हिन्दी नाटक एवं नाटककार Hindi drama and playwright

हिन्दी नाटक एवं नाटककार Hindi drama and playwright


Hindi drama


हिन्दी नाटक का जन्म व विकास

नाटक साहित्य का विकास भारतेन्दु युग से माना जाता है , संस्कृत नाटकों की क्षति हो जाने के बाद आदिकाल और मध्यकाल में नाटक को किसी प्रकार का परश्रय नहीं मिला । परम्परा के अनुसार लोकनाट्य अवश्य प्रचलित रहे । भारतेन्दुजी  के पिता गोपालचन्द्र द्वारा लिने ' नहुष (1814)' नाटक  को हिन्दी का प्रथम नाटक माना है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल विश्वनाथ सिंह द्वारा रचित नाटक ' आनन्द रघुनन्दन ' को हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक स्वीकार करते है । डॉ . सोमनाथ गुप्त , डॉ . लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय , बाबू गुलाब राय आदि विद्वानों ने भी आनन्द रघुनन्दन को हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक स्वीकार किया है । डॉ . दशरथ ओझा  इसे संस्कृत शैली का प्रथम हिन्दी नाटक मानते है । डॉ . विजयेन्द्र स्नातक तथा डॉ . कृष्णलाल  ' नहुष ' को हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक मानते है । हिन्दी में नाटक का समुचित विकास आधुनिक युग में आरम्भ  होता है । 
सन् 1850 से अब तक के नाटक साहित्य को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता -

  • भारतेन्दु युग ( 1850-1900)
  • प्रसाद युग ( 1900-1930 ) 
  • प्रसादोत्तर युग (1930 से अब तक  ) 

 भारतेन्दु युग 

हिन्दी नाटकों के वास्तविक जन्मदाता  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही है । इनके पहले संस्कृत साहित्य में नाटक प्रचुर मात्रा में लिखे जाते रहे । संस्कृत नाटकों की एक अत्यन्त समृध्द परम्परा भी रही , परंतु हिन्दी में नाटक , आधुनिक अर्थों में जिन्हें नाटक माना सकता है , उनका विकास 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में ही हुआ ।

भारतेन्दु युग में नाटक के उदय के कारण

आधुनिक युग के आरम्भ में अंग्रेजी राज्य के शोषण और अत्याचारों से जनचेतना का  उदय हुआ , 
इस युग के साहित्यकार नई युग - चेतना का प्रचार करने के लिए नाटक को विशेष रुप से नाटक के एक अंग ' प्रहसन ' को साधन बनाना चाहते थे । प्रहसन के माध्यम से अपनी बात व्यंग्य और हास्य के आवरण में आसानी से व्यक्त की जा सकती है । 

 हिन्दी में वास्तविक रुप में नाटक लिखने का श्रेय भारतेन्दु को ही है । उन्होंने संस्कृत नाट्य - शास्त्र के अनेक नियमों का परित्याग करके हिन्दी नाटक को एक सर्वथा अभिनव और नवीन युग के अनुरूप रूप प्रदान करके उसे राष्ट्रीय भावना के प्रसार का सशक्त साधन बनाया । भारतेन्दु के नाटकों की संख्या लगभग 18 है । इनमें ऐतिहासिक , पौराणिक एवं आधुनिक सामाजिक सभी प्रकार के नाटक लिखे।इनके प्रमुख नाटकों में ' सत्य हरिश्चन्द्र ' , ' धनंजय विजय ' , ' मुद्रा राक्षस ' , ' कर्पूर - मंजरी ' ये चारों नाटक अनुदित है ।  मौलिक नाटकों में  ' पाखण्ड - विडम्बन ' , ' वैदिकी हिंसा , हिंसा न भवति ' ' विषस्य विषमौषधम् ' ' भारत - दुर्दशा ' आदि उल्लेखनीय हैं ।  इनके नाटकों में जीवन और कला , सत्यम् एवं सुन्दरम् , मनोरंजन और मंगल का सुन्दर समन्वय मिलता है । उनकी शैली सरलता , रोचकता एवं स्वाभाविकता के गुणों से परिपूर्ण है । 

भारतेन्दुयुगीन प्रमुख नाटककार

प्रतापनारायण मिश्र , राधाकृष्णदास , लाला श्रीनिवासदास , बन्द्रीनारायण चौधरी ' प्रेमधन ' , बालकृष्ण भट्ट , बाबू सीताराम , सत्यनारायण ' कविरत्न ' , रामकृष्ण वर्मा , रुपनारायण पाण्डेय आदि । 

 प्रतापनारायण मिश्र

 ‘गोसंकट ' , ' कलिप्रभाव ' , जुआरी स्य्यारी ' , ' कली कौतुक रापक ' , ' संगीत शाकुंतल ' और ' हठी हमीर ' आदि प्रसिध्द नाटक लिखे ।

  राधाकृष्णदास 

 ' महारानी पद्मावती ' , ' महाराणा प्रताप ' , ' दुःखिती बाला ' नामक ऐतिहासिक नाटकों का निर्माण किया । ' 

लाला श्रीनिवासदास

 ' प्रल्हाद चरित्र ' रणधीर और प्रेममोहिनी ' , संयोगिता स्वयंवर ' तथा ' तप्तासंघरण ' । 

बद्रीनारायण चौधरी ' प्रेमघन ' 

 ' भारत सौभाग्य ' , ' वारांगणा रहस्य ' , ' प्रयाग रामागमन ' , और वृष्दविलाप ।

पं . बालकृष्ण भट्ट 

 ' दमयंती ' , ' बृहन्नला ' ' येणु संहार ' , ' कलिराज की सभा ' , ' रेल का बिकट खेल ' , ' बाल - विवाह ' , ' जैसा काम वैसा परिणाम '। 

 अनुदित नाटक

भारतेन्दु - युग में मौलिक नाटक संख्या की दृष्टि से कम लिखे गये , इसी कारण इनके अभाव में अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ नाटकों के अनुवाद की परम्परा खूब चली । ये अनुवाद बंग्ला , संस्कृत और अंग्रेजी से हुए । बाबू सीताराम ने ' नागानन्द ' , ' मृच्छ कटिकम ' , ' मालती माधव ' आदि नाटकों का तथा सत्यनारायण ' कविरत्न'ने भवभूति के ' उत्तर रामचरित ' और ' मालती माधव ' का संस्कृत से अनुवाद किया है । बांग्ला के प्रसिध्द नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय के नाटकों का अनुवाद रुपनारायण पाण्डेय और रामकृष्ण वर्मा जी ने किया । श्री नाथुराम प्रेमी , धन्यकुमार जैन एवम पं . बालकृष्ण भट्ट जी ने भी अनेक बँगला नाटकों का अनुवाद किया । अंग्रेजी नाटकों के अनुवादकों में गंगाप्रसाद पाण्डेय , पुरोहित गोपीनाथ , मथुरादास उपाध्याय आदि प्रमुख हैं । इन्होंने विशेष रूप से शेक्सपियर के नाटकों का अनुवाद किया ।

प्रसाद युग 

हिन्दी नाटक को साहित्यिक भूमिका प्रदान करने का प्रयास सर्वप्रथम भारतेन्दुजी ने किया था । उनके पूर्व साहित्यिक नाटकों का एक प्रकार से अभाव सा था । पारसी नाटक कंपनियों द्वारा अभिनीत नाटक असाहित्यिक और कुरुचिपूर्ण हुआ करते थे । भारतेन्दुजी ने स्वयं नाटक लिखे और अपने साहित्यिक सहयोगियों को इस ओर प्रवृत्त करने के साथ ही साथ अव्यावसायिक रंगमंच की नींव भी डाली । इनके द्वारा स्थापित की गई नाटक और रंगमंच की परम्परा को ही जयशंकर प्रसादजी ने आगे बढ़ाते हुए इसे नया जीवन और नई दिशा प्रदान की । भारतेन्दु के पश्चात् प्रसाद जैसा सर्वांगीण , प्रतिभाशाली , रचनात्मक व्यक्तित्व सम्पन्न दूसरा कोई भी कलाकार हिन्दी में  नहीं हुआ । हिन्दी नाटकों के विकास का जो आरम्भ भारतेन्दु युग में हुआ था यह प्रसाद युग में अपने पूर्ण उत्कर्ष को पहुँचा । कलात्मकता की दृष्टि से प्रसादजी के ' अजातशत्रु ' , ' स्कन्दगुप्त ' , ' चन्द्रगुप्त ' और ' घुवस्वामिनी ' प्रसिध्द एवं श्रेष्ठ नाटक है । आधुनिक नाटक - विधा के दृष्टिकोण से और सामान्यतः नाट्य - कला के निखार की दृष्टि से ' धुवस्वामिनी प्रसादजी का सर्वश्रेष्ठ नाटक है । 

प्रसाद युगीन नाटक


 धार्मिक - पौराणिक नाटक 

 इस युग में राम , कृष्ण , प्रल्हाद , सुदामा आदि पौराणिक चरित्रों को आधार बनाकर लिखित नाटकों की संख्या शताधिक है । ये नाटक पौराणिक आख्यानों पर आधारित होने पर भी राष्ट्र - गौरव और समसामयिक राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण है । इस वर्ग के अन्तर्गत अंबिकादत त्रिपाठी का ' -स्वयंवर नाटक ' , रामचरित उपाध्याय का ' देवी द्रौपदी ' , राम नरेश त्रिपाठी का ' सुभद्रा ' तथा ' जयन्त ' , गंगाप्रसाद अरोडा का सावित्री - सत्यवान ' , गौरीशंकर प्रसाद का अजामिलचरित नाटक ' , परिपूर्णानन्द वर्मा का ' वीर अभिमन्यु नाटक ' , गोकुलचन्द्र वर्मा का ' जयद्रथ - यध ' कैलाशनाथ भटनागर का ' भीष्म प्रतिज्ञा ' , लक्ष्मीनारायण गर्ग का ' श्रीकृष्णावतार ' हरिऔध का ' रुक्मिनी परिणय ' किशोरीदास वाजपेयी का ' सुदामा आदि उल्लेखनिय है ।

ऐतिहासिक नाटक

इस युग के गौण ऐतिहासिक नाटकों में गणेशदत इन्द्र का ' महाराणा संग्रामसिंह ' , ' भंवरलाल सोनी का ' वीर कुमार छत्रसाल ' , चन्द्रराज भंडारी का ' सम्राट अशोक ' , बदरीनाथ सिंह  के ' दुर्गावती ' और ' चन्द्रगुप्त ' , जितेश्वरप्रसाद  का ' भारत गौरव अर्थात् सम्राट चन्द्रगुप्त ' , दशरथ ओझा का ' चित्तौड की देवी ' , लक्ष्मीनारायण गर्ग का ' महाराणा प्रताप ' , जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द का ' प्रताप प्रतिज्ञा ' , उदयशंकर भट्ट का ' विक्रमादित्य ' , प्रेमचन्द का कर्बला ' आदि उल्लेखनीय है इनमें से अधिकतर नाटकों को ऐतिहासिक घटनाओं का वार्तालाप रुपान्तरमात्र कहा जा सकता है ।

सामाजिक नाटक 

पौराणिक और ऐतिहासिक नाटकों के साथ - साथ इस युग में अनेक सामाजिक नाटकों की भी रचना हुई , जिनमें कौशिक जी का ' अत्याचार का परिणाम ' , और ' हिन्दू विधवा नाटक,प्रेमचन्द का ' संग्राम ' , ईश्वरीप्रसाद शर्मा का ' कृषक दुर्दशा ' , सुदर्शन का ' अंजना ' और भाग्यचक्र ' गोविन्दवल्लभ पंत का ' कंजूस की खोपडी ' और ' अंगूर की बेटी ' , रामेश्वरी प्रसाद ' राम ' का ' अछुतोध्दार नाटक ' छबिदास पाण्डेय का ' समाज ' आदि प्रसिध्द है । इन नाटकों में एक प्रकार की सामाजिक चेतना की झलक मिलती है , जिससे स्पष्ट होता है कि इस युग के नाटककार जीवन के यथार्थ के निकट आने का प्रयत्न कर रहे थे ।

गीतिनाट्य 

 इस युग में कतिपय गीतिनाट्य भी लिखे गये जिनमें मैथिलीशरण गुप्त का ' अनघ ' , हरिकृष्ण प्रेमी का ' स्वर्ण - विहान ' , भगवतीचरण वर्मा का ' तारा ' , उदयशंकर भट्ट के ' मत्स्यगंधा ' और ' विश्वामित्र ' आदि उल्लेखनीय हैं । इनमें से ' तारा ' सफल गीतिनाट्य है । भट्ट जी के गीतिनाट्यों में कवित्व के साथ नाटकीय संघर्ष और प्रतीकात्मकता का सुन्दर समन्वय मिलता है । इस युग के अन्य गीतिनाट्यों में गोविन्दवल्लभ पंत का ' वरमाला ' और उदयशंकर भट्ट का ' विद्रोहिनी अम्बा ' भी उल्लेखनीय है।

हास्य - व्यंग्य प्रधान नाटक

प्रसाद युग के पहले प्रायः हास्य पूर्ण दृश्यों का समावेश हिन्दी नाटकों में होता था , लेकिन शुध्द हास्य नाटक का सृजन कम संख्या में ही हुआ था । इस युग में अनेक हास्य व्यंग्य प्रधान नाटक लिखे गए , जिनमें सामाजिक और व्यक्तिगत चारित्रिक विसंगतियों पर प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार के नाटक लिखनेवालों में जी.पी. श्रीवास्तव का नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । उनके ' दुमदार आदमी ' , ' गडबडझाला ' , नाक में दम उर्फ जवानी बनाम बुढापा उर्फ मियों की जूती मियों के सर ' , ' भूलचूक ' , ' चोर के घर छिछोर ' , चाल बेढब ' , ' साहित्य का सपूत ' , ' स्वामी चौखटानन्द ' आदिहास्य - व्यंग्य प्रधान नाटक विशेष उल्लेखनीय है ।

ये भी देखें

प्रसादोत्तर युगीन नाटक

प्रसादोत्तर काल से लेकर आज तक का हिन्दी नाटक कई धाराओं में विभक्त होकर अपनी विकास की यात्रा तय कर रहा है । इस युग में ऐतिहासिक , पौराणिक , समस्या प्रधान , प्रतीकवादी , व्यक्तिवादी चेतना से अनुप्राणित सामाजिक , सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित , राजनीतिक चेतना से अनुप्राणित , गीतिनाट्य , व्यंग्य नाटक तथा विसंगत नाटक लिखे जा रहे है । 

ऐतिहासिक नाटक 

प्रसादोत्तर युग में ऐतिहासिक नाटकों का पर्याप्त विकास हुआ । इस क्षेत्र में हरिकृष्ण प्रेमी , वृन्दावनलाल वर्मा , गोविंदवल्लभ पंत , सेठ गोविंददास , उदयशंकर भट्ट तथा जगदीशचन्द्र माथुर और अन्य कतिपय नाटककारों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । हरिकृष्ण प्रेमी के ऐतिहासिक नाटकों में रक्षाबन्धन ' , ' शिवा साधना ' , ' प्रतिशोध ' , ' स्वप्नभंग ' , ' आहुति ' , ' उध्दार ' , ' शपथ ' , ' भग्न प्राचीर ' , ' आन का मान ' आदि उल्लेखनिय है । इनके नाटकों में राष्ट्रभक्त्ति , आत्म - त्याग , बलिदान , हिन्दू - मुस्लीम एकता आदि भावों एवं प्रवृत्तियों को स्पष्ट देखा जा सकता है । वृन्दावनलाल वर्मा इतिहास विशेषज्ञ थे । इनकी यह विशेषता इनके नाटकों में व्यक्त हुई है । इनके ऐतिहासिक नाटकों में ' झाँसी की रानी ' , ' पूर्व की ओर ' , ' बीरबल ' , ' ललित विक्रम ' आदि उल्लेखनिय है । गोविन्दवल्लभ पंत जी ने अनेक सामाजिक एवं राजनीतिक नाटकों की रचना की है । इनके ' राजमुकुट ' और ' अन्तःपुर का छिद्र ' ऐतिहासिक नाटक हैं । इन प्रमुख नाटककारों के अलावा ऐतिहासिक नाटक लिखनेवाले नाटककार हैं ।  विद्यालन्कार के ' अशोक ' तथा ' रेवा ' सेठ गोविन्ददास के ' हर्ष ' , ' कुलिनता ' और ' शशिगुप्त ' , उदयशंकर भट्ट के ' मुक्लि - पथ ' , ' दाहर ' , ' शक - विजय ' , लक्ष्मीनारायण मिश्र के ' गरूड ध्वज , ' वत्सराज ' , ' वितस्ता की लहरे ' , ' उपेन्द्रनाथ ' अश्क का ' जय - पराजय ' , जगदीशचन्द माथुर का ' कोणार्क ' , देवराज दिनेश के ' यशस्यौं मोज ' और ' मानव प्रताप ' चतुरसेन शास्त्री का ' छत्रसाल ' आदि है । 

पौराणिक नाटक

इस युग में पौराणिक नाटकों की परम्परा का भी पर्याप्त विकास हुआ । इन नाटकों के कथानक पौराणिक होते हुए भी उसके व्याज से आज की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । पौराणिक चरित्रों द्वारा किसी ने कर्तव्य आदर्श को पाठकों के सम्मुख रखा है , किसी ने किसी उपेक्षित पात्र के साथ सहानुभूति के दो आँसू बहाये है । किसी ने जाति - पाति की भेद की समस्या का समाधान ढूँढा है तो किसी ने नारी के गौरव के प्रति । अपनी लेखनी के फूल अर्पित किये है । " विभिन्न लेखकों ने पौराणिक आधार को ग्रहण करते हुए उत्कृष्ट नाटक लिखें जिनमें प्रमुख है- सेठ गोविन्ददास का कर्तव्य ' , चतुरसेन शास्त्री का ' मेघनाद ' , ' पृथ्वीराज शर्मा ' का ' उर्मिला ' सद्गुरुशरण अवस्थी का ‘ मझली रानी ' , रामवृक्ष वेनीपुरी का ' सीता की माँ ' किशोरीदास वाजपेयी का ' सुदामा ' , चतुरसेन शास्त्री का ' राधाकृष्ण ' , कैलाशचन्द्र भटनागर के ' भीम - प्रतिज्ञा ' , एवं ' श्रीवत्स ' वीरेद्रकुमार गुप्त का ' सुभद्रा - परिणय ' उद्यशकर भट्ट के ' विद्रोहिणी अम्बा ' , और ' सागर विजय ' , पाण्डेय बेचेन शर्मा ' उग्र ' का ' गंगा का बेटा ' डॉ.लक्ष्मण स्वरूप ' नलदमयंती तारा मिश्र को देवयानी ' , गोविन्ददास का ' कर्ण ' उमाशंकर बहादुर का ' वेचन का मोल ' , कामनिधि शास्त्री का ' प्रणपूर्ति ' गोविन्दवल्लभ पंत का ' ययाति ' , डॉ . कृष्णदास भारद्वाज का ' अज्ञातवास ' , लक्ष्मीनारायण मित्र के ' नारद की वीणा ' , और ' चक्रव्यूह ' , रांगेय राघव का ' स्वर्गभूमि का यात्री ' , मुखर्जी गुंजन का ' शक्तिपूजा ' , सूर्यनारायण मूर्ति का ' महानाश की ओर ' आदि । इसमें कोई संदेह नहीं कि ये नाटक विषय - वस्तु की दृष्टि से पौराणिक होते हुए भी हमें आज के जीवन की संकीर्णताओं एवं सीमाओं से उपर उठकर जीवन की व्यापकला एवं विशालता का संदेश देते हैं ।

समस्या - प्रधान नाटक 

 इस युग में समस्या - प्रधान नाटकों का प्रचलन मुख्यत : इब्सन , बनार्ड शा आदि . पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से ही हुआ  । इन नाटकों में सामाजिक समस्याओं का समाधान विशुध्द बौध्दिक दृष्टिकोण से किया गया है । इनमें विशेषतः यौन - समस्याएँ , नारी शिक्षा , नारी स्वातंत्र्य , विवाह - समस्या , संयुक्त परिवार समस्या , और जाँति - पाँति , ऊँच नीच सामाजिक वैषम्य आदि समस्याओं का अंकन प्रस्तुत किया है । इस वर्ग के नाटककारों में लक्ष्मीनारायण मिश्र , सेठ गोविन्ददास , उपेन्द्रनाथ अश्क , वृन्दावनलाल वर्मा , हरिकृष्ण प्रेमी , डॉ . शंकर शेष , और डॉ . भीष्म साहनी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । लक्ष्मीनारायण मिश्र के समस्या - प्रधान नाटकों में ' संन्यासी ' , ' राक्षस का मंदिर ' , ' मुक्ति का रहस्य ' , ' सिन्दूर की होली ' , ' आधी रात ' आदि उल्लेखनीय है । सेठ गोविन्ददासजी ने ऐतिहासिक , पौराणिक नाटकों के अतिरिक्त सामाजिक समस्याओं का चित्रण करनेवाले नाटक भी लिखे हैं , जिनमें प्रमुख हैं ' कुलीनता ' ' सेवापश्य ' , ' दुख क्यों ? ' सिध्दान्त स्वातंत्र्य ' ' त्याग का ग्रहण ' संतोष कहाँ ? ' पाकिस्तान ' , ' गरीबी और अभीरी तथा ' बड़ा पापी कौन ' आदि । सेठजी ने अपने इन नाटकों में आधुनिक युग की विभिन्न सामाजिक , राजनीतिक एवं राष्ट्रीय समस्याओं का चित्रण सफलतापूर्वक किया है । उपेन्द्रनाथ अश्क आदर्शोन्मुख यथार्थवादी नाटककार हैं । इन्होंने अपने नाटकों में व्यक्ति , समाज और राष्ट्र की विभिन्न समस्याओं का चित्रण जहाँ यथार्थ के स्तर पर किया है , वही उसके मूल में सुधार या क्रान्ति की भावना निहित है , जो आदर्शवाद की सूचक हैं । इनके प्रमुख नाटकों में स्वर्ग की झलक ' , ' कैद ' , ' उडान ' , ' छटा बेटा ' , तथा अलग - अलग रास्ते ' और ' अजो दीदी ' विशेष उल्लेखनीय है । इन्होंने अपने नाटकों में नारी - शिक्षा , नारी स्वातंत्र्य , विवाह समस्या , संयुक्त परिवार आदि से सम्बधित विभिन्न पक्षों पर सामाजिक दृष्टि से तीखे व्यंग्य किये हैं । अनेक नाटकों में इन्होंने आधुनिक समाज की स्वार्थपरता , धन लोलुपता , अनैतिकता आदि का भी चित्रण यथार्थवादी शैली में किया है । वृन्दावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक नाटकों के अतिरिक्त सामाजिक नाटक भी लिखे हैं । वर्माजी ने अपने नाटकों में विवाह , जाँते - पाँति , ऊँच - नीच सामाजिक वैषम्य , नेताओं की स्वार्थ - परायणता आदि से संबन्धित विभिन्न प्रवृत्तियों एवं समस्याओं का अंकन प्रस्तुत किया है । उनके इस वर्ग के नाटकों में ' राखी की लाज ' , ' बॉस की फाँस ' , ' खिलौने की खोज ' ' केवट ' ' निलकंठ ' , ' सगुन ' , ' निस्तार ' और ' देखा - देखी ' आदि प्रमुख हैं । गोविन्दवल्लभ पंत के सामाजिक नाटकों में ' अंगूर की बेटी ' और ' सिन्दूर की बिन्दी ' आदि उल्लेखनीय हैं ।  पृथ्वीनाथ शर्मा जी ने ' दुविधा ' , ' अपराधी ' साध ' आदि सामाजिक नाटकों की रचना की है , जिनमें उन्मुक्त प्रेम , विवाह तथा सामाजिक न्याय से सम्बन्धित विभिन्न प्रश्नों को प्रस्तुत किया है । ' दुविधा ' की नायिका स्वच्छन्द - प्रेम एवं विवाह में से किसी एक को चुनने की दुविधा से ग्रस्त दिखाई गई है । इस युग के अन्य सामाजिक नाटककारों में उदयशंकर भट्ट , हरिकृष्ण प्रेमी , चतुरसेन शास्त्री , रामनरेश त्रिपाठी , डॉ . शंकर शेष , भीष्म साहनी , डॉ . नरेन्द्र मोहन , आदि उल्लेखनीय है ।

गीतिनाट्य 

 इस युग में भावप्रधान अर्थात गीतिनाट्य की रचना भी पर्याप्त संख्या में हुई । इस वर्ग के नाटकों के लिये भाव प्रमुखता के साथ - साथ पद्य का उपयोग भी आवश्यक होता है । आधुनिक युग में रचित हिन्दी का पहला गीतिनाटक जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ' करुणालय ' माना जाता है । इसके अनंतर मैथिलीशरण गुप्त द्वारा अनघ  हरिकृष्ण प्रेमी द्वारा ' बिहान ' उदयशंकर भट्ट द्वारा ' मत्स्यगंधा ' " विश्वामित्र ' और ' राधा ' भगवतीचरण वर्मा द्वारा ' तारा ' आदि  सफल गीतिनाटकों की रचना हुई । गीति नाटकों की इस परम्परा में सुमित्रानन्दन मत के ' रजत शिखर ' और ' शिल्पी ( जिसमें उनके नौ गीति - नाट्य संग्रहित है ) , डॉ . धर्मवीर भारती के ' कल्पान्तर ' , ' दंगा ' और ' राम ' , अज्ञेय का ' उत्तर प्रियदर्शी ' , और दुष्यन्तकुमार के ' एक कंठ विषपायी ' तथा आरसीप्रसाद सिंह के ' मदनिका ' और " घूपछाँव ' , जानकीवल्लभ शास्त्री के पांचाली ' , ' मदन दहन ' , ' गोपा ' , " उर्वशी ' , ' पाषाणी ' , सिध्दनाथ कुमार के ' सृष्टि की साँझ ' , " विकलांगों का देश ' ' लौह युग ' ' संघर्ष ' , केदारनाथ मिश्र ' प्रभात ' के ' स्वर्णोदय ' , ' अंगुलिमाल ' ' संवत ' तथा ' मानव निश्चय ही लोटगा ' आदि विशेष उल्लेखनीय है । 

 प्रतीकवादी नाटक

 प्रतीकवादी नाटकों की परम्परा का उत्थान प्रसाद जी के ' कामना ' नाटक से माना जाता है । इनके अनंतर लिखे गये प्रतीकवादी नाटकों में सुमित्रानन्दन पंत का " ज्योत्सना ' , भगवतीप्रसाद वाजपेयी का छलना ' , सेठ गोविन्ददास का ' नवरस ' , कुमार हृदय का ' नवशे का रंग ' आदि उल्लेखनिय है । आगे चलकर और भी कई लेखकों ने प्रतीकात्मक नाटकों के माध्यम से आधुनिक जीवन की विसंगतियों के उद्घाटन का प्रयास किया है । इस दृष्टि से डॉ . लक्ष्मीनारायण लाल के ' मादाकैक्टस ' . सुन्दर रस ' , ' दर्पन , ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ' शतुर्मुर्ग ' , सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का ' बकरी ' आदि नाटक विशेष उल्लेखनीय है ।

सामाजिक - सांस्कृतिक चेतना के नाटक

 सामाजिक - सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित नाटककारों ने जीवन को व्यापक दृष्टि से देखते हुए उसके विभिन्न अंगों , पक्षों और रूपों का चित्रण सूक्ष्मतापूर्वक किया है , जिसमें व्यक्ति , परिवार , समाज एवं संस्कृति के विभिन्न तथ्यों एवं तत्वों का उद्घाटन सहज ही हो पाया है । विशेषतः आधुनिक युग में उत्पन्न नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों के विघटन सांस्कृतिक पतन की स्थिति से अवगत करवाने की दृष्टि से इस वर्ग के लेखकों का योगदान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इस वर्ग के नाटककारों में जगदीशचन्द्र माथुर , विष्णु प्रभाकर , नरेश मेहता , विनोद रस्तोगी , डॉ . लक्ष्मीनारायण लाल , डॉ . शंकर शेष , भीष्म साहनी , प्रभूति की रचनाएँ आती है । जयदीशचन्द्र माथुर ने ' कोणार्क ' , ' पहला राजा ' , ' दशरथ नंदन ' , आदि नाटकों में आदर्शोन्मुखी दृष्टि से सामाजिक , नैतिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रयास किया है ।  इस वर्ग के प्रमुख नाटककारों में डॉ . लक्ष्मीनारायण लाल का नाम उल्लेखनीय है । उनकी प्रमुख रचनाओं में ' अंधा - कुओं ' ' रातरानी ' , ' दर्पण ' , ' क ' , ' अब्दुल्ला दिवाना ' , ' एक सत्य हरिश्चन्द्र ' , ' मिस्टर अभिमन्यु ' आदि महत्त्वपूर्ण है । विष्णु प्रभाकर ने ' डॉक्टर ' , ' युग - युगे क्रांति ' ' टूटते परिवेश ' आदि नाटकों में पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की कतिपय समस्याओं को चित्रित किया है । नरेश मेहता ने ' सुबह के घण्टे ' में आधुनिक राजनीति विशेषत : दलिय प्रजातंत्र - प्रणाली की विषमताओं का उद्घाटन किया है । साथ ही उन्होंने अपने दूसरे नाटक ' खण्डित यात्राएँ ' में आधुनिक जीवन में टूटते हुए मूल्यों की व्याख्या की है । विनोद रस्तोगी ने अपने नाटक ' नये हाथ ' और ' बर्फ की मीनार ' में क्रमश : जन्मींदारी उन्मूलत के फलस्वरुप उत्पन्न स्थिति एवं आधुनिक परिवार की मनःस्थिति का चित्रण किया है । डॉ . शंकर शेष ने अपने नाटकों में विभिन्न मानव भावनाओं का विश्लेषण करते हुए व्यक्ति , समाज एवं संस्कृति के क्षेत्र में व्याप्त अन्तर्द्वन्द्र को उद्घाटित करने का प्रयास किया है । इस दृष्टि से उनके ' बिन बाती के दीप ' , ' बन्दी ' , ' खजुराहों का शिल्पी ' , ' एक और द्रोणाचार्य उल्लेखनीय है ।

व्यक्तिवादी चेतना के  नाटक

 इस वर्ग के नाटकों में मुख्यत : मोहन राकेश , सुरेन्द्र वर्मा , रमेश बक्षी , मुद्राराक्षस आदि नाटककारों की रचनाएँ आती है । मोहन राकेश ने अपने नाटक ' आषाढ का एक दिन ' ,आधे अधूरे ' में परम्परागत नैतिक मूल्यों  ' लहरों के राजहंस ' , और ' आधे अधूरे ' में व्यक्ति एवं समाज के द्वन्द्र से उत्पन्न कतिपय विभिन्न स्थितियों का चित्रण विभिन्न कथानकों के माध्यम से किया है । ' इनके नाटक रंगमंच एवं शिल्प की दृष्टि से भी अत्यन्त सफल सिध्द हुए है । सुरेन्द्र वर्मा ने ' द्रौपदी ' , ' सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक ' एवं ' आठवाँ सर्ग ' आदि नाटकों में परम्परागत मान्यताओं को चुनौती देते हुए नारी - पुरुष के यौन सम्बन्धों की स्वतंत्रता , वैवाहिक बन्धन की निस्सारता , साहित्य में अश्लीलता आदि के सम्बन्ध में नये दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने की चेष्टा की है । इसी परम्परा को आगे बढाते हुए रमेश बक्षी ने अपने नाटक ' देवयानी का कहना है ' में एक ओर तो वैवाहिक संस्था की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगाया है तो अपने दूसरे नाटक ' तीसरा हाथी ' में दूसरी ओर युवा पीढ़ी के लिए पितृत्व के बोझ को हाथी का बोझ सिध्द किया इस वर्ग के अन्य नाटककार मुद्राराक्षस ने अपने " तिलचट्टा ' नाटक में काम , प्रेम और विवाह के सम्बन्ध में परम्परागत मूल्यों के प्रति विद्रोह किया है , तो दूसरे नाटक ' योर्स फेफुली ' में कार्यालय के बाबू लोगों की यंत्रणा को व्यक्त किया है । निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि इस वर्ग के नाटककारों की दृष्टि मुख्यत : व्यक्ति स्वातंत्र्य , अहं , काम एवं स्वच्छन्द प्रेम सम्बन्धों के चित्रण में ही अधिक केन्द्रित रही जिसके फलस्वरुप परम्परागत मूल्यों एवं आदर्शों का विरोध स्वाभाविक था । 

राजनीतिक  नाटक 

वैसे तो राजनीतिक विषयों को लेकर नाटक लिखने की परम्परा बहुत पुरानी रही है , लेकिन आठवे दशक में ' भारतीय राजनीति में जिस प्रकार तेजी से उतार - चढ़ाव आया उसके प्रभाव से हिन्दी में ऐसे कई नाटक लिखे गये हैं जिसमें समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में तीखा व्यंग्य किया गया है । इनमें एक ओर तो प्रजातंत्र के नाम पर जनता का शोषण करनेवाले उन राजनीतिकों का भंडाफोड किया गया है जो कि चुनाव जीतने के लिए एवं सत्ता की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के पाखण्डों एवं झूठे आश्वासनों का आश्रय ग्रहण करते है तो दूसरी ओर इनमें सत्ताधारी वर्ग के द्वारा किये जानेवाले दुराचार , भ्रष्टाचार एवं अनाचार का मी चित्रण स्पष्ट रुप में किया गया है । आधुनिक युग में राजनीतिक नेताओं के आदर्शों , मूल्यों एवं विश्वासों के पतन का एक रोचक चित्र इन नाटककारों ने अपनी - अपनी दृष्टि से प्रस्तुत किया है । इनमें दया प्रकाश सिन्हा के इतिहास चक्र ' , एवं ' कथा एक कंस की विपिन अग्रवाल का ' ऊँची - नीची टाँग का जांचिया ' , हमीदुल्ला का ' समय - संदर्भ गिरिराज किशोर का ' प्रजा ही रहने दो ' , सुशीलकुमार सिंह का ' सिंहासन खाली है ! ' मणि मधुकर का ' रस - गंधर्व ' , ज्ञानदेव अग्निहोत्री का ' शुतुरमुर्ग ' , सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का ' बकरी , भीष्म साहनी के हानश ' तथा ' कविरा खड़ा बाजार में आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । वादी

नारीवादी नाटक 

इस वर्ग के नाटककारों ने नारी वर्ग की विभिन्न समस्याओं को भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है । इस दृष्टि से हमीदुल्ला का ख्याल मारमली ' , विष्णु प्रभाकर का ' अब और नहीं ' गिरिराज किशोर का ' केवल मेरा नाम लो ' भीष्म साहनी का ' माधवी ' मुदूला गर्ग का एक और अजनबी ' आदि नाटक विशेष उल्लेखनीय है । ' ख्याल भारमली ' नाटक की मूल समस्या नारी के शोषण से सम्बन्धित है , जिनमें दो स्तरों पर जातिगत अन्याय एवं वर्ग संघर्ष को उठाया गया है । अब और नहीं नाटक मानवीय संवेदनाओं से संपन्न है । इसमें नारी जीवन की विसंगतियों का चित्रण करते हुए यह बताया गया है कि उसके जीवन की सार्थकता अपने व्यक्तित्व के स्वतंत्र एवं सार्थक तलाश में है न कि आत्म समर्पण और निर्भरता में । ' केवल मेरा नाम लो ' में पिता - पुत्री के सम्बन्धों की मनोवैज्ञानिक ग्रन्थी का उद्घाटन पाश्चात्य परिवेश के अनुरूप किया है । ब्रजकिशोर श्रीवास्तव के ' नींद की दरारे ' नाटक में संयुक्त परिवार के टूटन की कहानी चित्रित है । मीष्म साहनी के ' माधवी ' नाटक में युगों - युगों से शोषित नारी को वाणी देने का प्रयास किया है ।

व्यंग्य नाटक

इस वर्ग के नाटककारों में शरद जोशी तथा डॉ . विनय के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । शरद जोशी ने अंधों का हाथी ' , एवं ' एक था गधा उर्फ अलदाद खाँ नाटक के द्वारा तथा डॉ . विनय ने ' पहला विद्रोह ' और ' इन्हें जानते हैं आदि के द्वारा व्यंग्य नाटकों की परम्परा को आगे बढ़ाया है । इसके अतिरिक्त नवें दशक में कुछ महिला नाटककारों ने भी हिन्दी नाटक को अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं । इनमें डॉ . कुसुम कुमार , मृणाल पाण्डे , त्रिपुरारी शर्मा , शांति मेल्होत्रा , मन्नु भंडारी , मृदूला गर्ग आदि विशेष रुप से उल्लेखनीय है । इन नाटकों में डॉ.कुसुम कुमार के " दिल्ली उँचा सुनती हैं , ' संस्कार को नमस्कार ' और ' रावण लीला ' आदि महत्वपूर्ण है मृणाल पाण्डे के ' आदमी जो मछुआरा नहीं था ' , ' चोर निकल भागा ' , ' मुक्ति पथ ' ' मौजुदा हालात को देखते हुए ' तथा त्रिपुरारी शर्मा के ' बहू ' , ' बाढ की गाडी , बांझ घाटी ' , " रेशमी रुमाल , शांति मेहलोत्रा का एक और रिल , मन्नु भंडारी का ' महाभोज ' और मृदुला गर्ग का ' एक और अजनबी ' उल्लेखनीय है । 
इस प्रकार हिन्दी नाटक का विकास अनेक रूपोंओं अनेक दिशाओं में हुआ है । अपने युग और समाज की नवीनतम स्थितियों , परिस्थितियों , संवेदनाओं और अनुभूतियों को व्यंजित करने की दृष्टि से हिन्दी नाटक पूर्ण सक्षम एवं सफल है ।
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1 comments:

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S pareek
admin
20 जून 2020 को 10:45 pm बजे

Bahut achaa

Congrats bro S pareek you got PERTAMAX...! hehehehe...
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उत्साहवर्धन के लिये धन्यवाद!
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