बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ Badrinarayan Chaudhary 'Premaghan'

 बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ 

Badrinarayan Chaudhary 'Premaghan' 

(1 सितम्बर 1855 – 12 मार्च 1922)

बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’

बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ जी का जन्म 1 सितम्बर 1855 (भाद्रपद कृष्ण षष्ठी, संवत् 1912) को उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के दात्तापुर ग्राम के एक संपन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ । इनके पिता पं. गुरुचरणलाल उपाध्याय जी विद्याव्यसनी थे। इनकी माता ने इन्हें हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया । प्रेमघनजी कवि ही नहीं उच्च कोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, आलोचना, नाटक, प्रहसन, लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का बड़ी पटुता से निर्वाह किया है। इनकी गद्य रचनाओं में हास परिहास का परिपाक है । खड़ी बोली गद्य के ये प्रथम आचार्य थे। इन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा ।

पं. इंद्र नारायण सांगलू की संगत से प्रेमघन जी का झुकाव शेरों-शायरी की ओर हुआ । ये  "अब्र" (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म, और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से ही प्रेमघन जी की मित्रता भारतेंदु हरिश्चंद्र से हुई । धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेंदु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया रंग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेंदु जीवन अपना लिया। भारतेंदु-मंडल के कवियों में प्रेमघन जी का प्रमुख स्थान है ।

प्रेमघनजी का काव्यक्षेत्र विस्तृत है । ये ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थे । प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया इनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेंदु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए

12 मार्च 1922 (फाल्गुन शुक्ल 14, संवत् 1978) को प्रेमघ्नजी की इहलीला समाप्त हो गई


प्रमुख कृतियाँ

प्रेमघनजी की रचनाओं का क्रमश: तीन भागों में विभाजन किया जा सकता है -

प्रबंध काव्य

संगीत काव्य

स्फुट काव्य


प्रबंध काव्य

जीर्ण जनपद 

हास्य बिन्दु 

उर्दू बिन्दु 

कजली कादम्बिनी 

प्रयाग रामागमन 

अलौकिक लीला 

सामाजिक संगीत 


स्फुट काव्य

युगमंगलस्तोत्र 

बृजचन्द पंचक 

पितर प्रलाप 

शोकाश्रुबिन्दु 

होली की नकल 

मन की मौज 

प्रेम पीयूष 

सूर्यस्तोत्र 

मंगलाशा 

हास्यबिन्दु 

हार्दिक हर्षादर्श 

आनंद बधाई 

लालित्य लहरी 

भारत बधाई 

स्वागतपत्र 

आनन्द अरुणोदय 

आर्याभिनन्दन 

सौभाग्य समागम 

मयंक महिमा 

वर्षा बहार


संगीत काव्य

संगीत काव्य


पत्रिका 

1881 को मिर्जापुर से 'आनन्द कादम्बनी'  संपादित की ।


गद्य-पद्य के अलावा इन्होंने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है।

प्रेमघनजी की कृतियों का संकलन इनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय द्वारा किया गया । जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन से दो भागों में प्रकाशन हुआ


प्रेमघन जी के काव्य की प्रवृतियां

प्रेमघ्नजी की कविता में भारतेन्दु के काव्य की तरह ही भक्ति , श्रृंगार , राजभक्ति और देशभक्ति के स्वर मिलेजुले हैं । मंगलाशा , हार्दिक , हर्षादर्श , भारत बधाई तथा आर्याभिनंदन में इनकी राजभक्ति है तो कलिकाल , तर्पण , पितर प्रलाप , मंगलाशा , आनंद बधाई तथा कजली होली में इनकी देशभक्ति झलकती है । आनंद बधाई कविता में हिन्दी के प्रति इनका अनन्य प्रेम झलकता है । हास्य बिन्दु तथा होली की नकल में इनकी हास्य - व्यंग्य की रचनाएँ हैं । इन्होंने सामाजिक , राजनीतिक क्षेत्र में भी भारतेन्दु का अनुसरण किया । साहित्य प्रचार के लिए रसिक समाज तथा सद्धर्म सभा बनाई तथा मासिक पत्रिका आनंद कादंबिनी और साप्ताहिक पत्र नागरी नीरद चलाया । उन्होंने दो प्रबन्ध काव्य जीर्ण - जनपद तथा अलौकिक लीला के साथ - साथ चार नाटकों - ' भारत सौभाग्य ' , ' दारंगना रहस्य ' , प्रयाण , रामागमन तथा वृद्ध विलाप का सृजन किया । स्फुट काव्य में भी इनकी बहुत सी रचनाएँ हैं । अवसरानुकूल कविता सृजन में कुशल थे इसलिए विवाह के बैनरों से लेकर महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती , सनातन धर्म सम्मेलन तथा नागरी लिपि के कचहरी प्रवेश के अवसर तक पर आपने साहित्य रचना की । प्राचीन परम्परा की कविताओं से प्रारम्भ करके ये आधुनिक काव्य की ओर बढ़ते चले गए । इनके काव्य की प्रमुख प्रमुख प्रवृतियां निम्न हैं - 

श्रृंगार भावना

प्रेमघन के काव्य में श्रृंगार भावना वर्णन अद्भुत है । इसमें मांसलता का अभाव है । वर्षा ऋतु में शृंगारिक भावों से युक्त कविता में लिखते हैं – 

बरसत नेह यह बरसत रूप बस । 

बरसत मेह सांझ समै दूर धाम है ।। 

गरजि - गरजि बहु त्रास उपजावै

उर निपट अकेली दूसरों न कोई वाम है ।। "

कहा करूँ , कैसे जाऊँ जानि न परत ।

उतै घेरे घनश्याम , इतै घेरे घनश्याम है । " 


भक्ति भावना 

रीतिकालीन श्रृंगार भावना के साथ - साथ भक्तिकालीन भक्तिभाव भी इनकी कविताओं में मुखर हुआ है , 

" छहरे मुख पै घनश्याम के केश , इतै सिरमोर पखा फहरै । 

नित ऐसे सनेह सो राधिका श्याम हमारे हिये में सदा बिहरै ।

 कृष्ण और राधा के रूप वर्णन का क्रम भक्तिकाल से चला आया है ।

देशभक्ति 

प्रेमघन जी ने " कलीकाल तर्पण " में भारत के स्वर्णिम अतीत एवं वर्तमान की दुर्दशा का चित्रण किया है । " पितर प्रलाप में राष्ट्रीयता का स्वर प्रबल है । अंग्रेजी सरकार द्वारा टैक्स लगाने तथा अन्य जन विरोधी नीतियों का विरोध भी किया है । 

भारत दुर्दशा चित्रण

निर्धन दिन - दिन होत है , भरत भुव सब भाति । 

ताहि बचाइ न कोइ सकत निज भुज बुधि बल कांति । 

टैक्स विरोध 

" रोओ सबका मुँह बाप बाप

हाय हाय टिक्कस हाय हाथ 

रोज कचहरी धाप धाप

अमलन के ढिग जाय जाय

विदेशी समान विरोध

देस नगर बानक वनो सब अंग्रेजी चाल । 

हाटन मैं देखह भरो बस अंग्रेजी माल ।। 

भारतीयों को उदबोध 

" उठो आर्य संतान सकल , बस न विलंब लगाओ । " 

भारत उन्नति की कामना 

सब द्वीप की विद्या कला विज्ञान इत चली आवई 

उधम निरत आरन प्रजा रहि सुख समृद्धि बढावई 

दुष्काल रोग अनीति नसि , सट्ठम उन्नति पावई

भर विवुध , अन्न , सुरत्र भारत भूमि नित उपजाई । 

राजनीति 

भारतेन्दु के समान ही प्रेमघन जी के काव्य में राजभक्ति का स्वर भी मिला जुला है । रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण की हीरक जयन्ती पर उन्होंने लिखा था – 

" तेरी सुखद राज की कीरति रहै अटल इत 

धर्मराज , रघु राम , प्रजा हिय में तिमि अंकित । 

" 1857 की जनक्रांति का समर्थन भारतेन्दु युग के कवियों ने नहीं किया । प्रेमघन जी भी इसे सिपाहियों की मूर्खता ही मानते थे 

" देसी मूंढ सिपाह कछुक लै कुटिल प्रजा संग । 

कियो अमिट उत्पात रचयो बिन नासन को ढंग ।। " 

विभिन्न अवसरानुकूल कविता 

प्रेमघन जी राजनीतिक दृष्टि से अत्यन्त सचेत व्यक्ति थे । शुक्ल जी के शब्दों में , " देश की दशा को सुधारने के लिए जो राजनीतिक या धर्म सम्बन्धी आन्दोलन चलते रहे थे । उन्हें ये बड़ी उत्कंठा से परखा करते थे । जब कहीं कुछ सफलता दिखाई पड़ती , तब लेखों और कविताओं द्वारा हर्ष प्रकट करते और जब बुरे लक्षण देते , तब क्षोभ और खिन्नता । काँग्रेस के अधिवेशनों में प्रायः जाते थे । 

भारतेन्दु की मृत्यु पर इन्होंने लिखा 

" अथयो हरिश्चन्द्र अमंद सो भारत चन्द चहुँ तम छाय गयो । 

तरु हिंदुन के हित उन्नति को , बढतै अवहिं गुरझाय गयो । । "


पार्लियामेंट के सदस्य दादाभाई नौरोजी को जब विलायत में 'काला' कहा गया, तब इन्होने इस पर यह क्षोभ पूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की -

अचरज होत तुमहूँ सम गोरे बाजत कारे;

तासों कारे 'कारे' शब्दहू पर हैं वारे !

कारे कृष्ण, राम, जलधर जल-बरसावन वारे

कारे लागत ताहीं सों कारण कौ प्यारे

याते नीको है तुम 'कारे' जाहू पुकारे,

यहै असीस देत तुमको मिलि हम सब कारे -

सफल होहिं मन के सब ही सकल्प तुम्हारे ।

1857 की क्रांति को सिपाहियों की मूर्खता बताने वाले प्रेमघन जी देशभक्ति पूर्ण कविताएँ भी रचते रहे । विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले बना गीत और वर्षा में गाई जाने वली कजरियां भी इन्होंने लिखी । एक कजरी दृष्टव्य है -

" तोहसे यार मिले के खातिर सौ सौ तार लगाईला । 

गंगा रोज नहाईला मंदिर में जाईला 

कथा पुरान सुनीला , माला बेढि हिलाईला हो " 

ब्रजभाषा के साथ - साथ उर्दू में भी इन्होंने कविता की  

" मेरी जान ले , क्या नफा पाइएगा 

छुड़ाकर ए दामन किधर जाइएगा । " 

प्रेमघन के काव्य में समसामयिक घटनाओं पर अधिक लिखा है । कविता को समसामयिक जीवन से जोड़ने का काम , भारतेन्दुजी की तरह प्रेमघन जी ने भी किया है । कजलियों में वर्षा ऋतु का सुन्दर वर्णन करने वाले प्रेमघन जी ने होली , कजली , ठुमरी , दादरा , खेमटा , लावनी तथा गजल आदि की रचना भी की है । इन्हें भारतेन्दु मण्डल के बड़े कवियों में माना जाता है ।


Previous
Next Post »

उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
आपकी टिप्पणी हमें ओर बेहतर करने के लिए प्रेरित करती है । ConversionConversion EmoticonEmoticon