पटाक्षेप नहीं होगा

पटाक्षेप नहीं होगा
Patakshep Nahi Hoga
डा. हेतु भारद्वाज

Patakshep Nahi Hoga


‘पटाक्षेप नहीं होगा’ कहानी के प्रमुख पात्र

डॉ. भारद्वाज की इस कहानी में वैसे तो कोई भी पात्र नही है। परंतु कुछ ग्रामीण परिवेश के नाम बार-बार अवश्य आते हैं । ये नाम भारत के किसी भी गांव या मोहल्ले के हो सकते हैं इन नामों से कहानी की कथावस्तु पर फर्क नही पड़ता । यह कहानी यथार्थ के पटल पर रची गयी है । कुछ नाम जो इस कहानी को आगे बढाते हैं निम्न हैं

  • रामसिंह – गांव के ठाकुर का बेटा व आजादी के बाद गांव का पहला प्रधान ।
  • महेंद्र-बलबीर – गांव के दो ब्राह्मण भाई जो दिल्ली में नोकरी कर रहे हैं ।
  • फगना – गांव का दलित नेता ।
  • लच्छीराम – दलित युवक जो रामसिंह की राजनीति में फंस जाता है ।
  • इतवारी चमार – दलित युवक जो वास्तव में गांव के दलितों का प्रतिनिधित्व कर रहा है ।
  • नाहरसिंह – रामसिंह का पुत्र व अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी जो गांव की सत्ता संभालता है ।

‘पटाक्षेप नहीं होगा’ कहानी का सार

पटाक्षेप नहीं होगा कहानी डॉ. हेतु भारद्वाज की यथार्थवादी कहानी है । यह कहानी आजादी के बाद भी कुछ परिवारों तक ही सीमित राजनीतिक व्यवस्था को रेखांकित करती है। साथ ही सत्ता प्राप्ति के लिए उन परिवारों द्वारा किये जाने वाले षडयन्त्रों को भी उल्लेखित करती है ।

कहानी की शुरुआत आजादी के तुरंत बाद होने वाले परिवर्तनों से होती है जिनमें मुख्य परिवर्तन गांवों में स्कूल,डाकघर खुलने व किसानों के अपनी जमीन का स्वयं मालिक होना है । इसी के साथ गांवों में भी लोकतंत्र स्थापित करने के लिए सरकार चुनाव करवाने का फैसला लेती है । जिससे गांव को अपनी जागीर समझने वाले लोग डर जाते हैं । वे गांव वालों के अशिक्षित व भोलेपन का फायदा उठाकर कुछ लोगों की सहायता से अपने पुत्र रामसिंह को निर्विरोध प्रधान बना देते हैं।

रामनेर गांव के दो युवक महेंद्र-बलबीर दिल्ली जाकर काम करने लगते हैं । वहाँ के माहौल से उन्हें गांव के ठाकुर की चालाकी का पता चलता है की गाँव में सबसे ज्यादा वोट चमारों के हैं ओर यदि चुनाव हुये तो ठाकुर की जगह कोई अन्य भी गांव का प्रधान बन सकता है । ये दोनों भाई गांव आकर ये बात गांव के ही समृद्ध फगना चमार को समझाने में सफल हो जाते हैं साथ ही अन्य चमारों को भी ये बात समझ आ जाती है । फगना चुनाव लड़ता है पर रामसिंह चुनावों में धांधली करके जीत जाता है ।

चुनावों में जीत के बाद अपना तीन साल का कार्यकाल पूरा करने पर पुनः चुनावों का एलान होता है । इस बार रामसिंह को पता है कि वह नही जीत पायेगा सो वह नई चाल चलता है । चमारों में फूट डालने की चाल ।

इसके लिए वह एक चमार युवक लच्छीराम को अपनी जगह खड़ा करता है साथ ही अपने पुत्र नाहरसिंह का भी पर्चा भरवा देता है । गांव चमार आपस में सलाह करके इतवारी को चुनाव में खड़ा करते हैं । अंत में होता वही है जो रामसिंह ने सोचा था दोनों चमार चुनाव हार जाते हैं । नाहरसिंह प्रधान बन जाता है

लेखक के अनुसार ये नाटक निरन्तर चलने वाला है । जबतक जनसाधारण शिक्षित नही हो जाता इस नाटक का पटाक्षेप नही होगा ।

‘पटाक्षेप नहीं होगा’ मूल कहानी

आजादी के बाद जो कुछ बदलाव इस गांव में हुए उनमें स्कूल और डाकखाना खुलने के अलावा दस गुना लगान जमा करवा कर किसानों का स्वयं जमीन मालिक बन जाना था। ठाकुर की जमींदारी से कुछ को तो मुक्ति मिली और कुछ अभी भी ठाकुर-ब्राह्मणों के रहमोकरम पर ही थे। इस तरह के बदलाव के साथ गांव में लोकतंत्र को भी आना ही था। पहली बार ग्राम पंचायत के चुनाव आये गांव वाले समझे ही नहीं कि क्या करना है। इस पर मुखिया ने गांव में सभा बुलाकर सबसे राय पूछी कि किसे प्रधान बनाया जाए। उसके पंडित मित्र ने उसे ही प्रधान बने रहने की बात कही, बदले में उसने बुढापे का बहाना बनाया और पंडित के कहने पर ठाकुर के बेटे रामसिंह को सर्वसम्मति से प्रधान चुन लिया गया और बाकी चुनाव भी सर्वसम्मति से हो गये। मुखिया ने बाद में गांव वालों को बताया कि निर्विरोध चुनाव के कारण गांव का नाम पंडित नेहरू तक गया है। गांव वाले बहुत खुश हुए।

रामनेर गांव में आबादी के लिहाज से ठाकुर-ब्राह्मण तो बराबर थे, कुछ और दलित जातियों के भी घर थे, लेकिन चमारों की संख्या इन सबसे बहुत ज्यादा थी,। इस बात को चमार नहीं जानते थे, क्योंकि उनकी हैसियत ही ऐसी नहीं थी। हालांकि इनमें से कुछ के पास जमीन भी थी और पैसे भी। गांव के स्कूल में रामसिंह ने कच्ची-पक्की इमारत बनवा दी और अपने गुर्गे को नियुक्ति दिलवा दी, वही डाकखाने का भी काम देखने लगा। इस उद्दंड गुर्गे ने पढाने के बजाय बच्चों को पीटा ज्यादा और बच्चे शिक्षा के मामले में फिसड्डी ही रहे। गांव में बदलाव की पहली बयार दो ब्राह्मण भाइयों महेंद्र और बलबीर के दिल्ली जाकर काम करने की खबर से आई।

इनका पिता स्वाभिमानी था और मुखिया से दबता नहीं था। नाराज मुखिया ने उसे जमीन से बेदखल कर जबरन अपना कब्जा जमा लिया। पुलिस भी कुछ नहीं कर सकी और आखिरकार एक दिन गांव के पास नहर किनारे उसकी लाश मिली। उसके अनाथ बच्चों को मामा दिल्ली ले गया, कुछ पढ़ाया और सरकारी आफिस में चपरासी लगवा दिया। दोनों कभी-कभार गांव आकर घर की मरम्मत करवा जाते। इनके मन में भी मुखिया के विरुद्ध गहरा आक्रोश था।

दोनों भाई जान गये थे कि निर्विरोध चुनाव मुखिया की रणनीति का हिस्सा थे। दिल्ली में रहने कारण वे जानते थे कि अगर चमारों को संगठित कर दिया जाए तो मुखिया के आतंक से गांव को मुक्ति मिल सकती है। उन्होंने दिल्ली में ही तय कर लिया था कि अगले चुनाव में वे थोड़े बहुत पढ़े लिखे, समझदार और आर्थिक रूप से किंचित समर्थ फगना को चुनाव लड़वाएंगे। चुनाव घोषित होते ही वे गांव आ गए और फगना से चर्चा की। फगना को उनकी बात में दम लगा और फिर सारे चमार एक हो गए। मुखिया और सवर्णों को जब पता चला तो उन्हें बलवीर-महेंद्र पर बहुत गुस्सा आया। उन्हें हर तरह से समझाने की कोशिशें हुईं, लोभ-लालच भी दिया और डराया-धमकाया भी। लेकिन वे अड़े रहे। मुखिया ने चमारों को बुलाकर समझाया तो जो ठाकुर की दया पर निर्भर थे, वे पसर गये, जाति के मामले में क्या करते।

ठाकुर ने कहा कि चुपचाप साथ देना नहीं तो देख लेना। इस तरह चमारों में अदृश्य फूट पड़ गई। चुनाव का नतीजा वही निकला जिसकी आशंका थी। चमारों की फूट से रामसिंह ने फगना को भारी मतों से पराजित किया। बलवीर और महेंद्र को मुखिया ने बुलाकर खूब लानत-मलामत की। दोनों ने कहा कि यह आखिरी चुनाव थोड़े ही है। मुखिया ने कहा, ‘तुम्हारे लिए तो आखिरी ही समझो।’ दोनों भाई पराजय से टूटे फगना के पास गये और हिम्मत बंधाई। दोनों ने कहा कि अपने लोगों को संगठित करने में लगे रहो, अगले चुनाव में सबको दिखा देंगे। उसी रात कुछ लोगों ने महेंद्र-बलबीर को बुरी तरह पीट डाला। सुबह फगना और कुछ लोग दोनों को मरहम-पट्टी के लिए कस्बे ले गये। थाने गये तो पुलिस ने डांटकर भगा दिया। दोनों भाई वहीं से दिल्ली चले गये।

गांव में जातिवादी माहौल घना हो गया। विधान के अनुसार पंचायत के चुनाव तीन साल में एक बार होने थे, लेकिन सूखा और बाढ़ जैसे बहानों से चुनाव टलते रहे और सात साल तक रामसिंह ही प्रधानी करता रहा। गांव में जातिवादी वैमनस्य बढ़ने लगा, लेकिन फगना के कारण चमारों में आई चेतना से वे ठाकुर-ब्राह्मण गठजोड़ का डटकर मुकाबला करने लगे। रामसिंह इस बीच पंचायत के पैसों से खुद का विकास और तेजी से करता रहा। मुखिया की मौत के बाद वह और निरंकुश हो गया। फिर चुनावों की घोषणा हुई तो चमार बहुत खुश हुए। फगना महेंद्र-बलवीर के पास दिल्ली गया। इस बार वे आने के लिए राजी न थे, लेकिन फगना के कहने पर चुनाव से एक सप्ताह पहले गांव आने के लिए मान गए। दोनों गांव आए तो देखा चमारों में जबर्दस्त जोश था।

लेकिन रामसिंह भी कम नहीं था, उसने शुरु से ही इनकी राह में कांटे बिछाना प्रारंभ कर दिया था। पहले तो इन्हें वोटर लिस्ट नहीं मिली और जब मिली तो देखा कि उसमें दोनों भाइयों के साथ चमारों के उन लोगों के भी नाम नहीं हैं जो बाहर रहते हैं, जबकि ब्राह्मण-ठाकुरों में सबके नाम थे। इसके बावजूद चमारों के वोट अब भी बाकी सबसे ज्यादा थे, यानी जीत का गणित चमारों के पक्ष में था और वे आश्वस्त थे।

चुनाव से पहले पोलिंग पार्टी आई, जिसका चुनाव अधिकारी संयोग से ठाकुर ही था। रामसिंह ने उसे रात को दावत पर बुलाया, दारू पिलाई तो जाति के नाम पर और रिश्वत में मिले रुपयों के कारण अधिकारी ने रामसिंह को हर हाल में जीतने की रणनीति बताई। सुबह पोलिंग के वक्त जब शुरु में मतदाता नहीं पहुंचे तो अधिकारी दोनों के एजेंटों को चाय पिलाने ले गया। एक घण्टे बाद वे लोग लौटे तो वोटर आने लगे थे। चमारों की औरतें आईं तो पता चला उनके वोट तो पहले ही दिये जा चुके हैं। खूब हंगामा हुआ। साफ था कि रामसिंह ने एक घण्टे में उतने वोट डलवा दिये जिससे वो जीत सके और हुआ भी यही वो करीब सौ वोटों से जीत गया।

फगना ने लोगों की सलाह पर अदालत में चुनाव के खिलाफ रिट लगाई और अगले चुनाव तक मुकदमा चलता रहा। रामसिंह के धांधली से प्रधान बन जाने से गांव में सवर्ण-दलित संघर्ष और गहरा गया। फगना ने केंद्र तक के दलित नेताओं तक पहुंच बना ली तो रामसिंह ने सवर्ण नेताओं से। दोनों अपने नेताओं को गांव में लाकर सभाएं कराने लगे और गांव में अलग किस्म की जातीय राजनीति का उभार हुआ। दोनों तरफ गुण्डों की तादाद बढ़ गई और आए दिन संघर्ष होने लगा। रामसिंह पंचायत के पैसों से कागजों में गांव का विकास करता रहा और खुद भी माल हड़पता रहा। फिर चुनाव आए तो रामसिंह को लगा अब चुनाव जीतना आसान नहीं है तो उसने नई रणनीतियों पर सोचना शुरु कर दिया।

ब्राह्मण-ठाकुरों की मीटिंग बुलाकर पूछा कि क्या करना है। खुद चुनाव लड़ने से इन्कार कर दिया और कहा कि इस बार सब मिलकर तय करें। उसने अपने विश्वस्त चमार लच्छीराम का नाम चला दिया। चमार पहले तो खुश हुए फिर निराश कि इससे तो रामसिंह की ही सत्ता चलती रहेगी। उनमें दो गुट बन गये। रामसिंह के सिखाने से लच्छीराम का जोश दोगुना हो गया और वह अपने जाति भाइयों के कहने पर भी मैदान से नहीं हटा। पर्चा दाखिल करने वाले दिन रामसिंह ने चुपके से अपने बेटे नाहरसिंह का भी फार्म भरवा दिया।

आखिर में नाम वापस लेने के बाद तीन उम्मीदवार रह गये, नाहरसिंह, लच्छीराम और इतवारी चमार यानी दो दलित और एक सवर्ण। चुनाव का नतीजा तय था, क्योंकि रामसिंह ने खेल ही ऐसा खेला था। चमारों के वोट बट गये और नाहरसिंह अपने दादा और पिता की परंपरा आगे बढाता हुआ प्रधान बन गया। आजादी से पहले उसका दादा गांव का मुखिया था और अब तीसरी पीढी में वह था। यह सिलसिला खत्म नहीं हुआ ना? जब तक इस नाटक का पटाक्षेप नहीं होगा, समाज नहीं बदलेगा ।

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