भ्रमरगीत सार bhramarageet saar

 भ्रमरगीत सार bhramarageet saar
( सं . रामचन्द्र शुक्ल ) 36 से 50 पद 

भ्रमरगीत सार bhramarageet saar

[ 36 ]

  • वरु वै कुब्जा भलो कियो ।
  • सुनि सुनि समाचार ऊधो मो कछुक सिरात हियो ।। 
  • जाको गुन , गति , नाम , रूप , हरि हार्यो , फिरिन दायो ।
  • तिन आपनो मन हरतन जान्यों हैसि हँसि लोग जियो ।। 
  • सूर तनक चंदन चढ़ाय तन गजपति वस्य कियो । 
  • और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो।।

व्याख्या

गोपियाँ कृष्ण के कुब्जा- प्रेम पर व्यंग्य करती हुई उद्धव से कह रही हैं कि उस कुब्जा ने अच्छा काम किया । यह समाचार सुनकर हृदय शीतल हो जाता है । कृष्ण का तो यह स्वभाव रहा है कि उन्होंने एक बार जिसका तन , मन , प्राण , रूप , गुण का हरण कर लिया , उसे फिर लौटा कर नहीं दिया । वहीं कृष्ण ( कुब्जा के द्वारा ) अपने मन का हरण होता हुआ न जान सके । कृष्ण की इस पराजय को सुनकर सब लोग हँस – हंस कर जीवित रहते हैं । सूरदास कहते है । गोपी कह रही है कि उस कुब्जा ने तो कृष्ण के शरीर पर तनिक सा चंदन का लेप करके ही अपने वश में कर लिया और इस प्रकार सम्पूर्ण नगर की स्त्रियों को पराजित कर उनके ऊपर विजय प्राप्त की । भाव यह हैं कि दासी कुब्जा सम्पूर्ण नगर की चतुर स्त्रियों को पराजित कर दाँव मार ले गई । एक दासी अन्य नागरिकाओं से जीत गई । इस प्रकार कुब्जा के प्रभाव के साथ गोपियों को भुलाने का भाव प्रकट किया गया है । 

[ 37 ]

  • हरि काहे के अंतर्जागी ? 
  • जी हरि मिलत नहि यहि औसर , अवधि बतायत लामी ।। 
  • अपनी चोप जाय छठि बैठे और निरस बेकामी ? 
  • सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरूड़ागामी ।।
  • आई उधरि प्रीति कलई सी जैसे स्वाटी आमी । 
  • सूर इते पर अनख मरति है कयों , पीवत मामी।।

व्याख्या

गोपियों उद्धव से कह रही हैं कि हरि कैसे अन्तर्यामी है कैसे सबके हृदय की बात जानने वाले है ? यदि वह हमारे हृदय की बात जानते होते तो क्या वे इस अवसर पर आकर हमे मिलते नहीं ? इसके विपरीत , वह तो अपने आने की ओर भी लम्बी अवधि बता रहे हैं । अर्थात् बहुत दिनों के बाद आने का संदेश भेज रहे हैं । वे तो यहाँ से अपनी ही इच्छानुसार उठकर वहाँ जा बैठे हैं और वहाँ जाकर पूर्णतः नीरस स्वभाव के और निष्काम बन गए हैं । अर्थात् उनके हृदय में हमसे मिलने की कामना ही नहीं रही । वास्तविकता तो ये है कि जो गरुड पर सवारी करनेवाले हैं , कभी पैदल नहीं चलते , वह पैदल चलनेवालों के पैरों में फटी विवाइयों के कष्ट को क्या जानें ? भाव यह है कि कृष्ण को तो वहाँ कुब्जा का प्रेम प्राप्त हो गया और वह हमें भूल गए । इसलिए उन्हें हम लोगों की वेदना नहीं सताती । फिर वह विरह - वेदना के कष्ट को कैसे अनुभव कर सकते हैं ? जैसे खट्टे आम द्वारा बर्तन पर चढ़ाई कलई उतर जाती है और बर्तन का असली रूप सामने आ जाता है , उसी प्रकार अब उनके प्रेम की असलियत हमारे सामने खुल गई है अर्थात् असलियत यह थी कि वे हमसे प्रेम ही नहीं करते थे । प्रेम की बनावटी बातें कर हमें बहलाए रखते थे । यह सब जान लेने पर हम इस बात पर कुड – कुड कर मरी जा रही है कि वह हमारे प्रेम के सम्बन्ध में मोन साध कर बैठ गए हैं । न तो यह कहते कि हमसे प्रेम नहीं करते , और न यही कहते हैं कि हमसे प्रेम करते हैं । 

[ 38 ]

  • बिलगि जनि माना , यो प्यारे । 
  • यह मधुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे । 
  • तुम कारे , सुफलकसुत कारे , कारे मधुप # वारे ।
  • तिनके सँग अधिक छवि उपजत कमलनैन मनि आरे ।।
  • माना नील माटते काले जमुना ज्या पखारे । 
  • ता गुन श्याम भई कालिंदी सूर श्याम गुन न्यारे ।।

व्याख्या

गोपियों उद्धव की बातों से तंग होकर व्यंग्य से कहती है कि हे प्यारे उद्धव तुम हमारी बातों का बुरा न मानो । तुम हमें ज्ञानयोग की शिक्षा देने आये हो , उसमें तुम्हारा दोष नहीं है । यह तो उस काजल की कोठरी ( मथुरा ) का दोष है ? कि उसमें से आनेवाले हर व्यक्ति का तन काला होता है । अब देखों न तुम भी काले , अक्रूर भी काले हैं और यहाँ तक कि उधर से उड़कर आने वाले भ्रमर भी काले होते हैं । इन सभी काले लोगों के साथ कमल नेत्रोंवाले कृष्ण मणिधारी काले सर्प के समान हैं क्योंकि उन्होंने हमें  अपने विरहरूपी विष से व्याकुल कर दिया है ऐसा लगता है कि तुम काले लोग अब तक किसी नीले मटके में पड़े थे और उसमें से निकालकर किसी ने तुम्हें यमुना जल से धोकर साफ करने का प्रयत्न किया है । तुम लोग साफ तो नहीं हुए , लेकिन यमुना का जल तुम लोगों के सम्पर्क से अवश्य काला पड़ गया । सूरदास जी कहते है कि गोपी कह रही है कि इन काले लोगों के गुण ही निराले होते हैं । स्वयं तो काले होते ही हैं दूसरों को भी काला कर देते हैं । 

[ 39 ]

  • अपने स्वारथ को सबकोछ । 
  • चुप करि रही , मधुप रस लंपट ! तुम देखे अक वोक ।। 
  • औरों का संदेश कहन को कहि पठ्यो किन सोऊ । 
  • लीन्हों फिरत जोग जुबतिन को बड़े सयाने दोक्त ।। 
  • तब कत मोहन रास खिलाई जो ज्ञान इतोको ।
  • अब हमरे जिय बैठो यह पद ' होनी होउ सो होऊ ' ।। 
  • मिटि गयो भान परेखो ऊधो हिरवय हतो सो होक । 
  • सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित चिंता अब खोऊ।।

व्याख्या

गोपियौं उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! इस संसार में सब अपने ही स्वार्थ को देखने वाले है । दूसरों की कोई भी चिंता नहीं करता । हे रस - लोभी मधुप ! तुम अब चुप रहो , ज्यादा बातें न बनाओ । हमने तुम्हें भी देख लिया है और उन्हें ( कृष्ण ) भी । तुम दोनों ही एक समान स्वार्थी हो । कृष्ण ने यदि तुम्हें हमारे पास और भी कुछ संदेश कहने के लिए भेजा हो तो उसे भी क्यों नहीं कह डालते ? तुम दोनों बड़े चतुर मालूम पड़ते हो कि युवतियों के लिए योग लिए फिरते हो ; अर्थात् तुम भी हमें योग का संदेश दे रहे हो और उन्होंने भी तुम्हे यही संदेश देने के लिए हमारे पास भेजा है । यदि कृष्ण सचमुच ज्ञान को इतना महत्त्व देते थे तो उन्होंने हमारे साथ रास क्यों रचाया था ? अब तो हमने यह दृढ निश्चय कर लिया है कि जो होगा सो देखा जाएगा , परन्तु हम कृष्ण के प्रेम को नहीं त्यागेंगी । हे उद्धव कृष्ण की उपेक्षा और मौन के प्रति हमारे हृदय में अब तक जो कुछ भी मान और पश्चाताप की भावनाएँ थीं , वह अब जाती रही ; अर्थात् अब कृष्ण के द्वारा अपने प्रेम की उपेक्षा किए जाने के कारण हमें कोई शिकायत नहीं है । हमारे कृष्ण तो गोकुल के स्वामी है , इसलिए तुम अपने मन की सारी चिंताएँ दूर कर दो । भाव यह है कि हमें यह पक्का विश्वास है कि कृष्ण गोकुल के स्वामी हैं , इसलिए हमारी सारी चिंताएँ स्वयं ही दूर कर देंगे । अतः तुम अपनी इस चिंता को दूर कर दो कि तुम हमें योग - मार्ग स्वीकार कराने में असफल रहे । 

[ 40 ]

  • तुक जो कहते संदेसो आनि । 
  • कहा करो वा नंदनन्दन सोहोत नहीं हितहानि ।। 
  • जोग - जुगुति किहि काज हमारे जबपि महा सुखखानि । 
  • सने सनेह श्यामसुन्दर के हिलि मिलि मन मानि ।। 
  • सोहत लोह परसि पारस ज्यों सुवरन बारह वानि । 
  • पुनि वह चोपकहां चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि ।। 
  • रूपरहित नीरस निरगुन हित निगमा परत न जानि । 
  • सूरदास कौन विधि तासों अब कीजे पहिचानि।।

व्याख्या 

हे उद्धव तुम हमें कृष्ण प्रेम का संदेश न कहकर कोई अन्य योग ज्ञान से सम्बन्धित संदेश कह रहे हो जिसमें हमारी तनिक भी रुचि नहीं है । इस संदेश को सुनना हमारे लिए उचित नहीं क्योंकि इससे नंदनन्दन कृष्ण के साथ हमारे प्रेम की हानि होती है किन्तु हम उनसे प्रेम करना नहीं छोड़ सकती । तुम्हारे कथानुसार यद्यपि योग - साधना महान् सुखों की खान है - अर्थात् महान् सुखों को प्रदान करनेवाली है किन्तु वह हमारे किस काम की है । योग - साधना को अपनाने पर हमें कृष्ण - प्रेम को त्यागना पड़ेगा , जो हमारे लिए सम्भव नहीं , अतः तुम्हारा यह योग हमारे लिए व्यर्थ है हमारा समस्त सुख तो कृष्ण - प्रेम में ही निहित है । हमारा मन श्याम - सुन्दर के साथ हिलमिल कर उनके स्नेह में पूर्णरूप में डूब गया है। लोहा पारस नाम के स्पर्श से बारह आने उज्ज्वल एवं खरा सोना बन जाता है , किन्तु ऐसे सोने में वह उत्साह अथवा आकर्षण शेष नहीं रह जाता जो उसे चुम्बक के प्रति आकर्षित कर उससे चिपका देता है । ऐसे ही योग साधना के कारण भले ही हमारा मन निर्मल , खरे सोने के समान क्यों न हो जाए परन्तु उसकी सर्वस्व प्रेम - भावना , नष्ट हो जाएगी । तुम कहते हो कि तुम्हारा ब्रह्म , निष्काम , अगम्य है । आज तक वेदों ने भी उसका पार नहीं पाया तो फिर तुम्हारे इस ब्रह्म के साथ हम किस प्रकार परिचय प्राप्त कर सकती है ? अर्थात् जब वेदों के लिए भी तुम्हारा यह निर्गुण और निष्काम ब्रह्म गम्य नहीं तो हम अबला , मूढ नारियां उसका ज्ञान किस प्रकार प्राप्त कर सकती हैं ? और जब हमारा उससे परिचय ही नहीं हो सकेगा , तो हम उससे प्रेम किस प्रकार करेंगी ? 

[ 41 ]

  • हम ती कान्ह केलि की भूखी । 
  • कैसे निरगुन सुनहि तिहारी विरहिति विरह विदुखी ? 
  • कहिए कहा यही नहिं जानत काहि जोग है जोग । 
  • पा लागों तुमहीं सो वा पुर बसत बावरे लोग ।।
  • अंजन , अभएन , चीर , चाल , बरू नेक आप तन कीजै ।
  • दंड , कमंडल , भरम , अधारी जो जुवतिन को दीजै ।। 
  • सूर देखि दता गोपिन की कथो यहात पायो । 
  • कह ' कृपानिधि हो कृपाल हो ' प्रेम पढ़न पठायो।।

व्याख्या

हम तो श्रीकृष्ण के साथ पहले जैसी क्रीडाएँ करने के लिए लालायित हैं । हम कृष्ण के विरह में व्यथित विरहिणी नारियाँ है । हम किस प्रकार तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मा के उपदेश को सुन सकती हैं । तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं कि हम जैसी कृष्ण प्रेम - विरह में संतप्त अबलाओं के साथ किस प्रकार की बातें करनी चाहिए । तुम्हारा कर्तव्य था कि तुम हमें सांत्वना देते , कृष्ण - आगमन की घड़ी का निर्देश करते उल्टा तुम हमें योग की शिक्षा देने लगे । तुम्हें इस बात का भी ज्ञान नहीं कि तुम्हारे योग के योग्य पात्र कौन है ? अर्थात् तुम विरहिणियों को निर्गुण ब्रह्म की साधना करने का उपदेश दे रहे हो , जो अनुचित है , क्योंकि योग - साधना तो योगियों के लिए ही उचित है , वे ही इसके योग्य है , हम अबला नारियाँ तो नंदनन्दन के प्रेम के लिए ही हैं । तुम इन सब बातों पर ध्यान न देकर , योग का उपदेश देकर हम पर अन्याय कर रहे हो । हम तुम्हारे पाँव पड़ती हैं , हमसे इस प्रकार की बातें न करों , इसमें हमें दुःख होता है । तुम्हें देखकर हमे लगता है कि उस मथुरा नगरी में सभी बावले , अनाड़ी लोग ही निवास करते हैं कृष्ण भी इस बात के प्रमाण है क्योंकि उन्होंने तुम्हारे हाथों हम अबला नारियों के लिए ऐसा अनुचित संदेश भेजा है । यदि तुम्हारे मत में हम युवतियों को दंड कमण्डल , भस्म , अधारी आदि योग - साधना के उपकरण धारण करने उचित हैं तो तुम अपने शरीर पर तनिक हमारा अंजन , आभूषण , सुन्दर वस्त्र धारण करके तो देखो , क्या ये तुम्हें शोभा देते है और तुम्हारे लिए उचित है ? जिस प्रकार हमारे ये प्रसाधन तुम्हारे लिए अनुपयुक्त है , उसी प्रकार योग से सम्बद्ध सभी उपकरण हमारे लिए अनुपयुक्त है । सूरदास जी कहते हैं कि गोपियों की इस प्रकार की प्रेम की दृढ़ता और अनन्यता को देखकर उद्धव को यह विश्वास हो गया कि कृपालु और दयानिधि श्री कृष्ण ने उन्हें यहाँ ब्रज में गोपियों को योग का उपदेश देने के लिए न भेजकर , उनसे प्रेम का पाठ ग्रहण करने के लिए भेजा है । 

[ 42 ]

  • अँखिया हरि दरसन की भूखी । 
  • कैसे रह रूप राँची ये बतियाँ सुनि रूखी । 
  • अवधि गनत इक टक मग जोबत तब एती नहिं झूखी । 
  • अब इत जोग - संदेशन कधी अति अकुलानी दूखी ।। 
  • बारक वह मुख फेरि दिखाओ , दुहि पय पिवत पतूखि । 
  • सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता है सूखी ।।

व्याख्या

हमारी आँखे तो कृष्ण के दर्शनों की प्यासी हैं । हमारी ये आँखे कृष्ण के रूप और रस में पगी हुई हैं । उनमें पूर्णयता अनुरक्त है । अतः ये किस प्रकार तुम्हारी इन नीरस योग की बातें सुनकर धैर्य धारण कर सकती है ? जब ये आँखे कृष्ण के लोटकर आने की अवधि के एक एक दिन की गणना करती हुई मार्ग की ओर विना पलक झपकाए निहारती थीं , तब भी वे इतनी संतप्त और दुःखी नहीं हुई , अब तुम्हारे योग के नीरस और व्यर्थ संदेशो को सुनकर अत्यधिक संतप्त और अकुलाई हुई है । अब हमारी तुमसे केवल यही प्रार्थना है कि हमें कृष्ण के उस मुख के दर्शन एक बार फिर करवा दो जिससे वह पत्ते के दोनों में दूध दुहकर पान किया करते थे । तुम्हारा हमें योग का उपदेश देना वैसा असम्भव कार्य करने का प्रयत्न है जैसा सूखी हुई नदी की बालू में हठपूर्वक नाव चलाने का प्रयत्न करना । कृष्ण - प्रेम में अनुरक्त हमारे हृदयों पर तुम्हारे योग का कोई प्रभाव पड़नेवाला नहीं ।

 [ 43 ]

  • जाय कहाँ बूझी कुसलात । 
  • जाके ज्ञान न होय सो मान कही तिहारी बात ।। 
  • कारे नाम , रूप पुनि कारो , कारे अंग सखा सब गात ।
  • जो भले होत कई कारे तो कत वदलि सुता ले जात ।। 
  • हमको जोग , भोग कुबजा को काके हिये समात ? 
  • सूरदास सेए सो पति के पाले जिन्ह तेही , पछितात ।।

व्याख्या

गोपियों क्षुब्ध होकर कहती हैं , हे उद्धव ! तुम मथुरा वापिस चले जाओ और कृष्ण से कहना कि हमने उनकी कुशलक्षेम पूछी है । हमारा समाचार देने के उपरान्त उनसे यह कहना कि तुम्हारे योग - मार्ग को अपना लेने का संदेश वही मान सकता है जो सर्वथा अज्ञानी होगा । कृष्ण का नाम काला अर्थात् श्याम है फिर रंग एवं स्वरूप भी काला है । उनके सारे सखाओं अक्रूर , उद्धव आदि के शरीर के समस्त अंग भी श्याम है । इस प्रकार कृष्ण स्वयं और उनके सब मित्र तन - मन से काले अर्थात् कपटी हैं । यदि ये काले वर्ण कपटी और धोखेबाज न होकर अच्छे होते तो वसुदेव अपने पुत्र श्यामवर्ण कृष्ण को यहीं छोड उसके बदले में नन्दबाबा की लड़की को न ले जाते । काले वर्णवाले बुरे होते हैं , तभी तो वसुदेव ने काले कृष्ण को यहाँ छोडकर उससे पीछा छुड़ा लिया था । तुम सब काले लोग इतने दुष्ट हो कि नारी - नारी में भी अन्तर करते हो । हम गोपियों के लिए तो योग साधना उचित बताते हो और कुब्जा के लिए भोग । तुम्हारी यह विलक्षण गति किसके हृदय में समानेवाली है ? यह तुम्हारा सरासर अन्याय है । किसी की समझ में भी नहीं आनेवाला । कृष्ण के इस प्रकार छल कपट भरे व्यवहार , पर पति के तुल्य उन्हें स्वीकार करनेवाली हम गोपियाँ हीं नहीं पछताती अपितु पुत्र तुल्य मानते हुए उनका भरण पोषण करनेवाले नन्द - यशोदा भी पछताते हैं । 

[ 44 ]

  • कहाँ लौ कीजै बहुत बडाई । 
  • अतिहि अगाध अपार अगोचर मनसा तहाँ न जाई । 
  • जल बिनु तरंग , भीति बिनु चित्रन , बिन चित ही चतुराई । 
  • अब ब्रज में अनरीति कछु यह उधी आनि चलाई । 
  • म न रेख , बदन वपु जाके संग न सखा सहाई । 
  • ता निर्गुन सो प्रीति निरंतर क्यों निवहै , री माई ।।
  •  मन चुभि रही माधुरी मूरति रोम - रोम अकआई । 
  • ही बलि गई सूर प्रभु ताके जाके स्याम सदा सुखदाई ।।

व्याख्या

गोपियों कहती है . हे उद्भव ! तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की प्रशंसा कहाँ तक करें ? उसके सम्बन्ध में तुम्हारी उक्तियाँ अत्यन्त विचित्र है । तुम्हारे मन में तुम्हारा निर्गुण - ब्रह्म अत्यधिक अगाध , अपार और न दिखाई देनेवाला है । वह इतना अगम्य है कि मानव मन भी उस तक नहीं पहुंच सकता । यह मन की कल्पना से परे है । तुम्हारा यह निर्गुण - सम्प्रदाय अति विचित्र है । क्योंकि इसमें अपेक्षित उपादानों के बिना ही वस्तुएँ निर्मित हो जाती है । इसमें बिना जल के तरंगें उत्पन्न होती है , बिना भीति ( दीवार अथवा कोई अन्य आधार ) के चित्रों का अंकन होता है । यहाँ चित्र के बिना ही चतुराई प्रदर्शित की जाती है । तुमने यहाँ ब्रज में आकर इस प्रकार की अनोखी रीति लगाई है । तुम असम्भव और अनहोनी बातें कहकर हमें बहला रहे हो और अपने जाल में फंसाना चाहते हो । तुम्हारे ब्रह्म की न तो कोई रूपरेखा है अर्थात् आकार है । न उसका कोई मुख और न ही कोई शरीर है । उसके साथ न तो कोई मित्र है और न कोई सहायक ही है । ऐसी स्थिति में तुम ही हमें बताओ कि उक्त विशषताओं से सम्पन्न तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के साथ हमारा निरन्तर प्रेम - निर्वाह किस प्रकार हो सकता है । हमारे कृष्ण रूप - गुण सम्पन्न है , इसलिए उनके साथ हमारा निरन्तर प्रेम - व्यापार चलता रहा है । हमारे मन में तो कृष्ण की मधुर एवं रूपहली मूर्ति घर कर गई है , वह मोहिनी मूर्ति हमारे रोम रोम में समाई रहती हैं । हम तो सदा कृष्ण की माधुर्यपूर्ण मोहिनी मूर्ति के ध्यान में मस्त रहती हैं । हम उन जनों पर बलिहारी जाती हैं । जिनके लिए हमारे प्रभु कृष्ण सदा सुखदाई है । हम कृष्ण - प्रेमियों पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को उद्धत है । 

[ 45 ]

  • काहे को गोपीनाथ कहावत ? 
  • जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत ? 
  • सपने की पहिचानि जानि के हमाह कलंक लगावत । 
  • जो पै स्याम कूबरी रीझे सो बिन नाम धरावत ? 
  • ज्यों गजराज काज के औसर और दसन दिखावत । 
  • कहन सुनन को हम है ऊधो सूर अनत बिरमावत।।

व्याख्या

गोपियाँ क्षुब्ध होकर कृष्ण के प्रेम में कहती हैं कि कृष्ण अब भी स्वयं को गोपीनाथ ' क्यों कहलवाते हैं ? जबकि अब इस नाम में कोई तथ्य नहीं रहा क्योंकि वह मथुरा जाकर हमें भुला बठे हैं । हे मधुकर ! यदि वह अभी भी हमारे स्वामी कहलाते हैं तो मथुरा से लौटकर गोकुल क्यों नहीं चले आते ? एक ओर तो हमारे साथ स्वप्न के समान , अत्यन्त थोड़ा परिचय बताते हैं , और फिर स्वयं को ' गोपीनाथ ' भी कहलवाते हैं । इस प्रकार यह परोक्षरूप से हम पर कलंक लगा रहे हैं । यदि श्यामसुन्दर उस कुबड़ी दासी कुब्जा पर ही रीझ गए हैं तो उसी के नाम पर अपना नाथ ' कुब्जानाथ ' अथवा ' कुब्जापति ' ही क्यों नहीं रख लेते ? उनके ' गोपनाथ ' नाम पर सारा संसार हमें कलंकिनी समझ रहा है जबकि उनका हमारा अब कोई साथ नहीं रहा । अब तो वह कुब्जा पर ही मोहित हैं और उनके साथ मथुरा में रहते हैं । इस प्रकार का उनका कार्य उसी प्रकार है जिस प्रकार कि हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और होते हैं । अर्थात् कृष्ण की कथनी और करनी में पर्याप्त अन्तर है । कहने - सुनने के लिए हम उनकी प्रेमिकाएँ हैं और वे हमारे स्वामी होने के कारण ' गोपनाथ ' भी कहलाते हैं । किन्तु वास्तविक स्थिति यह है कि वह हमारे प्रियतम न होकर कुब्जा के प्रेम में फंसे हुए हैं और आजकल उसी के साथ मथुरा में विश्राम कर रहे हैं । 

[ 46 ]

  • अब कत सुरति होति है , राजन ? 
  • दिन दस प्रीति करी स्वारथ हित राहत आपने काजन ।। 
  • सबै अयानि मई सुनि मुरली ठगी कपट की छाजन । 
  • अब मन भयो सिंधु के खग ज्यों फिरि फिरि सरत जहाजन ।। 
  • वह नातो टूटो ता दिन ते सुफलकसुत संग भाजन । 
  • गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत ही लालन।।

व्याख्या

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव अब कृष्ण को हमारी सुधि किस प्रकार आती होगी ? अब यह मथुरा के राजा हो गए हैं , और कुब्जा उनकी रानी है । उनके सानिध्य में अब उन्हें हमारा अभाव क्या खटकता होगा । उन्होंने अपने स्वार्थवश दस दिन अर्थात थोड़े समय के लिए हमसे प्रेम बढ़ाया था । किन्तु अब राजा बन जाने के कारण राज - काज में ही समय निकल जाता होगा । अब उन्हें हमारी स्मृति किस प्रकार आती होगी । कृष्ण की बंसी की मादक स्वर - लहरी को सुनकर हम सब उस समय अज्ञानी हो गई थी और उसके प्रभाव में तन - मन खो बैठी । उन्होंने तो वस्तुतः प्रेम का ढोंग रचा था किन्तु हम इसे सत्य समझकर अपनी सुध - बुध खो बैठी और इस प्रकार उनके चुंगल में फंस गई । अब तो हमारा मन जहाज के उस पंछी के समान हो गया है जो अन्यत्र कोई ठौर प्राप्त नहीं कर पाने के कारण पुनः जहाज पर लौट आता है । हमारे मन को अब कृष्ण के अतिरिक्त अन्य किसी भी स्थान पर आश्रय , सुख - संतोष नहीं मिलता , इसी कारण हमारा ध्यान उन्हीं की ओर जाता है । कृष्ण से हमारा प्रेम का नाता तो उसी दिन टूट गया था जिस दिन वह हमें अकेला , निराधार छोड़कर अक्रूर जी के साथ स्वयं मथुरा चले गए थे । अब तो हमें इस बात का दुःख है कि हमसे स्नेह का रिश्ता तोड़ जाने पर भी अभी तक वह ' गोपीनाथ ' बने हुए हैं जिससे सारा संसार हमें लांछित कर रहा है और हम लाज से मरी जा रही हैं ।

 [ 47 ]

  • लिखी आई ब्रजनाथ की छाप । 
  • बाँधे फिरत सीस पर ऊधो देखत आवै ताप ।। 
  • नूतन रीति नंद नंदन की धरधर दीजत थाप । 
  • हरि आगे कुब्जा अधिकारी ताते है यह छाप ।। 
  • आए कहन जोग अवराधो अविगत कथा को जाप । 
  • सूर संदेशो सुनि नहिं लागै कही कौन को पाप ।।

व्याख्या

सूरदास ने गोपियों के माध्यम से कहा है कि अरे देखो ब्रजनाथ के हाथों का लिख हुआ पत्र आया है जिस पर उनकी मुद्रा का चिहन भी अंकित है । इस प्रकार इस उद्धव बिचारे का दोष नहीं , योग का संदेश वस्तुतः कृष्ण ने हमारे लिए भेजा है । उद्धव अपनी ओर से कुछ नहीं कह रहे । उद्धव इस पत्र की सुरक्षा के कारण इसे अपनी पगडी में खोंसे फिरते हैं जिसे देखकर इन्हें क्रोध और क्षोभ के कारण ज्वर आने लगता है । यह कृष्ण की संदेश देने की नवीन नीति है । उनकी आज्ञानुसार ही तो उद्धव घर - घर में इस पत्र में निहित सन्देश की स्थापना कर रहे हैं । अर्थात् सभी को कृष्ण को भुलाकर निर्गुण ब्रह्म की आराधना करने की भी दिशा दे रहे हैं । इस प्रकार प्रतीत होता है कि मथुरा में सभी कार्यों में कृष्ण की कुछ नहीं चलती , सर्वत्र कुब्जा का आदेश चलता है और उसके अधिकार कृष्ण से भी अधिक है । इसी कारण तो उसे इतना घमण्ड हो गया है कि उसने कृष्ण से चोरी करके इस पत्र पर उनकी मोहर छापकर इसे प्रामाणिक बना दिया है । वस्तुतः वह कृष्ण को अपने में ही सीमित करना चाहती है । कहने का भाव यह है कि इस पत्र पर मोहर कृष्ण द्वारा न लगाई जाकर कुब्जा द्वारा लगाई गई है । इस प्रकार यह कुब्जा द्वारा हमें भेजा गया संदेश है । कुब्जा हमें अन्य राह पर डालकर कृष्ण का अकेले ही भोग करना चाहती है , तभी तो उद्धव उसके संकेत पर यहाँ आए हैं और हमें निर्गुण अगम्य ब्रह्म की कथा सुनाकर योग - साधना के बल पर उसे प्राप्त करने की शिक्षा दे रहे हैं । इस अनुचित , अनर्गल संदेश को सुनने में बताओ , किसको पाप नहीं लगेगा हम गोपियाँ एकमात्र कृष्ण की ही अनुरागिनी हैं । कृष्ण को त्यागकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने में हमें पाप लगता है । यह भारतीय नारी के पतिव्रत्य धर्म के अनुकूल है । हम कृष्ण की सच्ची प्रेमिकाओं के लिए अपने प्रियतम कृष्ण को त्याग किसी अन्य से प्रेम करना अथवा उसका ध्यान करना निश्चय ही पापाचार है ।

[ 48 ]

  • फिरि फिरि कहा सिखावत बात ? 
  • प्रातकाल उठि देखत , ऊधो घर घर माखन खात । 
  • जाकी बात कहत हो हमसों सो है हमसों दूरि । 
  • ह्याँ है निकट जसोदानन्दन प्रान - सजीवन मूरि । 
  • बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत डोलत । 
  • सूर सीस सुनि चौकत नावहिं अब काहे न मुख बोलता ।।

व्याख्या

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव तुम हमें बार - बार निर्गुण - ब्रह्म की साधना का उपदेश क्यों दे रहे हो ? यह वस्तुतः तुम्हारा व्यर्थ का प्रयास है क्योंकि हमारे जीवन में कृष्ण इतने अधिक गहरे बैठ गए हैं कि हमारे लिए उन्हें भुला पाना अत्यन्त कठिन है । हम यहाँ ब्रज में नित्य प्रातः उठकर उन्हें घर - घर मक्खन खाते हुए देखती हैं । तुम जिस निर्गुण ब्रह्म की आराधना करने के लिए हमसे कह रहे हो वह हमसे बहुत दूर है । हमारी पहुँच से परे है जबकि संजीवनी बूटी के समान जीवन - संचार के लिए यशोदा - नन्दन श्रीकृष्ण यहाँ ब्रज में हमारे निकट निवास करते हैं । हमें वह आज भी ग्वाल बालों को साथ लिए दही चुराते हुए , कुछ स्वयं खाते और कुछ दूसरों को खिलाते हुए घूमते - फिरते दिखाई देते हैं । जब हम उन्हें चोरी करते हुए रंगे हाथों पकड़ लेती हैं , तो वह चोंककर लज्जित होकर सिर झुकाकर चुपचाप खड़े हो जाते हैं और हमारी डाँट - फटकार का कुछ भी उत्तर नहीं देते ।

[ 49 ]

  • अपने सगुन गोपाल , माई यहि विधि काहे देत ? 
  • ऊधो की ये निरगुन बातेन मीठी कैसे लेत ? 
  • धर्म , अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्ति समेत । 
  • काकी भूख गई मन लाडू सो देखा चित चेत । 
  • सूर स्याम तजि को भूस फटके मधुप तिहारे हेत ? ।।

व्याख्या

गोपियाँ आपस में बातचीत कर रही हैं । एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी ! हम अपने सगुणरूप गोपाल कृष्ण को किस प्रकार और क्यों उद्धव को दे दें ? और उद्धव की निर्गुण विषयक विष सदृश प्राण घातक वचनावली को मधुर , प्रिय और ग्रहण करने योग्य मानकर किस प्रकार स्वीकार कर लें । उद्धव ने हमारे सम्मुख अनेक बार धर्म , अधर्म की व्याख्या की है और हमें यह प्रलोभन दिया है कि यदि हम निर्गुण - ब्रह्म की उपासना करें तो हमें सुख और मोक्ष दोनों की प्राप्ति हो सकती है किन्तु उद्धव की ये सब बातें असंगत और असम्भव हैं , इसलिए हम इन्हें निर्गुण – ब्रह्म समझा नहीं पा रहीं । अपने मन में यह विचार कर देखो कि आज तक मन में लड्डू खाने से किसकी भूख शान्त हुई है । उद्धव लड्डू के समान प्रत्यक्ष ग्रहणीय कृष्ण - प्रेम को त्याग , अलभ्य , अगम्य निर्गुण - ब्रह्म की उपासना करने का उपदेश दे रहे हैं । उनके इन शब्दों में इस उपासना से मुक्ति प्राप्त होती है परन्तु हमें तो यह लगता है कि जैसे किसी सामने की प्रत्यक्ष हाथ में आई हुई वस्तु को त्यागकर नितान्त काल्पनिक एवं अप्राप्य वस्तु के पीछे भागना  है तो हम उन्हें त्यागकर क्यों निर्गुण - ब्रह्म के पीछे भागती फिरें ? हे मधुप ! यहाँ हम कौन खाली बैठी हैं जो कृष्ण को त्यागकर निर्गुण की उपासना जैसा भूसा फटकने का व्यर्थ कार्य करें । ब्रह्म की आराधना करना व्यर्थ के किसी कार्य में मगज - पच्ची करना है । ऐसे कार्यों का कोई उचित परिणाम नहीं निकलता है । 

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  • हमको हरि की कथा सुनाव । 
  • अपनी ज्ञान कथा हो , ऊधो । मथुरा ही ले गाव ।
  • नागरि नारि भले बुझेगी अपने बचन सुझाव । 
  • पा लागों , इन बातनि , रे अलि उनहीं जाय रिझान । 
  • सुनि , प्रियसखा स्यामसुन्दर के जो पै जिय सति भाव । 
  • हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक भूरी दिखाय । 
  • जो कोटि कोटि जतन कर , मधुकर , विरहिनि और सुहाव । 
  • सूरदास मीन को जल बिनु नाहिन और उपाव ।।

व्याख्या

गोपियाँ उद्धव की ज्ञानोपदेश एवं निर्गुण - ब्रह्म की निरन्तर चर्चा से ऊब उठी हैं । अब यह उन्हें नितान्त अरुचिकर लगती है , इसलिए वे उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम हमें केवल कृष्ण की कथा सुनाओ , हमारे सम्मुख उन्हीं की चर्चा करो , तुम्हारे निर्गुण ब्रहा के प्रति हमारी कोई रुचि नहीं है , हम उसकी कथा तुम्हारे मुख से सुनकर ऊब चुकी हैं । तुम अपनी इस ज्ञानोपदेश और निर्गुण - ब्रह्म की कथा को मथुरा लौटाकर ले जाओ और वहाँ के लोगों के सम्मुख गा - गाकर सुनाते रहो । नगर की नारियाँ चतुर होती हैं , अतः वे अपने स्वभावानुसार तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा करेंगी । पूछेगी , तुम्हें वार्तालाप में घसीटेंगी और समझने का प्रयत्न भी करेंगी । वस्तुतः वे इस प्रकार की बातें सुनने और करने की अभ्यस्त होती हैं , अतः तुम्हारी बात शीघ्र ही उनकी पकड़ में जा जाएगी । हे भ्रमर ! हम तुम्हारे पाँव पड़ती हैं , अपनी योग - ज्ञान और निर्गुण - ब्रह्म सम्बन्धी बातों को तुम कृपा करके वहीं मथुरा नगर लौटाकर ले जाओ और इससे वहाँ की चतुर स्वभाववाली स्त्रियों को रिझाने का प्रयत्न करो । गोपियाँ कहती हैं , हे उद्धव ! अपनी इस ज्ञान - योग की चर्चा को तनिक छोड़कर तुम हमारी बात सुनो । यदि तुम श्याम सुन्दर श्रीकृष्ण के प्रिय और वास्तविक सखा हो। यदि तुम्हारे हृदय में हम विरहिणियों के प्रति सच्ची सहानुभूति का भाव है तो कृष्ण के मुख के दर्शन के लिए तड़प रहे , इन हमारे व्याकुल नेत्रों को पुनः एक बार उस मोहिनी मूर्ति के दर्शन करा दो , इसके लिए हम तुम्हारा अत्यन्त आभार मानेगी । हे मधुकर ! तुम हमें यह बताओ कि क्या करोड़ों यत्न करने पर भी विरहिणी नारियों को अपने प्रियतम की चर्चा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की चर्चा सुहा सकती है । जिस प्रकार तड़पती हुई मछली के लिए जल के अतिरिक्त जीवन प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं , उसी प्रकार विरह संतप्त हम गोपियों के लिए कृष्ण चर्चा ही एक ऐसा उपाय है जिससे हम जीवन - धारण किए रह सकती हैं , अन्यथा नहीं । अतः यदि तुम बार - बार ज्ञान - योग और निर्गुण ब्रह्म की चर्चा करते रहोगे तो हमारा जीवन धारण किए रहना कठिन हो जाएगा ।

भ्रमरगीत सार पद 21-35

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