ध्वनि सिद्धांत Dhvani Siddhaant
प्रतीयमान अर्थ
आनन्दवर्धन ने प्रतीयमान अर्थ को ही ध्वनि माना है ।
प्रतीयमानं पुनरन्यदेव वस्त्वस्ति वाणीषु महाकवीनाम् ।
यततत्प्रसिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु ॥
अर्थात् “ महाकवियों की वाणी में वाच्यार्थ से भिन्न प्रतीयमान अर्थ कुछ और ही वस्तु है जो सुन्दरियों के लावण्य के समान अलग ही प्रकाशित होता है ।
प्रमुख ध्वनिवादी आचार्य
- आचार्य आनन्दवर्धन
- अभिनवगुप्त
- आचार्य मम्मट
- आचार्य विश्वनाथ
- पण्डितराज जगन्नाथ
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के तीन प्रकार हैं -
ध्वनि काव्य
गुणीभूत व्यंग्य
चित्र काव्य
ध्वनि काव्य
वाच्यार्थ की अपेक्षा व्यंग्यार्थ प्रमुख होता । इसे उत्तम काव्य माना गया है ।
गुणीभूत व्यंग्य
वाच्यार्थ या तो व्यंग्यार्थ के समान महत्व का होता है या फिर उससे अधिक प्रभावी होता है । इस प्रकार के काव्य को मध्यम कोटि का काव्य माना गया है।
चित्र काव्य
व्यंग्यार्थ का नितान्त अभाव होता है , उसमें केवल शब्दगत और अर्थगत चारुता ही रहती है । इस प्रकार के काव्य को अधम काव्य माना जाता है ।
ध्वनि का उदाहरण
माली आवत देखि कैं कलियन करी पुकार ।
फूली - फूली चुनि लईं काल्ह हमारी बार ॥
सामान्य अर्थ
एक बगीचे में माली को अपनी ओर आता देखकर कलियां कहने लगी कि , आज जो कलियां फूल बन चुकी थी उन्हें तो इस माली ने आज तोड़ लिया कल हम भी खिल कर फूल बनेंगी और ये हमे भी तोड़ लेगा ।
विशिष्ट अर्थ
किन्तु इसका व्यंग्यार्थ जीवन की क्षणभंगुरता को व्यक्त करता है । काल इस संसार से एक - एक करके सबको उठा रहा है , आज एक की बारी है तो कल हमारी बारी होगी ।
यही कवि का अभिप्रेत अर्थ है । यही प्रतीयमान अर्थ है और यही अर्थ प्रमुख होने से यहां ' ध्वनि काव्य ' माना जाएगा ।
ध्वनि के भेद
आचार्यों ने ध्वनि के 51 भेद किए हैं । किन्तु उनका मूल आधार शब्द शक्तियों को ही माना है । इस आधार पर ध्वनि के तीन प्रमुख भेद हैं
अभिधामूला ध्वनि
लक्षणामूला ध्वनि
व्यंजनामूला ध्वनि
अभिधामूला ध्वनि
अभिधामूला ध्वनि में पहले अभिधेयार्थ निकलता है और फिर व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है ।
लक्षणामूला ध्वनि
लक्षणामूला ध्वनि का मूल आधार लक्ष्यार्थ है । लक्ष्यार्थ के उपरान्त इसमें व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है ।
व्यंजनामूला ध्वनि
व्यंजनामूला ध्वनि में ध्वनि का मूल आधार व्यंग्यार्थ ही होता है ।
व्यंजनामूला ध्वनि के भेद
वस्तु ध्वनि
अलंकार ध्वनि
रस ध्वनि ।
ध्वनि का महत्व
ध्वनिवादी आचार्य ध्वनि का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हैं तथा रस , अलंकार , रीति , गुण , औचित्य आदि सभी तत्वों को ध्वनि का सहायक उपादान मानते हैं । ध्वनि सिद्धान्त ने काव्य में व्यंग्यार्थ के महत्व को प्रतिपादित किया तथा ' रस - ध्वनि ' को काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित करने में भी इस सम्प्रदाय का योगदान रहा । इसके अनुसार रस व्यंजना का व्यापार है , वह व्यंग्य ही होता है । यही ' रस ध्वनि ' काव्य की आत्मा है । ध्वनिवादियों का यह भी मत है कि केवल शब्दार्थ ही काव्य नहीं है , अपितु उससे ध्वनित एवं व्यंजित होने वाला अर्थ काव्य है । ध्वनि की सत्ता व्यंग्यार्थ पर आधारित है , दूसरे शब्दों में ध्वनि व्यंजना व्यापार है इसीलिए आचार्य आनन्दवर्धन ने ' रस ध्वनि ' को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया ।
2 comments
Click here for commentsनितान्त उपयोगी।
Replyआपकी टिप्पणी के लिए धन्यवाद!
Replyउम्मीद भविष्य में भी इसी तरह प्रोत्साहित करते रहेंगे।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
आपकी टिप्पणी हमें ओर बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है । ConversionConversion EmoticonEmoticon