बेनेदेतो क्रोचे का अभिव्यंजना सिद्धान्त
Benedetto Crove’s Expression Theory
जीवन परिचय
क्रोचे का जन्म इटली के नेपल्स नगर में सन् 1866 ई . में हुआ था । ये विश्व के प्रख्यात सौन्दर्यशास्त्री माने गये । इनकी पुस्तक एस्थेटिका ( Esthetica ) 1901 में प्रकाशित हुई । क्रोचे के कोलम्बिया विश्वविद्यालय ने इस मौलिक ग्रंथ पर स्वर्णपदक दिया । ये इंटोलिवन गवर्नमेंट के शिक्षामंत्री रहे । कई विश्वविद्यालयों ने इन्हें व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया । इनका देहांत 1952 ई . में हुआ । अभिव्यंजना के प्रवर्तक क्रोचे न केवल एक कला मीमांसक अपितु एक गंभीर तत्ववेता दार्शनिक भी थे । इन्होंने इतिहास के स्वरूप , सौन्दर्यशास्त्र , मार्क्सवादी अर्थ - व्यवस्था , आत्म - दर्शन आदि अनेक विषयों पर नवीन दृष्टिकोण से विचार किया । सन् 1900 में इन्होंने एक गोष्ठी में एक लेख- " Fluxlamental thesis of an aesthetica as science of expression and general linguistics " पढ़ा था । यही लेख इनके अभिव्यंजनावादी विचारों का मूलाधार बना । आगे चलकर इन्होंने इस संबंध में कुछ लेख और लिखे तथा एक लेख ' एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका ' में भी दिया - इन सबसे इनकी प्रसिद्धि चारों ओर हो गई । इनका कला संबंधी प्रख्यात ग्रंथ थ्योरी आफ एस्थटिक ' ( सौन्दर्यशास्त्र ) के नाम से प्रकाशित हुआ , जो अब विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुका है । जिसका व्यापक प्रभाव 20 वीं शती के पूर्वाद्ध के दशकों में काव्य और समीक्षा के क्षेत्र पर पड़ा । क्रोचे का ग्रन्थ यों तो सौन्दर्य शास्त्र का ग्रंथ है , पर इससे कला और काव्य की देख - परख की एक नयी दृष्टि प्राप्त होती है । इसमें संदेह नहीं कि क्रोचे ने इसका प्रतिपादन अपने समय के पूर्व सभी काव्यशास्त्रीय और सौन्दर्यशास्त्रीय दर्शनों का अध्ययन करके किया तथा इसमें बड़े - बड़े विचारकों जैसे हीगेल , बौमागाटिन , काण्ट आदि के विचारों का समावेश किया । इन्होंने न तो कला संबंधी केवल वस्तुवादी मान्यताओं को स्वीकार किया है और न शुद्ध रूपवादी मान्यताओं को ही । इनके विचार से वस्तु और रूप कुल मिलाकर एक हो जाते हैं , तब कला का जन्म होता है इसका उद्भव सहज ज्ञान या इन्टयशन है जिसकी अभिव्यंजना ही कला है । क्रोचे के इस सिद्धांत की व्यापक प्रतिक्रिया हुई । अनेक शकायें और प्रश्न उठाये गये । तथा अनेक भ्रांत स्थापनायें भी की गयी है । इन सबका उत्तर क्रोचे ने अपने लिखित भाषणों में दिया है जो एसेन्स आफ एस्थेटिक ' Essence of Aesthetic के रूप में ' डगलस ऐन्सेली के द्वारा अनुवादित कर प्रकाशित किये गये हैं और जो ' टेक्सज के राइस इस्टीच्यूट आफ होस्टन ( Rice Institute of Houston of Texas ) के उद्घाटन -व्याख्यान के लिए सन 1912 में लिखे गये थे ।
एसेन्स एस्थेटिक ' में चार व्याख्यान हैं –
- कला क्या है
- कला के संबंध में पूर्वाग्रह
- सानवात्मा और मानव - समाज में कला का स्थान तथा
- आलोचना और कला का इतिहास ।
क्रोचे का सिद्धान्त
क्रोचे एक प्रभावशाली और मौलिक चिंतक थे । इनका कला और काव्यविषयक चिंतन शुद्ध सौन्दर्य -दर्शन है । इन्होंने बड़ी बारीकी के साथ कविता और कला की रचना - प्रक्रिया को स्पष्ट किया है । इनका विचार है कि कविता या कला वास्तव में अभिव्यंजना है । जब अभिव्यंजना पूरी होती है या सफल होती है , तब वह स्वयं ही कला का रूप धारण कर लेती है । अभिव्यंजना को महत्त्व देने के कारण ही उनका सिद्धांत ' अभिव्यंजनावाद ' कहलाता है ।
क्रोचे का विचार है कि सौन्दर्यपरक ज्ञान तार्किक जान से भिन्न है । वह विज्ञान , इतिहास , नीतिशास्त्र , दर्शनशास्त्र से भी अलग है । क्योंकि वह तर्क मूलक ज्ञान नहीं है । वह सहज ज्ञान या सहजानुभूति है । उसका संबंध कल्पना और अनुभूति से है । जबकि अन्य ज्ञानों का संबंध बुद्धि से है । सहजानुभूति साकार व्यक्तियों और वस्तुओं के रूप में होती है , सामान्य नियमों और निराकार तर्क प्राप्य निष्कर्षों के रूप में नहीं । कला भौतिक विज्ञान की परिधि से बाहर है । कला सहजानुभूति है । उसका दुःख - सुख और उपयोगिता से कोई सीधा संबंध नहीं है पर कला सुखात्मक होती है । वह एक विशेष प्रकार के आनन्दको प्रदान करती है । उसका प्रयोजन कलात्मक ही है , अन्य कोई नहीं । कला का संबंध किसी वर्ग या जाति से नहीं है । कला के संबंध में एक और प्रश्न उठता है कि वह वस्तु है या रूप ? यद्यपि हम वस्तु और रूप में भेद कर सकते हैं , पर उनमें से प्रत्येक को कलात्मक विशेषण से युक्त नहीं कर सकते ; क्योंकि दोनों की संहिति या समन्विति कलात्मक होती है । अनुभूति बिम्ब के बिना अंधी है और बिम्ब अनुभूति के बिना खोखला है । अनुभूति और बिम्ब , समन्विति के बाहर कलात्मक भावना नहीं रखे । कला के विभिन्न रूप , भेद , और प्रकार भी महत्व नहीं रखते । वे भी भ्रमात्मक है । वास्तविक तथ्य यह है कि कला , अभिव्यंजना है । वह सहजानुभूति है , अत : अभिव्यंजनात्मक या लिरिकल ( Lyrical ) है । महज ज्ञान या सहजानुभूति अपने आपमें अभिव्यक्ति है , क्यों कि वह बिम्बात्मक है । बौद्धिक क्रिया की अपेक्षा सहज मानसिक क्रिया में सहजानुभूति ( इंटयूशन ) उसी मात्रा में प्राप्त होती है । जिस मात्रा में वह अभिव्यक्त होती है । इस प्रकार सहजानुभूति अभिव्यंजना है । न उससे कम और न उससे अधिक , सहजानुभूति कल्पना पर पड़े प्रभाव की अभिव्यक्ति रूप में होती है - वह बिम्बात्मक होती है . अत : वह कला है । निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि कला या अभिव्यंजना सहजानुभूति है । उसके विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि अभिव्यंजनावाद , कलावाद , बिम्बवाद , भाववाद , प्रतीकवाद आदि वादों के मूल में है ।
क्रोचे की एक विलक्षण स्थापना है कि सभी मनुष्य कवि हैं । कुछ बड़े और कुछ छोटे । जिनकी सहजानुभूति या अभिव्यंजना । वे बड़े कवि और जिनकी अपूर्ण है , वे छोटे कवि उनके विचार से अभिव्यंजना , कला या काव्य एक सौन्दर्य सृष्टि है । इसकी सृजन प्रक्रिया की चार अवस्थायें है । प्रथम अवस्था कल्पना पर पड़े प्रभाव की , द्वितीय मानसिक सौन्दर्यात्मक संश्लेषण की , तृतीय सौन्दर्यानुभूति के आनन्द की तथा चतुर्थ उसकी शारीरिक क्रिया के रूप में रूपान्तरण की यथा ध्वनि , स्वर , गति , रंग , रेखा आदि के रूप में प्रकटीकरण की । ये चारों अवस्थायें , जिनकी सहजानुभूति या अभिव्यंजना के साथ निर्बाध रूप से पूर्ण वा सफल होती है । वही बड़ा कवि या कलाकार होता है । अन्य कवि या कलाकारों में ये सभी अवस्था पूर्णता को प्राप्त नहीं होती , द्वितीय तक तो सभी आते हैं ।
क्रोच के मत से केवल प्रभाव नहीं , वरन् प्रभाव की रूप - रचना अभिव्यंजना या कला है । बहरूप सर्जना ही कवि या कलाकार का कार्य है । सामान्य गुण - विवेचन नहीं । क्रोचे के विचार से सहज ज्ञान या अभिव्यंजना , विचार , विज्ञान या बुद्धिजन्य ज्ञान की पहली सीढ़ी है । अभिव्यंजना विचार के बिना हो सकती है , परंतु विचार अभिव्यंजना के बिना नहीं । यही कारण है कि सभ्यता की आदिम अवस्था में कविता मिलती है , गद्य बाद में आता है । क्रोचे का मत है कि कविता मानव जाति की मातृभाषा है । क्रोचे के विचार से सौन्दर्य सफल अभिव्यंजना है या केवल अभिव्यंजना है । क्योंकि जो सफल नहीं , वह अभिव्यंजना ही नहीं । इस प्रकार कुरूप या भट्टी असफल अभिव्यंजना है । जिनमें अभिव्यंजना असफल है , उनमें भी कहीं - कहीं गुण विद्यमान रहते हैं । क्रोचे का यह भी मत है कि सुन्दर कृतियों की कोटिया नहीं होती । असुन्दर की ही कोटियाँ होती हैं । निश्चय ही क्रोचे के ये विचार आदर्शवादी हैं । क्रोचे का यह भी विचार है कि प्रकृति उन्हीं के लिए सुन्दर है जो कलाकार या कवि की दृष्टि से देखते हैं । कल्पना की दृष्टि के बिना प्रकृति का कोई अंग सुन्दर नहीं । कवि प्रकृति के स्वरूप को अपने दृष्टिकोण से सुधार कर प्रस्तुत करता है , तब उसमें सौन्दर्य की सत्ता आती है । बाह्य पदार्थों का केवल यही महत्व है कि वह कल्पना में बिम्ब उत्पन्न करते हैं ।
क्रोचे के विचार से कला का प्रयोजन अभिव्यंजना में ही पूर्ण हो जाता है । उनकी दृष्टि में काव्य और कला एक ही कोटि की वस्तुयें हैं और सौन्दर्य व्यक्ति कल्पना की वस्तु है । अत : यह स्पष्ट है कि कलाकार की अभिव्यंजना अंतर्गत की वस्तु को ही प्रकट करती है , बाह्य जगत को नहीं । बाह्य जगत् की वस्तु पहले कलाकार के अंतर्मानस में आती है और फिर उसकी अभिव्यंजना होती है । सौन्दर्य की सृष्टि भी अंतस में ही होती है । अन्य लोग भी उसी को सुन्दर मानते हैं जिसमें उनकी अंतर्भावनायें अभिव्यक्ति पाती है । इन सब बातों से यह स्पष्ट है कि अभिव्यंजनावाद मूलत : कला की रचना प्रक्रिया सिद्धांत है । क्रोचे का कहना है कि सौन्दर्य तत्व के अन्दर रूप का महत्व है । वह तत्व का महत्व उतना नहीं मानता , कला ज्ञान भी और रूप भी है । वह कहता है : " Since Art is Knowledge and form . It does not belong to the world of feeling and of psychic material , the reason , why so many aesthicians have so often insisted that art is appearance is precisely because they felt the necessity of dis tinguishing it from the more complex- fact of perception by maintaining its pure intuitivity . For the same reason it has been claimed that art is sentiment . In fact , if the concept of art and historical reality as such be excluded , there remains no other content then reality apprehended in all its ingeniousness and mmediateness in the vital effort , in sentiment , that is to say pure intuition " ( Theory of Aesthetics . )
उपर्युक्त कथन इस बात का संकेत करता है कि क्रोचे का सहज ज्ञान वास्तव में भावात्मक ज्ञान है और कला भावाभिव्यक्ति है । अनुभूति मात्र नहीं , वरन् अनुभूति का कल्पनागत वा स्मृति रूप है । इसकी स्थिति भी अभिव्यंजना की पूर्णता या सफल अभिव्यंजना प्रक्रिया में देखी जा सकती है । भारतीय विचारधारा के अनुसार भाव का भी मानसिक विश्लेषण लगभग वैसा ही है जैसा कि पूर्ण अभिव्यंजना की प्रक्रिया की चारों अवस्थाओं के अन्तर्गत क्रोचे ने स्पष्ट किया है । क्रोचे के मत से ये चार अवस्थाएँ होते हुए भी अभिव्यंजना अखण्ड है और उसे विभिन्न वर्गों में भी विभक्त नहीं किया जा सकता । क्रोचे के मत से केवल प्रभाव नहीं , वरन प्रभाव की रूप - रचना अभिव्यंजना या कला है ।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का भी इसी प्रकार का मत है कि काव्य सामान्य का वर्णन नहीं करता , वरन् विशेष या व्यक्ति का रूप प्रस्तुत करता है । यह रूप - सर्जना ही कवि या कलाकार का काम है , सामान्य गुण - विवेचन नहीं । क्रोचे सहज - ज्ञान या अभिव्यंजना को विचार या बुद्धिजन्य ज्ञान की प्रथम सीढ़ी मानता है । इस प्रसंग में उसका विचार द्रष्टव्य है । क्रोचे के विचार से सौन्दर्य सफल अभिव्यंजना है या केवल अभिव्यंजना है , क्योंकि जो सफल नहीं वह अभिव्यंजना ही नहीं है । इस प्रकार कुरूप की भद्दी असफल अभिव्यंजना है और जिनमें अभिव्यंजना असफल है उन कला -कृतियों में भी कहीं - न - कहीं गुण विद्यमान होते हैं , परंतु जो सफल है उसमें भी दोष है , वह क्रोचे को स्वीकार नहीं । क्रोचे के विचार से गुण परस्पर सम्मिश्रित होते हैं अतः उनका अलग - अलग निदर्शन कठिन होता है । उसके मतानुसार सुन्दर कृतियों की कोटियाँ नहीं होती । असुन्दर की ही कोटियाँ होती हैं । क्रोचे के उपर्युक्त विचार निश्चित अत्यंत आदर्शवादी हैं ।
प्रकृति के संबंध में भी क्रोचे के विचार अपना वैशिष्ट्य रखते हैं । उसका कथन है कि प्रकृति उन्हीं के लिए सुन्दर है जो कलाकार या कवि की दृष्टि से देखते हैं । कल्पना की दृष्टि के बिना प्रकृति का कोई अंग सुन्दर नहीं । जब कवि प्रकृति के स्वरूप को अपने दृष्टिकोण से सुधारकर प्रस्तुत करता है तब उसमें सौन्दर्य की सत्ता आती है । प्रकृति प्रेरणा भी उनको देती है जो इस प्रकार सहजानुभूति और कल्पना द्वारा देखते हैं । क्रोचे बाह्य पदार्थों को कल्पना में बिम्ब उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के रूप में स्वीकार करता है । कला या अभिव्यंजना एक मानसिक क्रिया है , एक आध्यात्मिक आवश्यकता है , इसीलिए क्रोचे इसे सहजानुभूति या सहजज्ञान के रूप में स्वीकार करता है । क्रोचे कला को मानव को एक सहज - मानसिक क्रिया के रूप में स्वीकार करके उसको अखण्डता और शाश्वत सत्ता को प्रमाणित किया है । फिर भी कला जिस रूप में एक पूर्ण या शाश्वत वस्तु है वह दुर्लभ वस्तु है । क्रोचे काव्य या कला का प्रयोजन अभिव्यंजन मात्र से ही पूर्ण मानता है । उसकी दृष्टि में काव्य और कला एक ही कोटि की वस्तुएँ हैं । उसके विचार से सौन्दर्य व्यक्ति - कल्पना की वस्तु है ।
इन विचारों से स्पष्ट है कि अभिव्यंजनावादी मत के अनुसार कवि या कलाकार अपने अन्तर्जगत की वस्तु को ही प्रकाशित करता है , बाह्य वस्तु को नहीं । उसके समक्ष यथार्थ का महत्त्व अन्तर्भावना को प्रभावित करने में ही है । यह अभिव्यजनावाद का संक्षिप्त विश्लेषण है जिसकी विशेषता वैयक्तिकता में निहित है । इसमें अनेक ऐसी बातें हैं जो सर्वमान्य नहीं हो सकती और जिन पर आपत्ति उठायी गयी है । फिर भी इस अभिव्यंजनावाद का अपना महत्त्व है और इसके आधार पर कलावाद और काव्य में व्यक्तिवाद के विकास को बड़ा बल किला । इधर क्रोचे कहता है सौन्दर्य की सृष्टि अंतस में होती है । दूसरे लोग भी उसे सुन्दर मानते हैं । जिसमें उनकी भावनाएं अभिव्यंजित की गई हों । इसलिए कलाकृति के लिए प्रत्येक वस्तु उपयुक्त है , अच्छा -बुरे होने का प्रश्न नहीं । क्रोचे के अनुसार सामान्य अनुभूति और कलाजन्य अनुभूति में गहरा अंतर है । जैसे नाटक के नायक की विभिन्न परिस्थितियों को देखकर हम हंसते हैं , आँसू बहाते हैं , और आनन्द अनुभव करते हैं किन्तु हमारा यह हँसना , आँसू बहाना या आनन्द सामान्य सुख - दुःख से हल्का होता है । सामान्य जीवन के सुख - दुःख वास्तविक एवं गंभीर होते हैं । जबकि कलाजन्य सुख - दुःख अवास्तविक काल्पनिक एवं ऊपरी होते हैं । अस्तु , क्रोचे इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि कलाजन्य अनुभूति सामान्य अनुभूति से भिन्न है ।
क्रोचे की धारणाएँ
- सहजानुभूति , अभिव्यंजना और कला तीनों पर्यायवाची हैं ।
- कला में विषय और शैली की अभिन्नता रहती है ।
- कला का तात्विक या आंगिक विश्लेषण करना कला की हत्या करना है ।
- कला सृजन की प्रक्रिया और कला आस्वादन की प्रक्रिया मूलत : एक ही है ।
- सामान्य अनुभूति और कलाजन्य अनुभूति में मात्रा का अंतर है ।
क्रोचे के विचार व प्रभाव के कारण यह तय हो जाता है कि कला और साहित्य को दार्शनिकता , बौद्धिकता , नैतिकता एवं उपयोगिता के नियंत्रण से मुक्ति मिली तथा साथ ही शैली के बाह्य एवं आरोपित चामत्कारिक तत्वों की अपेक्षा अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति को बल मिला । अतः कला का लक्ष्य केवल कला वा सौन्दर्य माननेवालों की दृष्टि से क्रोचे का महत्व अत्यधिक है । ऐसा नि : संकोच कहा जा सकता है । क्योंकि क्रोचे का अभिव्यंजना सिद्धांत चेतना को सबसे पहली और सबसे महत्वपूर्ण क्रिया सहजानुभूति है , जो अभिव्यंजना पर आधारित है । जिसमें रचनाकार की सहजानुभूति ही अभिव्यंजना है और अभिव्यंजना ही रचना ( साहित्य , संगीत , चित्र , मूर्ति , आदि ) है । यह सहाजानुभूति संवेदना के माध्यम से होती है ।
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