गजानन माधव मुक्तिबोध Gajanan Madhav Muktibodh

 गजानन माधव मुक्तिबोध
Gajanan Madhav Muktibodh 

(13 नवंबर 1917 – 11 सितंबर 1964) 

गजानन माधव मुक्तिबोध


गजानन माधव मुक्तिबोध का जन्म 13 नवम्बर , 1917 को ग्वालियर के श्योपुर कस्बे में हुआ । इनके पिता माधवराव एक निर्भीक एवं दबंग पुलिस अधिकारी थे । इनकी माँ पार्वतीबाई हिन्दी के वातावरण में पली - बढ़ी एक समृद्ध कृषक परिवार की धार्मिक , स्वाभिमानी एवं भावुक महिला थीं । मुक्तिबोध पर माता - पिता के स्वभाव और विशेषताओं का प्रभाव पड़ा । बाल्यकाल की अतिरिक्त देखरेख व प्राप्त महत्त्व ने इन्हें एक ओर तो हीन ग्रंथि से मुक्त रखा और दूसरी और इनका आत्माभिमान , गर्व तथा अपनापन जीवन की विषम परिस्थितियों में भी कायम रहा । पिता के पुलिस विभाग में होने के कारण मुक्तिबोध की प्रारम्भिक शिक्षा अत्यन्त अस्त - व्यस्त ढंग से सम्पन्न हुई । पिता के बार - बार तबादले से मुक्तिबोध का शिक्षा क्रम टूटता - जुइता रहा और इसी टूटने - जुड़ने के फलस्वरूप मुक्तिबोध को उज्जैन में दी गयी मिडिल परीक्षा में असफलता का मुंह देखना पड़ा जिसे सन् 1943 में इन्होंने तारसप्तक ' के वक्तव्य में अपने जीवन की पहली महत्त्वपूर्ण घटना घोषित कियासन 1939 में इन्होने शांता जी से प्रेम विवाह किया। 

मुक्तिबोध का लेखन सन् 1935 से माधव कॉलेज , उज्जैन से प्रारम्भ हुआ तथा मृत्युपर्यन्त चलता रहा । इनकी प्रारम्भिक रचनाएं माखनलाल चतुर्वेदी दवारा सम्पादित ' कर्मवीर ' में प्रकाशित हुई  । यहीं से मुक्तिबोध के साहित्यिक जीवन की शुरुआत होती है । वस्तुत : 1938 से 1942 तक का समय मुक्तिबोध की बौद्धिक चेतना सर्वांगीण विकास का समय है । सन् 1943 आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्वपूर्ण वर्ष है जब ' तारसप्तक ' के प्रकाशन से एक नयी काव्य - चेतना का प्रस्फुटन हुआ। जिसमें अन्य छह कवियों के साथ - साथ मुक्तिबोध की 16 कविताएँ प्रकाशित हुई । साथ ही उनकी साहित्य सम्बन्धी मान्यताएँ भी वक्तव्य के अन्तर्गत पढ़ने को मिलीं । वक्तव्य में उन्होंने अपनी काव्य प्रेरणा की ओर संकेत करते हुए लिखा है- 

" मेरे बालमन की पहली भूख सौंदर्य और दूसरी विश्व मानव का सुख - दुख , इन दोनों का संघर्ष मेरे साहित्यिक जीवन की पहली उलझन थी।”

विश्व मानव के सुख - दुख की ओर गयी उनकी दृष्टि उन्हें क्रमश : मार्क्सवाद की और ले गयी और उनका झुकाव मार्क्सवाद की ओर हुआ जिसे वे पहले विरोधी शक्ति मानते थे । तारसप्तक के महत्त्व को अंकित करते हुए शमशेर बहादुर सिंह लिखते हैं कि " उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सबसे प्रौढ़ चाहे न हो , मगर शायद सबसे मौलिक था । दुरूह होते हुए भी बौद्धिक , बौद्धिक होते हुए भी रोमानी । मुक्तिबोध के मन में भी तारसप्तक की कविताओं के प्रति अनन्य निष्ठा थी । वे खुद सोचते थे कि उनकी आरम्भिक कविताओं के ' थीम्स ' में ताजगी और ओजपूर्णता अधिक है , उन कविताओं की तुलना में विशेषकर , जो बाद के वर्षों में लिखी गयी हैं । " 

सन् 1942 में मुक्तिबोध शुजालपुर छोड़कर उज्जैन लौट आये थे और सन् 1945 तक वहाँ रहे । इन तीन वर्षा के अन्तराल में इन्होंने ' मध्यभारत प्रगतिशील लेखक संघ ' की स्थापना करके मध्यभारतीय प्रतिभाओं को विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित किया । 1945 में मुक्तिबोध ' हंस ' के सम्पादकीय विभाग में शामिल होने के लिए बनारस आ गये , किन्तु अधिक समय तक वहीं बने न रह सके । सन् 1946-47 के लगभग जबलपुर चले गये । यहाँ पर भी वे लम्बे अर्से तक नहीं रह सके । सन् 1948 के आसपास वे नागपुर चले गये । नागपुर - प्रवास के दौरान मुक्तिबोध ने अपनी कई महत्त्वपूर्ण रचनाएँ पूरी की । ये दिन आर्थिक विपन्नता की दृष्टि से भी बड़े कष्टपूर्ण थे । बढ़ती हुई महँगाई , छोटी नौकरी और परिवार में बढ़ते सदस्यों के बीच मुक्तिबोध अनेक प्रकार के कष्टों से जूझते रहे । इन्हीं दिनों ' कामायनी ' पर उन्होंने अपनी युगान्तरकारी समीक्षा लिखी , जो ' कामायनी : एक पुनर्विचार ' शीर्षक से प्रकाशित हुई । नागपुर से प्रकाशित होने वाले स्वामी कृष्णानन्द के नया खून का सम्पादन भी मुक्तिबोध ने किया और उसे एक साप्ताहिक पत्र मात्र ही न रखकर एक संस्था बना दिया । इसके साथ ही जबलपुर की ' वसुधा ' में उनकी ' एक साहित्यिक की डायरी ' धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हो रही थी । ' कामायनी : एक पुनर्विचार ' और उनकी डायरी ने मुक्तिबोध को हिन्दी समीक्षा के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाया । 

इन्होंने 1954 में नागपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. दवितीय श्रेणी में पास किया ताकि इनको अध्यापक वृत्ति मिल सके । इनके मन में प्राध्यापन कार्य के लिए मोह था और सन् 1958 में एम.ए. करने के लगभग चार साल बाद मुक्तिबोध की यह इच्छा पूरी हुई । वे राजनांदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में प्राध्यापक हो गये जहाँ वे मृत्युपर्यन्त कार्य करते रहे । ये हिन्दी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक, निबंधकार, कहानीकार तथा उपन्यासकार थे। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।

1962 में उनकी पुस्तक ' भारत : इतिहास और संस्कृति प्रकाशित हुई जिस पर मध्यप्रदेश सरकार ने प्रतिबध लगा दिया । इस घटना से मुक्तिबोध को बड़ा झटका लगा । इस घटना ने इनमें भय और असुरक्षा की भावना भर दी । ये आशंकाग्रस्त होते चले गये । इन्हें लगता था कि जैसे कोई षड्यंत्र उन्हें घेर रहा है । ' अँधेरे में ' का रचनाकाल भी यही है । 17 फरवरी , 1964 को मुक्तिबोध को पक्षाघात का भीषण आघात सहना पड़ा । पक्षाघात से पीड़ित मुक्तिबोध राजनोंद गाँव से भोपाल के हमीदिया अस्पताल में भर्ती किये गये , किन्तु 1964 में उनकी हालत और बिगड़ गयी । ये लगातार बेहोश रहने लगे । बेहोशी की हालत में ही इन्हें दिल्ली लाया गया दिल्ली के ऑल इण्डिया मेडीकल इन्सटीट्यूट में इनकी चिकित्सा हुई पर बेहोशी का क्रम नहीं टूटा और 11 सितम्बर , 1964 की रात मुक्तिबोध की बेहोशी चिरनिद्रा में बदल गयी

 डॉ . नामवरसिंह का यह कथन मुक्तिबोध के संदर्भ में सटीक है- " मुक्तिबोध उन कवियों में से हैं जो अपने युग के सफल कवि नहीं , बल्कि सार्थक कवि कहलाने योग्य हैं । "

 प्रमुख रचनाएं

मुक्तिबोध तारसप्तक के पहले कवि थे। मनुष्य की अस्मिता, आत्मसंघर्ष और प्रखर राजनैतिक चेतना से समृद्ध उनकी कविता पहली बार 'तार सप्तक' के माध्यम से सामने आई, लेकिन उनका कोई स्वतंत्र काव्य-संग्रह उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाया। मृत्यु के पहले श्रीकांत वर्मा ने उनकी केवल 'एक साहित्यिक की डायरी' प्रकाशि‍त की थी, जिसका दूसरा संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ से उनकी मृत्यु के दो महीने बाद प्रकाशि‍त हुआ। ज्ञानपीठ ने ही 'चाँद का मुँह टेढ़ा है' प्रकाशि‍त किया था। इसी वर्ष नवंबर 1964 में नागपुर के विश्‍वभारती प्रकाशन ने मुक्तिबोध द्वारा 1963 में ही तैयार कर दिये गये निबंधों के संकलन नयी कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध' को प्रकाशि‍त किया था। बाद के वर्षो में भारतीय ज्ञानपीठ से मुक्तिबोध के अन्य संकलन 'काठ का सपना', तथा 'विपात्र' (लघु उपन्यास) प्रकाशि‍त हुए। पहले कविता संकलन के 15 वर्ष बाद, 1980 में उनकी कविताओं का दूसरा संकलन 'भूरी भूर खाक धूल' प्रकाशि‍त हुआ और 1984 में 'राजकमल' से पेपरबैक में छ: खंडों में 'मुक्तिबोध रचनावली' प्रकाशि‍त हुई, वह हिंदी के इधर के लेखकों की सबसे तेजी से बिकने वाली रचनावली मानी जाती है। कविता के साथ-साथ, कविता विषयक चिंतन और आलोचना पद्धति को विकसित और समृद्ध करने में भी मुक्तिबोध का योगदान अन्यतम है। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्न हैं - 

काव्य संग्रह

 चाँद का मुँह टेढ़ा है – 196

भूरी-भूरी खाक धूल – 1980, 

निबंध व समालोचना

नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध-1964

एक साहित्यिक की डायरी- 1964

कामायनी: एक पुनर्विचार- 1973

समीक्षा की समस्याएं-1982

कहानी संग्रह 

काठ का सपना -1967

सतह से उठता आदमी-1970

प्रमुख कहानियां 

काठ का सपना

क्‍लॉड ईथरली

जंक्‍शन

पक्षी और दीमक

प्रश्न

ब्रह्मराक्षस का शिष्य

उपन्यास

विपात्र -1970

मुक्तिबोध रचनावली, नेमिचंद्र जैन द्वारा संपादित, (6 खंड)-1980

साहित्यिक विशेषताएं

 ' तारसप्तक ' के प्रकाशन काल तक छायावादी काव्यान्दोलन समाप्तप्राय : हो चला था । प्रगतिवाद एक प्रभावशाली साहित्य - आंदोलन के रूप में महत्त्वपूर्ण होता जा रहा था । मुक्तिबोध इसी कालखंड के महत्वपूर्ण कवि हैं । मुक्तिबोध की काव्य - संवेदना में दो प्रकार की प्रतिक्रियाएँ परिलक्षित होती हैं - एक तो यह कि पूँजीवादी समाज की धनलिप्सा के प्रति उनके मन में घृणा भर गयी है , दूसरी ओर कड़े जीवन - संघर्ष में मिलने वाली असफलताओं के कारण उनके मन में एकाकीपन की प्रवृत्ति घर कर गयी है । जिस गहरे असंतोष की ज्वाला ' की चर्चा मुक्तिबोध ने तारसप्तक में की है , वही असंतोष ' चाँद का मुँह टेढ़ा है की कविताओं में पूरी तरह उभरकर आया है । तारसप्तक के कवियों में अकेलेपन का भाव सबसे ज्यादा मुक्तिबोध में ही है , किन्तु मुक्तिबोध की काव्य - संवेदना यही आकर ठहरती नहीं है । उसमें हताशा का भाव अवश्य है , किन्तु उसमें आस्था व समर्पण का स्वर भी सुनाई देता है । प्रत्येक मनु के पुत्र पर विश्वास करने वाला व्यक्ति हताश नहीं हो सकता है , मुक्तिबोध के व्यक्तित्व में भी एक ऐसी अदम्यता है जो उन्हें निरन्तर तराशती रहती है तथा उनका मन विपरीत परिस्थितियों से टकराकर भी टूटता नहीं है और न ही कोई समझौता करता है । उसमें एक दृढ़ संकल्प की आस्था सदैव विद्यमान रहती है । मुक्तिबोध एक ऐसे कवि हैं जो सदैव अपनी प्रेरणा के प्रति समर्पित होते हैं या कहें कि उनका ही होना चाहते हैं जिनसे वे अपनी कविता के लिए रूप - भाव ग्रहण करते हैं । सामान्य जन के प्रति समर्पित मुक्तिबोध की यह निष्ठा ही उन्हें प्रगतिशील जनकवि का दर्जा दिलाती है । इसी निष्ठा के बल पर मुक्तिबोध ओढ़ी हुई पीड़ा और करुणा को सतही चीजें मानते हैं जो उनके हृदय पर भार ही छोड़ती है । कवि इस बनावटी दृष्टिकोण से मुक्त होना चाहता है । इन निरर्थक भावनाओं से वह कुछ सार्थक स्थितियों की खोज करना चाहता है और इस खोज के लिए मुक्तिबोध के ' सतत अन्वेषी ' प्राण तैयार भी हैं 

  • अर्थ खोजी प्राण ये उद्दाम है 
  • अर्थ क्या ? यह प्रश्न जीवन का अमर
  • क्या तृषा मेरी बुझेगी इस तरह ? 
  • अर्थ क्या ? ललकार मेरी है प्रखर । 

नये अर्थ को प्राप्त करने की यह चाह ही मुक्तिबोध की काव्य - संवेदना को निरन्तर प्रवाह देती हुई ' चाँद का मुँह टेढ़ा है ' में अभिव्यक्ति के खतरे उठाने तक ले जाती है । मुक्तिबोध की तारसप्सक की कविताओं में व्यक्ति की तुच्छता और नगण्यता के साथ ही साथ क्षण की महत्ता का उद्घोष भी मिलता है । वस्तुतः मुक्तिबोध मानवीय संवेदना से परिचालित ऐसे मानवतावादी कवि हैं जो मानव के सुख - दुख , प्रताड़ना , उत्पीड़न , निराशा , टूटन आदि को अपने काव्य में व्यक्त करके ही नहीं रह जाते , अपितु वे उनरने मानव की मुक्ति के लिए मार्ग भी खोजते दिखाई पड़ते हैं । यह मुक्तिबोध की काव्य - संवेदना का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है । मुक्तिबोध समाज के सभी वर्गों की गतिविधियों , भावनाओं तथा आकांक्षाओं का विश्लेषण करने वाले कवि हैं । साधारण से साधारण व्यक्ति के आन्तरिक मनोभावों को समझने में मुक्तिबोध का कवि पूर्णत : समर्थ और निष्ठावान है । उनकी सहानुभूति सदैव निम्न से निम्नतर वर्ग के व्यक्ति को अपनी बाँहों में समेटती रही तथा खुद भी उनकी बाँहों में सिमटना उन्हें रुचिकर लगता है 

  • विशाल श्रमशीलता का जीवन्त
  •  मूर्तियों के चेहरे पर 
  • झुलसी हुई आत्मा की अनगिन लकीरें
  • मुझे जकड़ लेती हैं अपने में , अपना सा जानकर 
  • बहुत पुरानी किसी निजी पहचान से ' 

चाँद का मुँह टेढ़ा है में संगृहीत मुक्तिबोध की ' मुझे याद आते हैं ' कविता तारसप्तक की ' मैं उनका होता ' कविता का सार्थक विस्तार प्रतीत होती है । ' मैं उनका होता ' कविता में मुक्तिबोध अपनी प्रेरणा के प्रति विनत हो जाते हैं

  • मैं उनका ही होता , जिनसे मैंने भाव रूप पाये हैं 
  • वे मेरे लिए ही बँधे हैं जो मर्यादाएँ लाये हैं 
  • मेरे शब्द , भाव उनके हैं । 

मुक्तिबोध की काव्य - निष्ठा का स्त्रोत सामान्य जन की कर्मठता और श्रमशीलता में है वे सर्वहारा वर्ग में अपने सर्जन की शक्ति ग्रहण करते हैं और उन्हीं की आत्मा का दर्द संघर्ष के लिए प्रेरित करता है । आधुनिक सभ्यता की विसंगति और विद्रूपता से भी मुक्तिबोध भली भाँति परिचित हैं । ' चाँद का मुँह टेढ़ा है की कई कविताओं में मुक्तिबोध ने इस छद्म आधुनिकीकरण पर भरपूर व्यंग्य किया है । अपनी अधिकांश कविताओं में मुक्तिबोध आत्मशोधन करते पाये जाते हैं । वस्तुत : प्रकृति से मुक्तिबोध आत्मान्वेषी कवि हैं और इस आत्मान्वेषण की प्रक्रिया की स्पष्ट अभिव्यक्ति हमें ' चाँद का मुँह टेढ़ा है की अनेक कविताओं जैसे- ' दिमागी गुहान्धकार का औरांग उटॉग , ' ब्रह्मराक्षस ' , ' लकड़ी का बना रावण ' , ' एक अन्तर्कथा ' , ' अँधेरे में आदि में मिलती है । मुक्तिबोध की काव्य संवेदना का प्रसार सामान्य से सामान्य व्यक्ति की वेदना को सहेजता चलता है । यही कारण है कि उन्हें ' संत् चित् वेदना ' का कवि कहा जाने लगा । उनकी कविताओं में पहली बार निम्न मध्यवर्गीय जीवन का समग्र चित्रण हुआ है । निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के आदर्श और यथार्थ में होने वाला संघर्ष उनकी कविता का केन्द्रीय कथ्य है । मध्यवर्ग जो है और जो होना चाहता है , इसी का द्वन्द् उनकी अनेक कविताओं में मुखरित हुआ है । 

मानव और समाज को सुखी और शोषणमुक्त देखने के लिए मुक्तिबोध सभी कुछ समेट लेना चाहते हैं । इसी कारण उनकी काव्य संवेदना में अन्तर्विरोध दिखाई पड़ता है , लेकिन अन्तर्विरोधों के रहते हुए भी कवि महान हो सकता है , बशर्ते कि वह अपने अन्तर्विरोधों को पहचाने और उन्हें दूर करने का प्रयास करे । वस्तुतः संघर्ष में विश्वास करने वाले कवि मुक्तिबोध की काव्य - संवेदना आलोकमयी है । उसमें नवनिर्माण की आकांक्षा है , विश्वास भी है । अत : मुक्तिबोध की काव्य संवेदना में लक्षित होने वाले अन्तर्विरोध भी सर्जनात्मक धरातल पर आधारित होते हैं । अन्तर्विरोधों की यह सर्जनात्मकता ही मुक्तिबोध की काव्य संवेदना को अनुभूति की नयी तराश प्रदान करती है और उसका सम्बन्ध जन - मन से जोड़ देती है ।

  • गंध के सुकोमल मेघों में डूबकर 
  • प्रत्येक वृक्ष से करता हूँ पहचान 
  • प्रत्येक पुष्प से पूछता हूँ हाल – चाल
  • प्रत्येक लता से करता हूँ सम्पर्क

मुक्तिबोध मूलत : फैन्टेसी के कवि हैं । उनके लिए फैन्टेसी सृजन - प्रक्रिया की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है । वे यह मानते हैं कि जीवन के वास्ता कि अनुभव - क्षणों को फैन्टेसी के माध्यम से ही कविता में व्यक्त किया जा सकता है । स्वयं मुक्तिबोध भी फैन्टेसी के माध्यम से अपने परिवेश की भयानकता तथा मनुष्य की समूची हालत को व्यक्त करते हैं । वे स्वयं को फैन्टेसी में विचरण करता हुआ - सा पाते हैं 

  • मैं विचरण करता - सा हूँ एक फैन्टेसी में 
  • यह निश्चित है कि फैन्टेसी कल वास्तव होगी । 

डॉ . रामविलास शर्मा ने उन पर रहस्यवाद और अस्तिस्त्स्ववाद क प्रभाव लक्षित किया है और मानते हैं कि मुक्तिबोध रहस्यवाद - अस्तिस्त्ववाद के साथ मार्क्स वाद के समन्वय का प्रयास करते हैं , किन्तु आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते है “उन्हें सन्तुलित मार्क्सवादी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि मार्क्सवादियों का तटस्थ दर्शन और विवेचन उनके काव्य की विशेषता नहीं है । वे अन्ततः वैयक्तिक प्रतिक्रियाओं के अभिव्यंजक कवि हैं । " 

भाषा 

मुक्तिबोध की तारसप्तक में संकलित आरम्भिक कविताओं की भाषा पर छायावादी व छायावादोत्तर काव्यभाषा का संस्कार स्पष्टत : परिलक्षित होता है , किन्तु यह प्रभाव केवल रूप के स्तर तक ही है , भाषा की आन्तरिक बुनावट से उसकी गहरी सम्पृक्ति नहीं है । वस्तुत : मुक्तिबोध की काव्य - भाषा विकसनशील रही है । वह विभिन्न प्रभावों से मुक्त होती हुई अपना विशिष्ट स्वरूप प्राप्त करने मैं सफल हुई है । तत्सम शब्दों का बहुप्रयोग छायावादी पदावली की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है । मुक्तिबोध की प्रारम्भ की कविताओं में यह प्रभाव बहुतायत से दृष्टिगत होता है । तारसप्तक में संकलित मुक्तिबोध की कविताओं में अनेक ऐसे शब्द मिल जायेंगे जिनका प्रयोग छायावादी कवि निरन्तर अपनी कविताओं में कर रहे थे । मुक्तिबोध ने भी वे शब्द लगभग उसी अर्थ में लिए हैं । 

मुक्तिबोध की काव्य - भाषा के हमें कई स्तर प्राप्त होते हैं ।इनकी काव्य - संवेदना की प्रकृति विकसनशील होती है । फलत : काव्य - संवेदना के भाषिक रूपान्तरण की प्रक्रिया में भाषा भी तदनुरूप अपना आकार - प्रकार बदल लेती है । मुक्तिबोध की काव्य संवेदना भी निरन्तर परिष्कृत होती रहती है । अत : उनकी भाषा के कई स्तर होना स्वाभाविक है । मुक्तिबोध की प्राणवान काव्यभाषा उनके प्राणवान कथ्य की प्रतिध्वनि है । शब्द चयन की दृष्टि से मुक्तिबोध की काव्य - भाषा में विविधता तो है , किन्तु उसमें ऊबइखाबड़पन भी है । बोलचाल के साधारण शब्द - प्रयोगों के बीच में कभी - कभी ऐसे अजनबी , समासबद्ध संस्कृतनिष्ठ शब्द आ जाते हैं कि जबान लड़खड़ाने लगती है , फिर भी भाषा कहीं पर भी उधार ली हुई व बोझिल प्रतीत नही होती ।

बिम्ब-प्रतीक

मुक्तिबोध के बिम्बों में उनकी काव्य - संवेदना की द्वन्द्वात्मकता पूर्ण रूप से मूर्त हुई है । मुक्तिबोध की सृजन - प्रक्रिया में परस्पर विरोधी विचारधाराओं का द्वन्द्व निहित रहता है । इसी कारण उनके शब्द भी द्वन्द्वात्मकता को मूर्त करने के लिए इस । ही भंगिमा धारण कर लेते हैं | प्रकृति सम्बन्धी अनेक बिम्ब मुक्तिबोध के काव्य में सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं । मुक्तिबोध को पहाड़ , पठार , गुफाएँ आदि विशेष रूप से प्रिय हैं । अत : ये बिम्ब उनके काव्य में बराबर प्रयुक्त हुए हैं । मुक्तिबोध के बिम्बों में आदिम जीवन के उपकरणों की आवृत्ति विशेष रूप से द्रष्टव्य है । उनकी कविताओं में बरगद , भैरों , परित्यक्त सूनी बावड़ी , घुग्घू , चमगादड़ आदि के बिम्बों की अनेक बार आवृत्ति हुई है ।

मुक्तिबोध की प्रतीक योजना अत्यन्त संश्लिष्ट , सुविचारित और गहरी अर्थवत्ता से अनुप्राणित है । इन प्रतीकों के माध्यम से मुक्तिबोध जहाँ अपने कथ्य को अधिक स्पष्ट और ठोस बनाते हैं , वहीं उसमें एक अजब रहस्यात्मक सांकेतिकता का समावेश भी कर देते हैं जिसके फलस्वरूप उनका काव्य - शिल्प अधिक पैना और धारदार बन गया है । अधिक मूर्त और सूक्ष्म भी इनके भाषिक रूपान्तरण की प्रक्रिया को पूर्णता के साथ सम्पन्न करने में सफल हुए हैं । 

मुक्तिबोध के लिए प्रतीक उनके काव्य - शिल्प का एक उपादान मात्र नहीं है , बल्कि उनकी संवेदना प्रतीकों के माध्यम से ही अभिव्यक्ति पाती है । लकड़ी का बना रावण ' शीर्षक कविता में मुक्तिबोध अहंग्रस्त व्यक्तित्व की खोखली , निस्सार महानता का निदर्शन करने के लिए लकड़ी , बाँस व कागज के पुढे से बने रावण का प्रतीकात्मक प्रयोग करते हैं । रावण की तरह अहं की पराकाष्ठा पर पहुँचा व्यक्ति अपने निजी संसार में इतना महान , इतना विराट हो जाता है कि वह अपने को असीम , सर्वशक्तिमान समझने लगता है , लेकिन उसकी स्थिति लकड़ी से बने रावण की तरह होती है जो भूमि पर गिरने के लिए जड़ होकर खड़ा रहता है । इसी तरह ' इबता चाँद कब डूबेगा ' कविता में मुक्तिबोध ने अनेक पौराणिक कथाओं व ऐतिहासिक घटनाओं का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है जिससे कविता की अर्थवत्ता में वृद्धि हुई है । इनके अतिरिक्त मुक्तिबोध के काव्य में अक्षय वट , तक्षक , पन्ना दाई , युगवीर शिवाजी आदि के पौराणिक व ऐतिहासिक संदर्भो का प्रतीकात्मक प्रयोग हुआ है । उनकी प्रसिद्ध कविता ' अँधेरे में में अनेक नवीन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है , जिनमें अँधेरा रक्तालोक स्नात पुरुष , शिशु , सूरजमुखी फूल के गुच्छे , अरुण कमल आदि प्रमुख हैं । कविता में अँधेरा अनेक चीर्जा का प्रतीक है । इसी तरह मुक्तिबोध ने ' ब्रह्मराक्षस ' कविता में औरांग उटांग आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है । मुक्तिबोध की प्रतीक - सृष्टि विस्तृत और सार्थक है । एक ही प्रतीक कई - कई स्थानों पर कई - कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है , किन्तु उसमें एकरसता या अर्थ का दोहराव नहीं है।

छन्द

मुक्तिबोध की कविता संगीत का निषेध करती है , अत : उनके छन्द में यति- गति का निर्वाह अधिकांशत : नहीं मिलता है । यों तो नयी कविता छन्द को तोड़ने में विश्वास करती है , किन्तु मुक्तिबोध को छोड़कर अधिकांश नये कवियों ने छन्द की लयात्मकता का निर्वाह किया है । मुक्तिबोध ने अपने छन्द - निर्माण का कार्य भाषा की नाटकीयता से किया है । उनकी कविताएँ संगीतात्मक न होकर नाट्यात्मक हैं । उनकी तारसप्तक की कविताओं में अवश्य ही छन्दोबद्धता दष्टिगत होती है ।

फैंटेसी 

मुक्तिबोध की काव्य - कला फैन्टेसी पर आधारित है । बाह्य यथार्थ के सम्पर्क से कवि के हृदय में जो प्रतिक्रिया होती है , उसमें कल्पना के योग से मुक्तिबोध ऐसे चित्र खड़ा करते हैं जिनमें अद्भुत और विलक्षणता का रोमांचक योग रहता है । मुक्तिबोध की कविताओं में मिलने वाला वातावरण बड़ा ही फैन्टेस्टिक है । वे अपनी कविताओं की विशाल पटभूमि पर भयानक रहस्यमत्यता से भरपूर दिल दहला देने वाली फैन्टेसी की सजीव सर्जना बड़ी बारीकी से करते हैं तथा उसमें अपने विचारों की लड़ियाँ बड़ी कुशलता से पिरो देते हैं । ' ब्रह्मराक्षस ' और ' अँधेरे में ' कविताएँ उनकी सफल फैन्टेसी की सृजन क्षमता की उत्कृष्ट उदाहरण हैं । जितना प्रखर यथार्थबोध , उतनी ही सशक्त फैन्टेसी की रचना ।

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