प्रतापनारायण मिश्र Pratapnarayan Mishra

 प्रतापनारायण मिश्र 

Pratapnarayan Mishra

(24 सितंबर, 1856 - 6 जुलाई, 1894)

प्रतापनारायण मिश्र

प्रतापनारायण मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव बेथर में  24 सितंबर, 1856  में हुआ । इनके पिता पं.संकठा प्रसाद मिश्र ज्योतिष के विद्वान थे । मिश्र जी बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे । अक्षरारंभ के पश्चात मिश्र जी अपने पिता से ही ज्योतिष पढ़ने लगे। किंतु रुचि न होने से पिता ने उन्हें अंग्रेजी स्कूल में भरती करा दिया । लेकिन पढ़ाई-लिखाई में मन न होने से विरत ही रहे और पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ दी । इस प्रकार मिश्रजी की शिक्षा अधूरी ही रह गई। स्वाध्याय से इन्होंने उर्दू फारसी तथा बंगला भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था । 1882 के आसपास इनकी पहली काव्य रचना "प्रेमपुष्पावली" प्रकाशित हुई और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया । अपने युग के अन्य साहित्यकारों की तरह इन्होंने भी 15 मार्च 1883 को ब्राह्मण नामक मासिक पत्र चलाया जो 50 वर्ष तक चला । इसे प्रकाशित करने में इन्होंने अपना सब कुछ लगा दिया । 1889 में मिश्र जी 25 रू. मासिक पर "हिंदोस्थान" के सहायक संपादक होकर कालाकाँकर आए । 1891 में उन्होंने कानपुर में "रसिक समाज" की स्थापना की। कांग्रेस के कार्यक्रमों के अतिरिक्त भारतधर्ममंडल, धर्मसभा, गोरक्षिणी सभा और अन्य सभा-समितियों के सक्रिय कार्यकर्ता और सहायक बने रहे। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई । 1892 के अंत में यह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की आयु में 6 जुलाई 1894 को भारतेंदु मंडल के इस महान व्यक्तित्व का अवसान हो गया ।

मिश्र जी ने नाटक उपन्यास , निबन्ध आदि लिखे । इनकी कविता कम  है परन्तु है जन कविता , जन की भाषा में । भारतेंदु निर्मित एवं प्रेरित हिंदी लेखकों की सेना के महारथी, उनके आदर्शो के अनुगामी और आधुनिक हिंदी भाषा तथा साहित्य के निर्माणक्रम में उनके सहयोगी थे । भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने आप को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे । भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रति-भारतेंदु" और "द्वितीय हरिश्चंद्र" कहे जाने लगे थे।

मिश्रजी भारतेंदु के विचारों और आदर्शों के महान प्रचारक और व्याख्याता थे। वह प्रेम को परमधर्म मानते थे। हिंदी, हिंदू, हिदुस्तान इनका प्रसिद्ध नारा था । समाजसुधार को दृष्टि में रखकर उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे हैं। बालकृष्ण भट्ट की तरह वह आधुनिक हिंदी निबंधों को परंपरा को पुष्ट कर हिंदी साहित्य के सभी अंगों की पूर्णता के लिये रचनारत रहे । एक सफल व्यंग्यकार और हास्यपूर्ण गद्य-पद्य-रचनाकार के रूप में हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान है। 


प्रमुख कृतियाँ

नाटक 

गो संकट

भारत दुर्दशा

कलिकौतुक

कलिप्रभाव

हठी हम्मीर

जुआरी-खुआरी (प्रहसन) 

संगीत शाकुंतल (कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुंतम्' का अनुवाद)


निबंध संग्रह 

निबंध नवनीत

प्रताप पीयूष

प्रताप समीक्षा

अनूदित गद्य कृतियाँ

राजसिंह

अमरसिंह

इन्दिरा

राधारानी

युगलांगुरीय

चरिताष्टक

पंचामृत

नीतिरत्नमाला

बात

(सभी उपन्यास प्रसिद्ध कथाकार बंकिम चंद्र के उपन्यासों के अनुवाद हैं।)


कविता 

प्रेम पुष्पावली

मन की लहर ( 31 लावनियों का संग्रह )

ब्रैडला स्वागत

दंगल खंड  ( आल्हा ) 

तृप्यन्ताम्

लोकोक्तिशतक ( 1000 कहावतों पर कविताएँ ) 

दीवो बरहमन (उर्दू)

मिश्र जी के काव्य की प्रवृतियां

वर्ण्य-विषय

मिश्रजी के निबंधों में विषय की पर्याप्त विविधता है। देव-प्रेम, समाज-सुधार एवं साधारण मनोरंजन आदि मिश्रजी के निबंधों के मुख्य विषय थे। उन्होंने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र में हर प्रकार के विषय पर निबंध लिखे। 

जैसे - घूरे के लत्ता , बीने-कनातन के डोल बांधे, समझदार की मौत है,आप, बात, मनोयोग, बृद्ध, भौं, मुच्छ, ह, ट, द आदि।

समाजिक व्यवस्था

मिश्र जी सही अर्थों में जनता के कवि थे ।  क्योंकि इन्होंने सामयिक विषयों पर जनता की भाषा में कविताएँ लिखी | कजली , लावनी , होली और दादरा के साथ साथ आल्हा जैसे प्रबन्ध गीत की भी रचना की । विभिन्न प्रकार की सामाजिक कुरीतियों ,  बाह्याडम्बरों , आर्थिक विषमताओं अंग्रेजों के शोषण पर इन्होंने जमकर लिखा । मन की लहर में भारत दुर्दशा का चित्रण करते हुए लिखा 

" विधवा विलपै नित धेनु कटे कोउ लागत हाय गोहार नहीं

कोउ मूरख हिंदुन को ठगि के निज निंदित शिष्य बनावत है , 

बहकाय कुटुम्ब छुड़ायं छली फिर नेक नहीं अपनावत है "

वीररस

वीररस की रचनाएँ कम लिखी हैं परन्तु जो लिखीं वे सुन्दर बन पड़ी हैं । हठी हमीर में लिखते हैं – 

" कहूँ घर सो गरजैं गजराज । कहूँ महि कहि कूदहिं बाज ।। 

कहूँ झमके रथ भातिन भांति । महु फवि फैलि पदातिनु पांति । "

भक्ति भवनाफ़

भक्तिपरक रचनाओं में उपदेशात्मकता अधिक है ।

" जागो भाई जागो रात अब थोरी । 

काल चोर नहि करन चहत है जीवन धन की चोरी । " 

श्रृंगार

श्रृंगारपरक रचनाएँ भी सुंदर बन पड़ी है । शकुन्तला के मुख पर मंडराता हुआ भंवरा कहता है 

" धत्रि भंवर बडिभाग तिहारो रे । 

कौन तप करि कीन्हीं देही कारी - कारी रे । ' 

रीतिकालीन परम्परा का निर्वाह करते हुए प्रकृति चित्रण में ऋतु वर्णन भी इन्होंने किया बसंत में विरहिणी का दुःख प्रकट करते हुए लिखते हैं 

" सबहि सताय हाय लेकै रितुराज पायी ,

जे है जमराजपुर आठ - अठवारे में । " 

राजभक्ति

मिश्र जी ने शासकों के लोकहितकारी कार्मों की प्रशंसा करके अपनी राजभक्ति का परिचय ही दिया है , यथा युवराज विक्टर का स्वागत करते हुए निवेदन किया 

" जुग - जुग जीवहु जय - जय युत युवराज दुलारे , 

जुग जुग जीवहु श्री विजयनि के प्राण प्यारे । " 

देशभक्ति

अंग्रेजों पर अनुनय विनय का प्रभाव न होते देखकर उन्होंने देशवासियों को जागकर अपना भाग्य आप संवारने के लिए प्रेरित करते हुए स्वावलम्बन की प्रेरणा इन शब्दों में व्यक्त की 

" अपनो काम अपने ही हाथन भल होई । 

परदेशिन परधर्मिन ते आशा नहीं कोई ।। " 

लोकोक्तियों पर आधारित कविताओं में अंग्रेजी राज की बुराइयों का चित्रण किआ है ।

" सब तजि गहो स्वतंत्रता , 

नहीं चुप लातें खाव । 

राजा करै सो न्याव है , 

पासा परै सो दांव ।। " 

मिश्र जी ने एक दर्जन होरियाँ ( होली गीत ) लिखी जिनमें भारत की दुर्दशा का चित्रण है । 

भारतीयों को एक होकर काम करने और कुरीतियों से समाज को मुक्त करने का आग्रह भी उन्होंने बार - बार किया है । दयानंद सरस्वती के निधन पर उन्होंने लिखा – 

करुणानिधि कहवाय हाय हारे आज कहा यह कीन्हों । 

देश अधार जतन तत्पर पर पुरुष रतन हरि लीन्हों । । " 


शैली

मिश्रजी की शैली वर्णनात्मक, विचारात्मक तथा हास्य-व्यंग्यात्मक है।


विचारात्मक शैली

साहित्यिक और विचारात्मक निबंधों में मिश्रजी ने इस शैली को अपनाया है। कहीं-कहीं इस शैली में हास्य और व्यंग्य का पुट भी मिलता है। इस शैली की भाषा संयत और गंभीर है। 

'मनोयोग' शीर्षक निबंध का एक अंश देखिए -

इसी से लोगों ने कहा है कि मन शरीर रूपी नगर का राजा है। और स्वभाव उसका चंचल है। यदि स्वच्छ रहे तो बहुधा कुत्सित ही मार्ग में धावमान रहता है।


व्यंग्यात्मक शैली 

प्रताप नारायण मिश्र जी अत्यधिक विनोदी स्वभाव के थे और हास्य - व्यंग्य के माध्यम से अपनी बात कहने में अत्यधिक कुशल थे । इनकी हरगंगा तृप्यन्तान , बुढ़ापा आदि कविताएँ हास्य व्यंग्य का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है । इस शैली में मिश्रजी ने अपने हास्य-व्यंग्यपूर्ण निबंध लिखे हैं। यह शैली मिश्रजी की प्रतिनिधि शैली है, जो सर्वथा उनके अनुकूल है। वे हास्य-विनोद प्रिय व्यक्ति थे। अतः प्रत्येक विषय का प्रतिपादन हास्य और विनोदपूर्ण ढंग से करते थे। हास्य और विनोद के साथ-साथ इस शैली में व्यंग्य के दर्शन होते हैं। विषय के अनुसार व्यंग्य कहीं-कहीं बड़ा तीखा और मार्मिक हो गया है। इस शैली में भाषा सरल, सरस और प्रवाहमयी है। उसमें उर्दू, फारसी, अंग्रेज़ी और ग्रामीण शब्दों का प्रयोग हुआ है। लोकोक्तियों और मुहावरों के प्रयोग के कारण यह शैली अधिक प्रभावपूर्ण हो गई है। 

जैसे

दो-एक बार धोखा खाके धोखेबाज़ों की हिकमत सीख लो और कुछ अपनी ओर से झपकी-फुंदनी जोड़ कर उसी की जूती उसी का सर कर दिखाओ तो बड़े भारी अनुभवशाली वरंच 'गुरु गुड़ ही रहा और चेला शक्कर हो गया' का जीवित उदाहरण कहलाओगे।

महंगाई पर व्यंग्य करते हुए  पूछते हैं कि इस महंगाई में होली कैसे मनाए

" महंगी और टिकस के मारे सगरी वस्तु अमोली है , 

कौन भांति त्यौहार मनैये कैसे कहिये होली है । " 

भारतीयों की दासवृत्ति पर इनका व्यंग्य बहुत गहरा है । भारतीय अंग्रेज बनने की चाह में अपना सबकुछ छोड़ रहे हैं , वश चले तो अपना काला रंग भी छुड़ा दे ।

" जन जाने इंग्लिश हमें , वाणी , वस्रहिं जोय । 

मिटै बदन कर श्याम रंग , जन्म सफल तब होय ।। " 

भाषा

मिश्रजी 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' के कट्टर समर्थक थे, अतः उनकी रचनाओं में इनके प्रति विशेष मोह प्रकट हुआ है । खड़ीबोली के रूप में प्रचलित जनभाषा का प्रयोग मिश्रजी ने अपने साहित्य में किया। प्रचलित मुहावरों, कहावतों तथा विदेशी शब्दों का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है। भाषा की दृष्टि से मिश्रजी ने भारतेंदु का अनुसरण किया और जन साधारण की भाषा को अपनाया। भारतेंदुजी के समान ही मिश्रजी भाषा की कृतिमता से दूर रहे। इनकी भाषा स्वाभाविक है। उसमें पंडिताऊपन और पूर्वीपन अधिक है तथा ग्रामीण शब्दों का प्रयोग स्वच्छंदता पूर्वक हुआ है। संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, अंग्रेज़ी, आदि के प्रचलित शब्दों का भी प्रयोग है। भाषा विषय के अनुकूल है। गंभीर विषयों पर लिखते समय भाषा और गंभीर हो गई है। कहावतों और मुहावरों के प्रयोग में मिश्रजी बड़े कुशल थे। मुहावरों का जितना सुंदर प्रयोग उन्होंने किया है, वैसा बहुत कम लेखकों ने किया है। कहीं-कहीं तो उन्होंने मुहावरों की झड़ी-सी लगा दी है।

समालोचना

मिश्र जी अलंकृत काव्य के मानदण्डों पर भले ही बहुत उच्चकोटि के कवि न ठहरें परन्तु जनकवि के रूप में इनका स्थान बहुत ऊँचा है । मिश्रजी भारतेंदु मंडल के प्रमुख लेखकों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य की विविध रूपों में सेवा की। ये कवि होने के साथ-साथ उच्चकोटि के मौलिक निबंध लेखक और नाटककार थे। हिंदी गद्य के विकास में मिश्रजी का बड़ा योगदान रहा है। 

विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के अनुसार “काव्य का लक्ष्य उनके सम्मुख स्पष्ट था - सामाजिक और राष्ट्रीय क्रांति । उनके प्रत्येक पद्य में यही राग गूंजता है - यही उनकी महिमा है । अतः अलंकृत काव्य की दृष्टि से उनका स्थान ऊँचा न हो जनप्रिय काव्य की दृष्टि से उनका काव्य आज भी हमारा प्रेरक है ।“

आचार्य शुक्ल जी ने पं॰ बालकृष्ण भट्ट के साथ मिश्रजी को भी महत्व देते हुए अपने हिंदी-साहित्य के इतिहास में लिखा है – “पं० प्रतापनारायण मिश्र और पं० बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया।“

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