निर्मल वर्मा
Nirmal Verma
(3 अप्रैल 1923 - 25 अक्तूबर 2005)
जीवन परिचय
हिन्दी के मूर्धन्य कथाकार व निबन्ध लेखक निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल , 1923 को शिमला में हुआ था । ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा विभाग में एक उच्च पदाधिकारी श्री नंद कुमार वर्मा के घर जन्म लेने वाले आठ भाई बहनों में से पाँचवें निर्मल वर्मा ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन किया। इन्हें वर्ष 1959 से 1972 तक यूरोप में प्रवास करने का अवसर मिला । इस दौरान इन्होंने लगभग समूचे यूरोप की यात्रा करके वहाँ की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का नजदीक से परिचय प्राप्त किया था। 1959 से प्राग (चेकोस्लोवाकिया) के प्राच्य विद्या संस्थान में सात वर्ष तक रहे। उसके बाद लंदन में रहते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया के लिये सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की। 1972 में स्वदेश लौटे। 1977 में आयोवा विश्व विद्यालय (अमरीका) के इंटरनेशनल राइटर्स प्रोग्राम में हिस्सेदारी की। इनकी कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनी जिसे 1973 का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। ये इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो रहे (1973) और मिथक-चेतना पर कार्य किया, निराला सृजनपीठ भोपाल (1981-1983) और यशपाल सृजनपीठ (शिमला) के अध्यक्ष रहे (1989)। 1988 में इंगलैंड के प्रकाशक रीडर्स इंटरनेशनल द्वारा उनकी कहानियों का संग्रह द वर्ल्ड एल्सव्हेयर प्रकाशित। इसी समय बीबीसी द्वार इन पर डाक्यूमेंट्री फिल्म प्रसारित हुई । फेफड़े की बीमारी से जूझने के बाद 76 वर्ष की अवस्था में 25 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली में इनका निधन हो गया।
निर्मल वर्मा की अभिव्यक्ति व कला पर हिमाचल के पहाड़ी जीवन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है । हिन्दी कहानी में आधुनिक-बोध लाने वाले कहानीकारों में निर्मल वर्मा का अग्रणी स्थान है। उन्होंने कम लिखा है परंतु जितना लिखा है उतने से ही वे बहुत ख्याति पाने में सफल हुए हैं। उन्होंने कहानी की प्रचलित कला में तो संशोधन किया ही, प्रत्यक्ष यथार्थ को भेदकर उसके भीतर पहुँचने का भी प्रयत्न किया है। परिंदे से प्रसिद्धि पाने वाले निर्मल वर्मा की कहानियां अभिव्यक्ति और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ समझी जाती हैं। निर्मल वर्मा ने हिन्दी कहानी की प्रचलित शैली में परिवर्तन करते हुए हिन्दी कथा साहित्य को नई दिशा दी । इनके साहित्य में भारतीय व पश्चात्य संस्कृतियों के अन्तर्द्वन्द्व पर गहनता से विचार किया गया है । अपनी गंभीर, भावपूर्ण और अवसाद से भरी कहानियों के लिए जाने-जाने वाले निर्मल वर्मा को आधुनिक हिंदी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता रहा है, उनके लेखन की शैली सबसे अलग और पूरी तरह निजी थी। निर्मल वर्मा अज्ञेय की परम्परा के लेखक हैं । इनका अंतिम उपन्यास ' अंतिम अरण्य ' था जो सन् 1990 में प्रकाशित हुआ था ।
निर्मल वर्मा को अनेक पुरस्कार व सम्मानों से नवाजा गया । वर्मा जी को ' कौवे और काला पानी ' कहानी के लिए 1985 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया । सन् 1995 में इन्हें उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान का राम मनोहर लोहिया सम्मान दिया गया । इन्हें भारत में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी सम्मान 1999 में दिया गया। तथा सन् 2002 में भारतीय साहित्य के सर्वोच्च ' ज्ञानपीठ ' पुरस्कार से सम्मानित किया गया । निर्मल वर्मा को भारत सरकार द्वारा शिक्षा व साहित्य में विशेष योगदान के लिए ' पद्म भूषण ' से सम्मानित किया । अपने निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित थे
रचनाएं
उपन्यास
वे दिन -1964
लाल टीन की छत -1974
एक चिथड़ा सुख -1979
रात का रिपोर्टर -1989
अंतिम अरण्य -2000
कहानी संग्रह
परिन्दे -1959
जलती झाड़ी -1965
पिछली गर्मियों में -1968
बीच बहस में -1973
कव्वे और काला पानी -1983
सूखा तथा अन्य कहानियाँ -1995
यात्रा-संस्मरण एवं डायरी
चीड़ों पर चाँदनी -1963
हर बारिश में -1970
धुंध से उठती धुन -1997
निबन्ध
शब्द और स्मृति -1976
कला का जोखिम -1981
ढलान से उतरते हुए -1985
भारत और यूरोप : प्रतिश्रुति के क्षेत्र -1991
इतिहास, स्मृति, आकांक्षा -1991
आदि, अन्त और आरम्भ -2001
सर्जना पथ के सहयात्री -2005
साहित्य का आत्म-सत्य -2005
संचयन
मेरी प्रिय कहानियाँ -1973
दूसरी दुनिया -1978
प्रतिनिधि कहानियाँ -1988
शताब्दी के ढलते वर्षों में (प्रतिनिधि निबन्ध) -1995
ग्यारह लम्बी कहानियाँ -2000
नाटक
तीन एकान्त -1976
संभाषण/साक्षात्कार/पत्र
दूसरे शब्दों में -1999
प्रिय राम -2006
संसार में निर्मल वर्मा -2006
अनुवाद
कुप्रिन की कहानियाँ -1955
रोमियो जूलियट और अँधेरा -1964
कारेल चापेक की कहानियाँ -1966
इतने बड़े धब्बे -1966
झोंपड़ीवाले -1966
बाहर और परे -1967
बचपन -1970
आर यू आर -1972
एमेके एक गाथा -1973
परिन्दे कहानी एक नजर (सम्पूर्ण कहानी पढ़ें)
यह कहानी आधुनिक संदर्भों में व्यक्ति के अन्तर्मन की गहरी अनुभूतियों , सत्रांस व घुटन को प्रस्तुत करती है । इसमें लतिका , ह्यूबर्ट , डा . मुखर्जी तथा मिसवुड जैसे प्रमुख पात्र है ।
इस कहानी के प्रमुख पात्रः
मिस लतिका
केन्द्रीय पात्र , जो अकेलेपन की पीड़ा से ग्रस्त है । मिस लतिका स्कूल टीचर है और पहाड़ी के किसी स्कूल में कार्यरत है । वह अपने प्रेमी कैप्टन गिरीश नेगी से प्रेम करती है , परन्तु नेगी की मृत्यु हो जाने के फलस्वरूप वह अकेली हो जाती है और अपना सम्पूर्ण जीवन निराशा , कुंठा , अवसाद और मनोमालिन्य स्थिति में गुजारती है । उसकी प्रत्येक बात और स्थिति उसके अकेलेपन को व्यक्त करती हैं ।
" डॉक्टर वह क्या चीज है जो हमें चलाए रखती है । "
इसी उधेड़बुन और अकेलेपन में वह जीती है । वह अपने जीवन में हताशा , एकांकी और दाम्पत्य जीवन के अभावों की शिकार है ।
ह्युबर्ट
हयूबर्ट भी अपने प्रेम में असफल है । एकांकी जीवन की त्रासदी झेलता पात्र , जो पियानो बजाकर अपना मन बहलाता है । ह्यूबर्ट लतिका की ओर आकर्षित है । वे लतिका को प्रेम पत्र देते है पर लतिका कोई प्रत्युत्तर नहीं देती । एक दिन वे जब लतिका के अतीत के बारे में जान लेते हैं तो दुखी होते हैं ।
डा . मुखर्जी
बर्मा निवासी डॉ . मुखर्जी अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद अपने देश बर्मा से हजारों मील दूर अपना जीवन काट रहे है । वे बाहरी दिखावे के लिए उदात्त चिन्तन और मनन करते हैं पर अन्दर से घुटते हैं ।
मिस वुड
कॉलेज की प्रिंसीपल जिसे उसके खूसट व्यवहार के लिए लड़कियाँ ' ऑल्ड मैड ' कहती हैं ।
फादर एलमण्ड
कॉलेज के संरक्षक जो ईसा मसीह के विचारों को छात्राओं तक पहुँचाते हैं ।
इस प्रकार ' परिन्दे ' कहानी के सभी पात्र उस संत्रास को झेलते हैं जो असफल प्रेम के परिणामस्वरुप प्राप्त होता है । इस कहानी में पहाड़ी जीवन से जुड़े लोग परिन्दों की भाँति आते हैं और चले जाते हैं । लतिका का जीवन इसी प्रकार का जीवन है । आधुनिक परवेश में भटकते एकांकी जीवन और उनकी विसंगतियों को इस कहानी में प्रस्तुत किया गया है ।
महत्त्वपूर्ण तथ्य
परिन्दे कहानी के प्रारंभ में परिन्दों का उड़ना प्रतीक रूप में एक पीड़ा बोध को जगाता है ।
कहानी का वातावरण , लैम्प का बुझना और बच्चों का अपने घर जाना असफलता की ओर संकेत करते हैं ।
उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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