण
वीर उत्साह
क्रोध रौद्र
भय भयानक
जुगुप्सा वीभत्स
विस्मय अद्भुत
शम शांत
वत्सल ( संतान विषयक रति ) वात्सल्य
भक्ति ईश्वर अनुराग भक्ति
रस विवेचन
श्रृंगार रस
विभावानुभाव एवं संचारिभावों के संयोग से परिपक्व अवस्था में पहुँचा हुआ रति स्थायीभाव शृंगार रस कहलाता है । श्रृंगार रस की उत्पत्ति काम के उद्वेग से होती है । इसमें नायक नायिका आदि आलम्बन विभाव , चन्द्रमा , उपवन , माला , बसन्त ऋतु आदि उद्दीपन विभाव , भूविक्षेप , कटाक्ष आदि अनुभव , स्वेद , रोमांच आदि सात्विक अनुभाव एवं लज्जा , औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव होते हैं । रति स्थायीभाव है । रति के विकास की 6 अवस्थायें होती हैं- प्रेम , मान , प्रणय , स्नेह , राग और अनुराग ।
शृंगार रस के दो मुख्य भेद हैं
नायक - नायिका के परस्पर दर्शन , मिलन , श्रवण , स्पर्श , आलिंगन , वार्तालाप आदि के द्वारा पूर्णता को प्राप्त होने वाला रति नामक स्थायी भाव संयोग श्रृंगार कहलाता है । इसमें नायक - नायिका के परस्पर मिलन , हास - विलास , आलिंगन , स्पर्श , चुम्बन आदि का वर्णन होता है ।
उदाहरण
देखन मिस मृग विहँग तरु
फिरति बहोरि – बहोरि
निरखि निरखि रघुवीर छवि
बाढ़ी प्रीति न थोरी
वियोग भंगार ( विप्रलम्भ भंगार )
नायक नायिका के आपसी दर्शन , श्रवण , आलिंगन अथवा बातचीत आदि के सम्बन्ध में जब कोई व्यवधान उत्पन्न हो जाता है , तब रति स्थायी भाव वियोग शृंगार कहलाता है । विप्रलम्भ शृंगार पाँच प्रकार से होते हैं- अभिलाषा , विरह , ईर्ष्या , प्रवास और मान ।
इसके चार भेद हैं
1. पूर्वराग - विवाह पूर्व नायक नायिका का चित्र देखना , स्वप्न दर्शन , कल्पना रूप गुण बखान ।
2. मान- नायक - नायिका के बीच मन मुटाव , परस्पर कोप ।
3. प्रवास- प्रिय के परदेस गमन पर याद सताना । अन्य के संयोग के प्रति ईर्ष्या ।
4. करुण- आचार्यों के अनुसार करुण स्थिति वहीं मानी जायेगी जहाँ नायक या नायिका में से किसी एक की मृत्यु हो जाये , लेकिन इसी जीवन में पुनः मिलने की आशा बनी रहे ।
विप्रलम्भ श्रृंगार की दस काम अवस्थाएँ होती हैं -
1. अभिलाषा- वियोगावस्था में नायक - नायिका के आपस में मिलने की इच्छा ।
2.चिंता - प्रिय की प्राप्ति अथवा चित्त शान्ति साधन विचार को चिन्ता कहते हैं ।
3. स्मरण- प्रिय के साथ बितायी बातों , चेष्टाओं , कार्यों , समागम को याद करना ।
4. गुण कथन- प्रिय के गुणों का वर्णन करना ।
5. उद्वेग - वियोग में चित्त का अस्थिर रहना ।
6. प्रलाप- प्रिय वियोग में निरर्थक ।
7. उन्माद- विवेक रहित होना ।
8. जड़ता- शरीर का स्तब्ध एवं चेष्टा शून्य होना ।
9. व्याधि- शरीर का रोगग्रस्त एवं कृश हो जाना ।
10. मरण- प्राणों का परित्याग मरण है ।
हास्य रस
विभावानुभाव एवं संचारी भावों के संयोग से परिपक्व अवस्था में पहुँचा हुआ हास स्थायीभाव हास्य रस कहलाता है । हास्य रस की उत्पत्ति के लिए विकृत आकार , वाणी , वेश आदि आलम्बन विभाव हैं तथा निद्रा , आलस्य , अवहित्था आदि व्यभिचारी भाव हैं । हास्य के माध्यम से समाज या राजनीति के किसी विकृत अंग का उ हसित द्घाटन भी होता है ।
इसके निम्न 6 भेद हैं
1. स्मित- आँखे खिलना , थोड़े होठ हिलना ।
2. हसित- दाँत दिखाई देना ।
3. विहसित- हँसी के साथ मधुर शब्द निकलना ।
4. अपहसित - ऊँची आवाज में हँसी शरीर की हलचल ।
5.अतिहसित- वाणी का तेज स्वर , हाथ पैरों का पटकना ।
6.अवहसित- मुख से ध्वनि के साथ शरीर हिलना ।
उदाहरण
या अनुरागी पेट की गति समुँझे नहिं कोई ।
जै तो भोजन डारिये , ते तो ऊँचौ होइ ।
ते तो ऊँचौ होइ फूलकर होवे तम्बू ।
हाथ फेरकर मुख से बोलो हरहर शम्भू ।।
कहँ काका ऐसी डकार आवेगी फौरन ।
लारी ओवर लोड , दे रही जैसे हौरन ।।
रौद्र रस
विभाव , अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से वासना रूप से सामाजिकों के हृदय में स्थित क्रोध स्थायी भाव आस्वादित होता हुआ रौद्र रस में परिणत हो जाता है । शत्रु आदि रौद्र रस के आलम्बन हैं , शत्रुओं द्वारा किया गया अपकार उद्दीपन है । होंठ काटना , कम्प , भृकुटि चढ़ाना , शस्त्र चमकाना , डींगे मारना , भूमि पर प्रहार करना , प्रतिज्ञा करना आदि अनुभाव हैं । अमर्ष , मद , स्मृति , चपलता , असूया , उग्रता आदि व्यभिचारी भाव हैं ।
उदाहरण
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्रोध से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे ।
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े
करते हुए यह घोषणा वे हो गये उठकर खड़े ।।
करुण रस
विभाव , अनुभाव और संचारी भावों के संयोग से वासना रूप से सामाजिकों के हृदय में स्थित शोक रूप स्थायी भाव करुण रस में परिणत होता है । इसमें इष्ट का विनाश तथा अनिष्ट की प्राप्ति आलम्बन विभाव हैं । आवेग , जड़ता , व्याधि , अपस्मार , निर्वेद , ग्लानि उद्दीपन विभाव है । नि : श्वास , उच्छ्वास , रुदन , स्तम्भ , प्रलाप , विवर्णता आदि अनुभाव है । स्वप्न , अपस्मार , दैन्य आदि व्यभिचारी भाव हैं ।
उदाहरण
अभी अभी मुकुट बँधा था माथ
हुए कल ही हल्दी के हाथ
खुले भी न थे लाज के बोल
खिले भी चुम्बन शून्य कपोल
हाय ! रुक गया यहीं संसार , बना सिन्दूर अंगार ।
वीभत्स रस
घृणित वस्तुओं को देखकर अथवा उनके बारे में सुनकर जुगुप्सा स्थायीभाव सम्बद्धित विभावानुभाव एवं संचारी भावों के संयोग से परिपक्व अवस्था में पहुंचकर वीभत्स रस में परिणत हो जाता है । सड़ा माँस , वमन आदि वीभत्स रस के आलम्बन विभाव हैं । इनमें कीड़े पड़ना , दुर्गन्ध आना आदि उद्दीपन विभाव हैं । घृणा करना संचारी भाव हैं ।
भरतमुनि ने वीभत्स के दो भेद माने हैं -
1. क्षोभज- युद्ध की भीषणता से उत्पन्न जुगुप्सा ।
2. उद्वेगी- अशुद्धि ( कृमि , विष्ठा आदि से उत्पन्न जुगुप्सा । )
उदाहरण
घर में लाशें बाहर लाशें
सड़ती लाशें नुचती लाशें
दुर्गन्ध घोटती हैं साँसें
इन्सान हुआ लाशें लाशें ।
भयानक रस
विभावानुभाव और संचारी भावों के संयोग से जब सह्रदय सामाजिक के हृदय में वासना रूप से विद्यमान भय स्थायी भाव उबुध होकर रस रूप में परिणत होता है तब भयानक रस होता है । जिससे भय उत्पन्न हो , वह भयानक रस का आलम्बन विभाव होता है । विकृत स्वर , चेष्टा आदि उद्दीपन विभाव होते हैं । अंगों का कांपना , स्वेद , रोमांच , दिशाओं में देखना आदि अनुभाव हैं । चिन्ता , दैन्य , सम्भ्रम , सम्मोह , त्रास आदि व्यभिचारी भाव हैं ।
उदाहरण
एक ओर अजगरहिं लखि , एक ओर मृगराय ।
विकल बटोही बीच ही , पर्यो मूरछा खाय ।।
अद्भुत रस
विभाव , अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से पुष्ट विस्मय स्थायी भाव को अद्भुत रस कहते हैं । अलौकिक पदार्थ , देवता आदि अद्भुत रस के आलम्बन विभाव हैं । उनका दर्शन , गुण कीर्तन आदि उद्दीपन विभाव हैं । साधुवाद कहना , अश्रु , वेपथु , स्वेद , नेत्रविकास , वाणी का गद्गद् होना आदि अनुभाव हैं । वितर्क , आवेग , हर्ष , धृति आदि व्यभिचारी भाव हैं ।
उदाहरण
अखिल भुवन चर अचर सब , हरि मुख में लखि मातु ।
चकित भई , गदगद वचन , विकसित दृग पुलकातु ।।
वीर रस
सहृदय सामाजिकों के हृदय में वासना रूप में विद्यमान उत्साह स्थायी भाव विभावानुभाव और संचारी भावों के संयोग से उबुध होकर वीर रस में परिणत होता है । विजेतव्य शत्रु वीर रस का आलम्बन है । उनकी चेष्टायें उद्दीपन विभाव हैं । रोमांच , युद्ध सामग्री , सहायक आदि की खोज करना अनुभाव हैं । धृति , मति , गर्व , स्मृति , तर्क आदि व्यभिचारी भाव हैं ।
उदाहरण
मैं सत्य कहता हूँ सखे ! सुकुमार मत जानो मुझे ।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे ।।
है और की तो बात ही क्या , गर्व में करता नहीं ।
मामा तथा निज तात से भी समर में डरता नहीं ।
वीर रस के चार भेद हैं
1. दयावीर- इसमें स्थायीभाव उत्साह ही होता है आलम्बन दीन दु : खी पीड़ित व्यक्ति होता है । उद्दीपन दया के पात्र की करुण अवस्था , उसे सान्त्वना के वचन कहना अनुभाव , धृति , मति आदि संचारी भाव हैं ।
2. दानवीर- इसमें स्थायीभाव उत्साह ही होता है । आलम्बन - दान योग्य पात्र , याचक , पर्व , तीर्थ स्नान आदि उद्दीपन , दान - पात्र द्वारा की गई प्रशंसा तथा अन्य दाताओं के दान आदि माने जा सकते हैं । अनुभाव याचक का आदर सत्कार , संतोष और संचारी भाव हर्ष , गर्व और मति आदि हैं ।
3.धर्मवीर- इसमें भी स्थायीभाव उत्साह है । आलम्बन महाभारत , रामायण , मनुस्मृति आदि धार्मिक ग्रंथ हैं , उद्दीपन धर्मग्रंथों का धार्मिक इतिहास और फलस्थिति है , अनुभाव धर्माचरण , धर्म हेतु कष्ट - सहन आदि हैं । धृति , मति आदि संचारी भाव हैं ।
4. युद्धवीर- इसका भी स्थायी भाव उत्साह ही है । आलम्बन शत्रु है और उद्दीपन शत्रु का पराक्रम और नेशी आदि हैं । अनुभावों में गर्वसूचक वाक्य , रोमांच , उत्तेजित होना , बाँहों का फड़क और उन्नना आदि है । धृति , पति , गर्व , तर्क , आवेग और औत्सुक्य आदि संचारी भाव ।
शान्त रस
विभावानुभाव एवं संचारी भावों से पुष्ट होकर सहृदय सामाजिकों के हृदय में स्थित निर्वेद स्थायी भाव रूप में परिणत होकर शान्त रस कहलाता है ।
उदाहरण
सोच रहे थे जीवन सुख है ? ना यह विकट पहेली है ,
भाग अरे मनु इन्द्रजाल से कितनी व्यथा न झेली है
श्रद्धा के रहते यह संभव नहीं कि कुछ कर पाऊँगा
तो फिर शान्ति मिलेगी मुझको जहाँ खोजता जाऊँगा ।
वात्सल्य रस
माता - पिता का संतान के प्रति जो स्नेह होता है उससे पुष्ट वात्सल्य स्थायी भाव ही वत्सल रस कहलाता है । आचार्य विश्वनाथ ने वत्सल रस का स्वतंत्र रूप से प्रतिपादन किया । मम्मट इसे एक भाव मात्र मानते हैं । माता - पिता इसके आश्रय , पुत्र या संतान इसके आदि संचारी भाव हैं ।
उदाहरण
' यशोदा हरि पालने झुलावै
हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावे
मेरे लाल को आऊ निदरिया काहे न आनि सुलावै
तू काह न बेगि सौ आवै , तोको कान्ह बुलावै
कबहुँ पलक हरि मंदि लेत हैं कबहु अधर फरकावै । "
भक्ति रस
रूप गोस्वामी ने अपने ग्रंथ उज्ज्वल नीलमणि में भक्ति रस को स्वतंत्र रूप से प्रतिपादित किया है । भक्ति रस में देवविषयक रति विभाव - अनुभाव एवं संचारी भावों के संयोग से पुष्ट होकर रस रूप में परिणत होती है । भक्ति रस के आलम्बन विभाव इष्ट देव या भगवान् हैं , तुलसी , चन्दन ज्योति आदि उद्दीपन विभाव हैं , नृत्यगीत , रोमाञ्च , समाधि में मग्न , इष्टदेव की मूर्ति के सामने नृत्य आदि अनुभाव हैं । दैन्य , निर्वेद , हर्ष , उत्सुकता , अश्रुपात आदि संचारीभाव हैं ।
उदाहरण
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।
साधुन के संग बैठि - बैठि लोक लाज खोई ।
अब तो बात फैल गई जानत सब कोई ।।
अंसुवन जल सींचि - सींचि प्रेम बेलि बोई ।
मीरां को लगन लागी होनी होइ सो होई ।।
1 comments:
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